संस्मरण
- यूसुफ
दो हफ्तों की छुटी पर मैं सोमबार 03-06-13
,को सुवह करीब छ बजे मैं
कुल्लू पहुंचा. कलकता की गर्मी से कुछ राहत पाने की चाह में, यहाँ का मौसम
बिलकुल सही था. पर मौसम जेसा भी होता, घर पहुँच कर सब ठीक ही लगता हे. शनिबार शाम
से सफर कर रहा था इस लिये शरीर थका हुआ था. दिन भर घर पर आराम करता रहा. दिन के
करीब तीन बजे मुझे अपने मित्र प्रताप का फोन आया, जिन्हें मेरे कलकता से
आने की खबर थी और अनुमान भी था कि मैं घर पहुँच चुका हूँगा. फोन पर दुआ-सलाम के
बाद उन्हों ने बताया कि वह अपनी दुकान में ही बैठे हें और अजेय भाई और एक पुराने
मित्र आये हुये हें और यह कहते हुये उन्हों ने फोन उन मित्र के हाथ थमा दी कि आप
पहचानिये, हेल्लो से बातचीत शुरू हुई, आवाज़ जानी पहचानी मगर पहचान नहीं पाया. फिर
फोन बंद कर मैं तेयार होने लगा और मित्र के आवाज़ के बारे सोचने लगा और उसी पल मेरे
मस्तिष्क के किसी कोने से वह आवाज़ स्पष्ट हो गई, मेने तुरंत दुबारा फोन मिलाया इस
बार फोन अजेय भाई ने उठाई और मेने मित्र का नाम उन्हें बता दिया, और अजेय भाई ठहाका
लगा कर हंसने लगे. यह मित्र और कोई नहीं, कक्कू (चरनजीव) रवालिंग वाले थे.
जिन की आवाज़ काफी सालों के बाद सुन् रहे थे. बीस मिनट के अंदर मैं मित्रों के बीच
था. गप-शप चली, इस बीच विक्टर (विजय शिपटिंग) और शामू भाई भी पहुँच
गये, मंडली और बढ़ गई, समय की परछाईयाँ हम सब के शरीर पर दिख रही थी, किसी के बालों
का रंग बदल गया था कुछ के तोंद हल्के से बाहर निकल पड़े थे. प्रताप की चाय
पीते-पीते शाम घिर आई, और फिर इस मुलाकात को बीयर की चंद बोतलों से सेलिब्रेट
किया. आज हम सब के पास वक्त कम था, अजेय भाई को आज रात ही लाहुल जाना था और मैं भी
करीबन तीन महीने के बाद परिबार के पास आया था इस लिये लम्बी सिटिंग नहीं दे पा रहे
थे. बात-चीत करते –करते यह तय हुआ कि इन छुट्टियों में एक दिन घर से दूर कहीं
बिताया जाये, सब तेयार हो गये, जगह कोठी, (पलचाण) चुना गया. विक्टर ने बताया कि उन
के विभाग का बिश्राम ग्रह कोठी में हे, उसे बुक कर के एक रात वहाँ गुजारी जा सकती
हे. पर्यटकों का सीजन चल रहा था अत: बुकिंग मिलने की सम्भावना थोड़ी कम थी. इस सूरत
में प्रताप के पास एक और ठिकाना था. और इस तरह हम ने दिन रखा, शुक्रबार. अजेय भाई
लाहुल से शाम को सीधे कोठी उतरेंगे. और हम लोग कुल्लू से चलेंगे. इस बीच प्रताप का
पड़ोसी मोटर मेकेनिक राजू आ गया. राजू जो रहने वाला तो आंद्र प्रदेश का हे
मगर कई सालों से यहीं अपना धंधा चला रहा हे. प्रताप की वजह से हमारी भी उस से
दोस्ती हो गई थी अक्सर हम लोग अपनी गाड़ी राजू के पास ही धुलवाते हें. बस आते ही उस
ने दो तीन बीयर और मंगवा ली. वीयर खत्म कर हम सब अगले शुक्रबार की योजना की कामयाबी
की दुआ करते विदा हो गये. साथ में प्रताप ने अपडेट्स देते रहने की बात की.
