रिवाल्सर में 22 मार्च 2015 को बौद्ध शिक्षा एवम भोटी भाषा पर तीन दिवसीय संगोष्ठी में पढ़ा गया पत्र
लाहुल और स्पिति में शिक्षण और
प्रशिक्षण की परम्परा का इतिहास
-
तोबदन
लाहुल और स्पिति दोनों क्षेत्रों
में प्राचीन काल में शिक्षण पद्धति की परम्परा कुछ भिन्न भिन्न रही है। इसका एक
मुख्य कारण यह था कि शिक्षण पद्धति दोनों क्षेत्रों में वहां की सामाजिक व्यवस्था
पर आधारित थी और दोनो की सामाजिक व्यवस्था में कुछ आधारभूत भिन्नता थी।
वैसे लाहुल और स्पिति दोनों की
भौगोलिक परिस्थिति और पर्यावरण में बहुत समानता है, जो
अत्यंत कठोर हैं। यहां खेती के लिए भूमि बहुत कम है और फसल भी वर्ष में केवल एक ही
हो पाती है, वह भी बहुत कठिनाई से, क्योंकि यहां सिंचाई के बिना कोई फसल नहीं उगाई
जा सकती है। यहां जंगल भी नहीं है जिस पर कि कुछ सीमा तक आर्थिक लाभ के लिए निर्भर
किया जा सकता है। इस कठिन वातावरण में किसी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए बहुत
अधिक संघर्ष करना पड़ता था। इसलिए किसी भी
परिवार के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधनों का प्रबन्ध करना उसकी बहुत बडी समस्या थी।
कठोर सामाजिक व्यवस्था इसका एक बहुत बड़ा उपाय था और यह रास्ता अपनाना अनिवार्य था।
व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण
उद्देश्य था परिवार की संपत्ति और संसाधनों को विभाजित होने से रोकना ताकि परिवार
के वर्तमान व भविष्य के सभी सदस्यों के लिए आर्थिक सुरक्षा की गारंटी हो सके।
वर्तमान में आवश्यक था परिवार के सभी सदस्यो को सुव्यवस्थित ढंग से लाभदायक आर्थिक
गतिविधि में कार्यरत करना। इसके लिए लाहुल और स्पिति में भिन्न-भिन्न विधि अपनाए
गए।
इसी कारण से लाहुल और स्पिति में
पूर्व काल में शिक्षण पद्धति में भेद रहा हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि इन
दोनों क्षेत्रों में स्ंास्थागत रूप से शिक्षण प्रक्रिया का प्रचलन आरम्भ में
र्धािर्मक प्रतिष्ठानों से ही सम्बन्धित था।
स्पिति में धार्मिक संस्था अर्थात मठों का आश्रय लिया गया। यहां सबसे बड़ा
भाई घर और ज़मीन-जायदाद की देखभाल करता था और कुछ भाईयों को मठ में भेज दिया जाता
था। अतः यहां मठ में काफी संख्या में छात्र हो जाते थे जहां सामुहिक शिक्षण
व्यवस्था की जा सकती थी। यहां शिक्षण की व्यवस्था अच्छी होने के कारण शिक्षा का
स्तर भी अच्छा था। अच्छे ज्ञानी थे और कई
विद्वान हुए। रांगरिक-रे-छेन यहां के ऐसे ही एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। उनकी
कुछ रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। यहां के शिक्षक बाहर के इलाकों में मठों के अधीक्षक
रहे हैं। जैसे कि लाहुल में, नेपाल
में, तथा अन्यत्र।
स्पिति में
शिक्षार्थियों और प्रशिक्षार्थियों का एक अन्य वर्ग था जो बुछेन कहलाते हैं। ये
अधिकतर गृहस्थ हैं और इनकी संख्या भी कम ही है। अतः इनके शिक्षण और प्रशिक्षण की
विधि भी भिन्न रही है। इनका प्रशिक्षण लम्बा होता है। उन्हें साहित्य, नाटक,
गीत, संवाद,
नृत्य, आदि कई विषयों से सम्बन्धित ज्ञान अर्जन करना
होता था और कई प्रकार के कार्य करने होते हैं। ये परम्परा से परिवार में ही
व्यवसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते थे। अथवा किसी को गुरू बना कर उनका चेला बन
जाते थे। उनसे सीखते और उनकी देख रेख में शिक्षा ग्रहण करते थे। परन्तु अधिकतर ये व्यवहार में काम करते करते
सीखते थे।
लाहुुल में परिवार में आर्थिक
प्रबन्धन कुछ भिन्न था। यहां सभी भाई घर में रहते थे। परिवार के विभिन्न सदस्य अलग अलग कार्य में
व्यस्त हो जाते थे जैसे कि एक भाई घर में रहेगा। एक घोड़े खच्चर के साथ जाएगा और
तीसरा यदि हो तो कुछ और काम करेगा। उनमें से किसी किसी घर से एक भाई लामा हो जाता
था। परन्तु प्रायः वह भी गृहस्थ ही होता
था। वे मठों में केवल कुछ समय के लिए ही रहते थे। अतः मठ में पर्याप्त संख्या में
शिक्षार्थी नहीं होतें थे। यहां जिसे लामा