दो हफ्ते की छुट्टी ज्यादा नहीं होती हे, पलक झपकते ही खत्म
हो जाती हें, मुझे अपने सारे काम दिनों के हिसाब से तय करने थे, सो मैं शुक्रबार
को रिज़र्ब रख कर अपना प्रोग्राम बनाने लगा. अगले कुछ दिनों में, मैं घर के छोटे
मोटे काम निपटाता रहा. जिस में मुख्यता आधार कार्ड बनवाना था.
इस बीच प्रताप से जानकारी मिली कि कोठी का विश्राम गृह मिलना
मुश्किल हे, साथ में उन के पास जो स्टेंड वाई ठिकाना था वह भी मिलना संभव नहीं हे.
साथ यह भी खबर मिली कि अजय भाई का शुक्रबार को पहुँचना कठिन हे, और अब प्रोग्राम
शुक्रबार की वजाये शनिबार को करना तय हुआ.
लेकिन ठिकाना अभी भी तय नहीं था. मेने अपना शुक्रबार का प्रोग्राम परिवार के साथ
बगीचे जाने का बना लिया. इस बीच प्रताप ने बताया कि विक्टर ने लगवेली में अपने
विभाग का विश्राम गृह बुक करा लिया हे, और वह लोग शुक्रबार को ही जा रहे हे.
प्रोग्राम के हिसाब से हम कुछ लोग शुक्रबार को नहीं पहुँच पा रहे थे.अब इस तरह
प्रोग्राम दो दिन का हो रहा था. मेने शुक्रबार की शाम परिबार के साथ बगीचे जा कर
घर बालों के साथ गुजारी. मैं और अजेय भाई अगले
दिन यानि शनिबार को मंडली में शामिल हो सकते थे. अगले दिन मैं दोपहर को बगीचे से
कुल्लू की और चल पड़ा. प्रताप से बराबर सम्पर्क में थे. जो शुक्रबार रात मंडली के
साथ गुज़ार कर सुवह वापिस कुल्लू आया हुआ था. इस बीच अजय भाई शुक्रबार रात को देर
होने की वजह से वह मनाली ही रुक रहे . वह भी सुवह समय पर कुल्लू पहुँच गये. और
अपने काम से निपट कर मेरी प्रतीक्षा में थे. आखिर मैं भी फ़ारिग हो कर अपनी गाड़ी से
ढालपुर टेक्सी स्टेंड पहुँच गया. आते-आते चुंगी से तीन किलो चिकन प्रताप के
निर्देशानुसार ले कर आया. इस बीच मुझे चुंगी में विक्टर मिल गया. विक्टर ने भी साथ
चलने के लिये कहा और उस का इंतज़ार करने के लिये कहा. ढालपुर, अजेय भाई और प्रताप
बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. वह दोनों अब तक जरूरत कि सारी चीज़ें इक्कठे कर चुके
थे. यहाँ प्रताप ने बताया कि शामू और कक्कू दोनों लगवेली ही हें, और हमारे लिये
दोपहर का भोजन तेयार कर रहे हें. प्रताप ने पिछली रात की बातें बताई किस तरह रात
तकलीफ हुई, लोक निर्माण विभाग का बिश्राम गृह जिस की बुकिंग की थी, का रिपेयरिंग
का काम चल रहा था. रहने का उचित बंदोबस्त नहीं था. और किस तरह रोशन थोरंग,
आई टी बी पी वाले, ने सुवह उठ कर साथ के गांव में एक घर में आज के रहने का प्रबंध
कर दिया, जो हिमाचल सरकार के पर्यटन योजना ‘स्टे होम’ के अंतर्गत चल रहा था. अत: हमारी
आज की रात पिछली रात से वेहतर होने वाली थी.
अब हम तीनो विक्टर का इंतज़ार कर रहे थे. इस बीच बझीया के दुकान
के आगे बैठे-बैठे लाहुल के कुछ और लड़के
मिले. हम ने उन्हें भी निमंत्रण दिया मगर वह नहीं आये. इस बीच हमारे पुराने मित्र
युरनाथ के दवा राम, जो आज कल परिवार के साथ मनाली ही रहते हें, पीठ में एक
झोला लटकाए पहुँच गये. उन्हें भी न्योता दिया गया और वह भी मंडली में शामिल हो
गये. थोड़ी देर में विक्टर भी पहुँच गया. तय हुआ मेरी गाड़ी ले कर जाएंगे, सो विक्टर
ने अपनी गाड़ी देव सदन में पार्क कर दी और इस तरह हम पांच जने, मैं, अजय भाई,
विक्टर, प्रताप और दवा राम चल पड़े लगवेली की और एक मधुर शाम की उम्मीद लिये. हम
में से कोई भी लगवेली से बहुत ज्यादा परिचित नहीं था हलांकि कुल्लू से सट्टा होने
के वाबजूद हम लोगों का इस वेली में ज्यादा आना जाना नहीं था. सिर्फ कुछ गांव के
नामों से वाकिफ थे और जो कुल्लू के साथ लगे गांव हें उन के बारे थोड़ी-पूरी जानकारी
थी. धीरे धीरे गाड़ी चलती रही, सड़कें जेसे आम होती हें, सँकरी, गड्ढों से भरी और
कुछ हिस्सों में कच्ची धूल भरी. प्रताप ने हमें रात की बातें बताई, और किस तरह
सुवह तड़के वह तकरीबन पांच-छह किलोमीटर पैदल चल कर कुल्लू की और निकला था. रास्ते
में शार्ट कट के चक्कर में उसे एक-दो किलोमीटर का और चक्कर पड़ गया था. हम आगे बढते
रहे मगर घाटी वेसे की वेसे ही सँकरी थी जेसे शीशामट्टी से अंदर होते ही नज़र आती
हे. अब मुख्य सरवरी नदी छूट गई. अब सिर्फ खड्ड ही नज़र आ रहा था मगर पानी उस में
नाम मात्र का ही था. शायद मुख्य सरबरी नदी शालंग वेल्ट से आ रही थी. हम
बढते गये और धीरे धीरे चढ़ाई भी बढ़ने लगी. पूरे घाटी में हरियाली ने अपना रंग बिखेर
रखा था. अभी मानसून पहुंचा नहीं था मगर हरियाली भरपूर थी. वैली के दाहिने छोर से
हम आगे बढ़ रहे थे लग वैली का ज्यादातर आवादी इसी तरफ बसता हे. सेब के पेड़ और कुछ
इलाकों में दयार के पुराने जंगल हरियाली को और गहरा रंग दे रहे थे. सड़क के दाहिने
तरफ हम ने देखा दयार के दरख्तों के बीच एक प्राचीन मन्दिर जिस के आगे खुला आंगन
था. हम जान नहीं पाए कि यह मन्दिर किस देवता या देवी का था. थोड़ी देर बाद हम लोग
अपने गंतव्य तेलंग गांव पहुँच गये, प्रवेश
द्वार पर कक्कू की जिप्सी खड़ी थी, मेने भी गाड़ी वहीँ खड़ी कर दी. दुआ सलाम,
हाल-चाल, गिले-शिकवे के साथ हम ने अपना सामान अंदर कमरे में रख दिया.
कक्कू और शामू ने लंच तेयार कर रखा था. तुरंत हम लोग लंच
करने बैठ गये. मुझे याद नहीं पड़ता हे कि पिछली बार हम इतने सारे दोस्त एक साथ
कहीं बैठे हों और एक साथ खाना खाया हो.
पढाई के बाद इन पन्द्रह- बीस सालों में हम सभी अपने अपने पेशे में व्यस्त रहे. कोई
नोकरी के सिलसिले में दोस्तों से दूर भी रहे, कोई अपने व्यवसाय में मसरूफ हो गया.