बनना हो उसे अपना गुरू स्वयं ढूंढना होता था और उसी के अधीन वह अध्ययन करता था।
इस विधि से शिक्षा का स्तर बहुत
ऊंचा नहीं हो सकता था। यह क्षेत्र में कर्मकांड के कार्य के लिए तो पर्याप्त था
परन्तु उच्च स्तर का शिक्षा अर्जन के लिए सह व्यवस्था अपर्याप्त थी। अतः कुछ
जिज्ञासु शिक्षार्थी अघ्ययन के लिए बाहर जाते थे जैसे निकट में जंखर। परन्तु यहां
की परम्परा अध्ययन के लिए अधिकतर भूटान,
नेपाल और तिब्बत
मे जाने की रही है।
इन लामाओं में कुछ व्यवसायिक भी
होते थे। जैसे अमची,
अर्थात वैद, मूर्ति व थंका बनाने वाले, और दीवार पर चित्रकारी करने वाले पोन, तथा लकड़ी और पत्थरो पर अक्षर खोदने वाले। इनका
भी प्रशिक्षण इसी विधि से होता था। वे किसी ऐसे प्रसद्धि व्यक्ति के साथ काम करते
रहते थे। परन्तु इनकी संख्या बहुत कम थी।
ऊपर बताए
गए शिक्षण प्रथा का प्रसार स्पिति और लाहुल दोनों में लगभग ग्याहरवी-बारहवीं सदी
से आरम्भ हुआ, जब स्पिति के निकट के क्षेत्र गुगे
के महान अनुवादक रिन्छेन जांगपो का अनुवाद व मन्दिर निर्माण तथा विथिन्न रूप से
विद्या के प्रसार का अभियान चला। तब
स्पिति, किन्नौर और लाहुल में कई मन्दिर
स्थापित हुए। इस वातावरण में स्थानीय भिक्षुओं के बनने की परम्परा का भी शुभारम्भ
होना आवश्यक था। इससे पहले कुछ भिन्न प्रथा थी तो उसका हमें ज्ञान नहीं है। इस
प्रकार स्पिति और लाहुल में शिक्षा का प्रसार प्रारम्भ में भिक्षुओं में हुआ। भिक्षुओं के अतिरिक्त कुछ साधारण व्यक्ति भी
शिक्षित थे। उनके शिक्षण का प्रबन्ध व्यक्तिगत ही रहा होगा।
उपरलिखित शिक्षण व्यवस्था लिखित
ग्रन्थों पर आधारित व्यवस्था है। लाहुल में कुछ ऐसे शिक्षार्थी भी थे, जैसे कि सभी जगह होता है, जिनकी शिक्षा का स्त्रोत ग्रन्थ नहीं था बल्कि
वे परम्परा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान प्रवाहित करते थे अथवा शिक्षार्थी
किसी अन्य शिक्षक से ज्ञान प्राप्त करता था। इनमें एक श्रेणी है लब्दागपा की और
दूसरा है लहफा। ये दोनों स्थानीय देवताओं के पुजारी हैं। लब्दागपा अपने घर के
देवता की पूजा करता है जो साल में दो तीन बार होता हैं। कभी कभी उसे दूसरों के घर
में भी पूजा करनी पड़ती है।
लब्दागपा छोटे छोटे मन्त्र अथवा
प्रार्थना का प्रयोग करते हैं और वे अपने परिवार के पूर्वजों से सीखते हैं। इनके
मन्त्र गुप्त नहीं होते हैं। ये अपने मंत्र जोर से स्पष्ट बोल सकते हैं और लोगों
को बता सकते हैं। ये उबरते नहीं हैं,
इनको देवता नहीं
चढ़ता है। ये शांन्त रहते हैं।
लहफा कुल्लु के गूर का रूपान्तर
हैं। ये कुछ स्थानीय बड़े देवता जैसे गेपांग,
तंगजर आदि के गुर
हैं। तथा कुछ अन्य तान्त्रिक भी इसी श्रेणी में आते हैं जो झाड फूंक करते हैं या
गडवी चलाते हैं। इनकी विद्या का प्रायः जनसाधारण को ज्ञान नहीं होता है। इनकी
शिक्षा परम्परा से परिवार में होता है अथवा किसी गुरू से ग्र्रहण की जाती है।
इनके मन्त्र गुप्त होते हैं जिनको लिखा
नहीं जा सकता है न ही साधारण व्यक्ति को बताया जा सकता है। केवल अपने शिष्य को ही
बताया जाता है। अतः यदि यह विद्या एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानान्तरित नहीं
किया गया तो इनके गुप्त ज्ञान की परम्परा टूट जाती है तथा वह विद्या लुप्त हो सकती
है।
हसी तरह यहां एक अन्य सामाजिक वर्ग
है जिसे भट कहते हैं। ये ब्राह्मण श्रेणी से संबंधित हैं और ब्राह्मण का कार्य
करते हैं। कुछ धार्मिक कृत्यों में ये जो पाठ करते हैं उनमे कुछ पाठ उनके स्वरचित
हैं। इनकी शिक्षा भी परिवार की परम्परा और गुरू शिष्य की परम्पर पर आधारित है।
लोहार और
सुनार की कारीगिरी का काम भी प्रायः परिवार में परम्परा से चलता रहा है। मिस्त्री
बनने के लिए लोग किसी के शागिर्द हो जाते हैं। तरखान प्रायः लोगों के साथ काम करते
करते सीख जाते थे।
यह लाहुल और स्पिति में प्राचीन काल
में प्रचलित शिक्षण पद्धति का एक परिचय है।
--------------------
तोबदन,
मियां बेहड़ं, ढालपुर,
कुल्लु - 175101 हि0 प्र0
।
19.03.2015