फिर सभी दोस्त गृहस्त जीवन में भी डूब गये. फिर बच्चे, परिवार, समाज इन बर्षों में
यह सब भी साथ चलता रहा. इन बीते बर्षों में हम आपस में भी कभी-कभी मिलते भी रहे,
मगर कभी इस तरह कभी इक्कठे नहीं हुये. इस बार अचानक जब हम लोग मिले और यह
प्रोग्राम बना तो किसी ने आपत्ति या असहमति नहीं जताई. शायद हम सभी अपने जीवन में
सब कुछ होते हुये भी एक खालीपन कहीं न कहीं महसूस कर रहे थे. और उसी का नतीज़ा था
कि हम में से कोई इस मौके को चूकना नहीं चाहता था. सब से बड़ी बात यह थी कि हम सभी अपने
परिवारों से बच्चों से अनुमति ले कर आये थे. मेरे लिये तो एक अच्छी बात और थी कि
यहाँ आईडिया नेटवर्क नही था इस लिये मेरा सेल फोन यहाँ नहीं चल रहा था. यहाँ सिर्फ
वी.एस.एन.एल. का सिग्नल था. रहने की व्यवस्था उम्मीद से कहीं बेहतर थी. मकान
पुराने कुलवी शैली में बनाया हुआ था मगर आधुनिकता से अनछुआ नहीं था. लकड़ी का खूब
उपयोग किया गया था. कमरे एक ही लाईन में बने थे. कमरों के बाहर एक लम्बा बरामदा था
जिस के चारों और लकड़ी की खिड़कियाँ बनी थी, जो दो-दो पल्लों में खुलती थी.इस तरह के
मकान मेने अप्पर शिमला में भी देखे हें. इतने बड़े बरामदे और इतनी खिड़कियों का मकसद
शायद सर्दियों में धूप की गरमाइश को संजोना रहा होगा. दूसरे लकड़ी की उपलब्धता भी
एक कारण रहा होगा. मकान दो मंजिल का था और कमरे का प्रवेश द्वार आँगन से सीमेंट की
सीढियाँ चढ़ कर थी. ढलान पर होने की वजह से दूसरी मंजिल भी प्रवेश द्वार की तरफ से
ज़मीन से लगी हुई थी. प्रवेश द्वार से कमरे और कमरे से बरामदा और फिर बरामदे से दो
अन्य कमरों में आना जाना संभव था. बीच वाले कमरे से एक खड़ी सीढ़ी पहले मंजिल के
लिये उतरती थी, जो पुरानी फिल्मों में देखी तहखाने का आभास दे रही थी, और वहीँ पर
किचन बनाया गया था. किचन में सभी सुविधाएँ मौजूद थी. मसलन गैस से ले कर मसाले तक
सभी चीज़ें यहीं उपलब्ध थी. यहीं पर कक्कू और शामू ने आज का लज़ीज़ लंच दाल-चावल
बनाया था.
इस बीच हमारा परिचय मकान मालिक केहर सिंह से हुआ.
कहर सिंह ने लंच भी हमारे साथ ही किया. कहर सिंह उम्र में हमारे आस-पास का ही था. ठिगना
कद, गोरा रंग और बातों में गहरी दिलचस्पी रखने वाला. बहुत जल्दी वह हम लोगों से
घुल मिल गया. बातों-बातों में मालूम पड़ा कि केहर सिंह यूनिवर्सिटी तक कि पढ़ाई कर
चुका हे. लेकिन पूरी की या नहीं इस की जानकारी न उस ने दी न हम ने पूछा. खाना खाने
के बाद बरामदे में ही हम लोग सुस्ताने लगे, लेकिन बातों का सिलसिला जारी था. केहर
सिंह के पास हर विभाग की खबर, हर मुद्दे की जानकारी थी. खास कर लोकल नेताओं और
ठेकेदारों के बारे उस की पकड़ अच्छी थी. हम सभी केहर सिंह के मुहं पर देखे जा रहे
थे और वह अपनी जानकारी हम पर बरसाए जा रहा था. बीच-बीच में हम में से भी कोई जबाब
दे रहा था. यहाँ एक जानकारी और प्राप्त हुई, यह जानकारी अजय भाई से मिली कि कक्कू
के पूर्वज लगवेली से ही लाहुल आये थे. और वह साथ लाए कुल्लवी देव परम्परा. जिसे
अभी भी रवालिंग गांव में देखा जा सकता हे. पूरे लाहुल में सिर्फ रवालिंग गांव के
देवता का रथ पालकी में निकाला जाता हे यह परम्परा अभी भी निभाई जा रही हे. कक्कू
ने भी इस बात कि पुष्टि की और उन्हों ने थोड़ी जानकारी और देते हुए बताया कि उन के
पूर्वज पहले शांशा गांव में रहे लेकिन किन्ही मतभेदों के कारण वह रवालिंग चले गये
और वहीं बस गये.
मेरी फरमाईश पर शामू अपने साथ अपनी बाँसुरी साथ ले कर आये
थे. फिर शामू ने कुछ धुने सुनाई, अजय भाई ने भी अपनी उँगलियाँ चलाई. बरामदे की
खुली खिड़कियाँ से हवा आ रही थी मैं सामने की पहाड़ी पर नजरें जमाये धुन सुन रहा था
अचानक मुझे बंदरों का एक झुंड नज़र आया. फिर बारी–बारी सभी सब ने उस झुंड को देख
लिया, मगर कक्कू को झुंड ढूँढने में काफी समय लगा.पहाड़ी एक दम खड़ी थी मगर एक दम
हरा भरा. नीचे खड्ड से एक पगडंडी सीधे पहाड़ी की चोटी की और गई थी जो पहाड़ी के उस
पार गांव की और निकलती थी. केहर सिंह से ही मालूम पड़ा कि यह पगडंडी जंगलात द्वारा
निकाला हुआ हे. कुछ देर आराम करने के बाद हम लोगों ने बाहर जाने का प्रोग्राम
बनाया और हम सभी निकल पड़े और साथ बांसुरी भी ले गये.
घर के बाहर आँगन में केहर सिंह ने लहसुन सुखाने रखा हुआ था.
वादी में आज कल लहसुन के पकने का समय हो गया था. दिन भर खेतों से लहसुन निकालने के
बाद लोग अब शाम के समय नाइलोन की बड़ी जालीदार थेलियों में भर कर सड़क तक ढो रहे थे.
इन लोगों को देख कर मुझे अपने गांव का
मटर सीजन याद आ रहा था. हम लोग जब कमरे से निकले थे तो केहर सिंह ने आँगन से ही
हमे उपर की और जाने का रास्ता बता दिया. वास्तव में हम लोग उस जगह जाना चाह रहे थे
जहाँ से भुब्बू जोत का सुरंग
निकाला जा रहा था. सियासी हलकों में भुबू जोत का जिक्र काफी पुराना हे. यह सुरंग
कुल्लू और मंडी को आपस में जोड़ता हे. गद्दी अपने भेड़ बकरियों को ले कर इसी रास्ते
से चलते हें. सड़क के किनारे एक दो दुकाने नज़र आया रही थी जिन के आगे कुछ लोग
फुर्सत में यूं बैठे थे नज़र रहे थे जेसे
इन लोगों के पास समय की कोई कमी नहीं हो. इन लोगों ने हम पर ज्यादा तवज्जो नहीं
दिया. विभाग की सड़क बदहाल स्थिति में थी. मुख्य गांव यहाँ से थोड़ी दूर उपर टीले में
बसा था. गांव तक सड़क अभी नहीं बनी थी. अलबता ट्रेस निकला हुआ था और हि०. प०. प०.
नि०. की बस सुवह शाम लोगों को शहर ले जाने और शाम को वापस घर छोड़ने के लिये ज़रूर
आती हे. बड़े से नाले को जिस में पानी नाम का ही था पार कर हम लोग उपर टीले पर आ
गये यहाँ थोड़ी देर सुस्ताने बैठ गये, शामू और अजय भाई ने कई धुनें सुनाई. यहाँ से
कहर सिंह का मकान स्पष्ट दिख रहा था. मकान के उपर गांव भी नज़र आ रहा था. ढलान में
सीढ़ीदार खेत भी शानदार नज़ारा पेश कर रहे थे. कुछ लोग पीठ पर लहसुन के बेग को उठाये
हुए नीचे उतरते नज़र आ रहे थे. कुछ देर
यहाँ रुकने के बाद हम सड़क से आगे बढ़े. कुछ मज़दूर सड़क के साथ चिनाई कर रहे थे पूछने पर पता
चला कि मकान बनाया जा रहा हे. सड़क आगे से घूम कर दोबारा नाले की तरफ आ गई इस बार
हम ठीक उस पॉइंट के उपर थे जहाँ कुछ देर पहले हम रुके थे. यह जगह उस पहले वाले
पॉइंट से ज्यादा अच्छी थी. दवा राम और कक्कू ने अपने फेफड़ों को ताज़ी हवा दी.यहाँ
भी धुनें सुनी. फिर कुछ देर बाद आगे बढ़े. सड़क का काम अब बंद पड़ा था. क्यों कि सड़क पर घास उग आई थी. थोड़ा आगे चल कर
सड़क खत्म हो गई. सड़क को देख कर लगता नहीं था कि सरकार भुब्बू जोत पर सुरंग निकालने
के लिये गंभीर हे. जहाँ पर सड़क खत्म हो गई वहीँ से प्रताप और दवा ने अपनी शारीरिक
फिटनेस का प्रदर्शन किया, और दोनों सीधी ढलान उतरते हुये कमरे की तरफ चल पड़े.
उन्हों ने हम सब को भी बुलया मगर बाकि हम सब उसी रास्ते से वापिस मुड गये. वापिसी
पर देखा की हि० प०. प०. नि०. की बस आई हे. मैं चालक की कुशलता पर थोड़ा हेरान ज़रूर
था. क्यों कि वहाँ गाड़ी मोड़ने कि कोई जगह नहीं थी और बस भी काफी लम्बी थी. हम ने
प्रताप और दवा को फोन पर कह दिया की वह दोनों चाय बना के रखें. थोड़ी ही देर में हम
लोग टहलते-टहलते अपने ठिकाने पहुँच गये. हम लोग बाहर मुख्य आँगन से छह साथ फुट उपर
बने छज्जे के उपर ही बैठ गये. आँगन में कहर सिंह लहसुन को जो सुखाने के लिये रखा
गया था, इक्कठे कर बोरियों में डाल रहा
था. कहर सिंह पूरे तन्मयता से काम में लगा था. बीच-बीच में हमारे सवालों का भी
जबाब दे रहा था. फिर सब ने गरम गरम चाय का आनंद लिया. रात के खाने का प्रबन्ध भी
शुरू कर दिया. वहीं बैठे-बैठे हम ने प्याज़, टमाटर और चिकन को काट कर तेयार कर
दिया. शाम भी घिरने लगी. कहर सिंह ने आंगन की लाईट जला दी. दवा राम और शामू ने
किचन का भार सम्भाल लिया. हम ने बोतलें निकाली, गिलासें साफ की और दोस्ती के नाम
जाम टकराये. कहर सिंह को भी न्योता दिया, थोड़ी देर बाद खबर मिली कि आकाश
रपेडिंग वाले और बल्लू भाई गोहरमा
बाले भी जल्दी ही मंडली में शरीक होने वाले हें. जाम के साथ अब कढ़ाई चिकन भी आ
गया. साथ में तरबूज़, खीरे, मूंगी बगेरह हमारे पास खाने के लिये ढेर सारा ओप्शन था.
पीने के लिये भी इंग्लिश, देशी और बीयर उपलब्द थे. शामू ने बाँसुरी उठाई और दिल
में इक हूक सी उठी. लगबेली के इस आखिरी गांव में खुले आसमान के नीचे हम सब ने
महसूस किया कि हमारी आवाज़ इन पहाड़ों में हमेशा के लिये कैद हो गई हें. जब-जब भी
दोस्तों की कोई मंडली खोये हुए लम्हों को ढूँढने यहाँ आएँगी हमारे गीत और यह
बाँसुरी की धुनें ज़रूर सुनेगे. गिलासें खाली होती रही और बारी-बारी हम भरते रहे.
बीती बातें, बीते हुए किस्से कभी ठहाके कभी मुस्कराहटें, हम सभी के चेहरों पर इस
वक्त कोई भाव नहीं थे सिवाये एक आपार संतुष्टि के जो हम सब के मुस्कराहटों के पीछे
नज़र आ रही थी.
थोड़ी देर में आकाश और बल्लू भाई भी पहुँच गये. उन के आते ही
मंडली और मजबूत नज़र आने लगी. ऐसा लगा जेसे हमारा मिडल ओर्डर अब काफी मजबूत हो गया
हे. उन्हों ने देर से आने का सबब बताया मगर देर से आने की सजा भी दो-दो लार्ज पेग
ले कर चुकाना पड़ा. दवा ने अपने मोबाईल कलेक्शन से कुछ चुनिंदा गीत सुनाये. रात का
खाना हम ने अंदर जा कर खाने का निर्णय लिया. अंदर बरामदे में बैठ कर गिलासें फिर
भरी गयीं, शामू ने फिर धुन छेड़ा और अजय भाई की नुमाइंदगी में कहर सिंह के इस लम्बे
अंतहीन बरामदे में अपने पुरखों से विरासत में पाये उस बेशकीमती नृत्य को अंजाम
दिया जिसे देखने वाला आज हमारे इलावा और कोई नहीं था. कुछ देर में खाना परोसा गया,
लज़ीज़ खाना ऐसा कि उंगलियां चाटते रह जाएँ. रात काफी हो चुकी थी. आकाश और बल्लू भाई
वापिस कुल्लू जा रहे थे क्यों कि अगली सुवह शायद उन्हों ने वापिस अपने ड्यूटी पर
जाना था. खुदा हाफिज़ कह कर हम दोबारा बैठ गये. अब सिर्फ बात-चीत कर रहे थे. सोने
का दिल तो नहीं कर रहा था मगर उम्र को हम झुठला भी नहीं सकते हें. अब शरीर को इस
कि जरूरत पड़ने लगी थी. बिस्तर की कोई कमी नहीं थी. हम सभी सुनहरे ख्वाबों की
कल्पना लिये सो गये.
अगली सुवह 9 जून को देर से उठे लेकिन शामू और काकू ने
चाय और नाश्ता बना कर तेयार रखा था. नहा धो कर नाश्ता कर हम लोगों ने अपना सामान
समेटा और चलने तेयारी शुरू कर दी. प्रताप सुवह तड़के ही जा चुका था. हम ने कहर सिंह
के कमरों का भुगतान किया और उस से विदा ले कर वापिस चल पड़े. चलते –चलते हम अपने इस
एक दिन के प्रवास का आंकलन भी कर रहे थे, आने वाले सालों में ऐसा ही कुछ और उम्मीद
कर रहे थे. शामू और कक्कू पीछे- पीछे जिप्सी में आ रहे थे. हम ने उन को ढालपुर में
मोनाल केफे में मिलने को कहा. प्रताप बझीया के दुकान पर हमारा इंतज़ार कर रहा था.
थोड़ी देर बाद हम सभी मोनाल केफे में लेमन चाय पी रहे थे. दवा राम की तवियत कुछ ठीक
नहीं लग रही थी. चाय के बाद अब बिछुड़ने का वक्त आ गया. शुभकामनाओं के साथ हम लोग
विदा हो गये. मैं अजय भाई को ले कर उन के घर तक गया उन को छोड़ने. यहाँ मेरा अपना
एक स्वार्थ छिपा था उन को घर छोड़ने का. मुझे अजय भाई की प्रथम काव्य संकलन की
किताब “इन सपनों को कौन गायेगा” की
एक प्रति लेनी थी. बहुत दिनों से इंतज़ार में था सो आज यह मौका चूकना नहीं चाहता
था. अजय भाई के आग्रह करने पर भी मैं अंदर नहीं गया बस मैं तो किताब लेने चाहता था
और अगले ही पल अजय भाई ने अपनी हस्ताक्षर युक्त किताब मेरे हाथों में थमा दी. अब
इतना पक्का था कि मेरे कुछ दिन, कुछ महीने “इन सपनों” को देखने और गाने के प्रयास
में गुज़रने वाले हें. हमारे आउटिंग का इतना सुखद अंत मेने सोचा नहीं था. आखिर में
इस संस्मरण का अंत अजय भाई की उसी कविता से ही करना चाहूँगा जिस से उन्हों ने अपनी
किताब का आगाज़ किया हे.....!
ईश्वर
मेरे दोस्त
मेरे पास आ !
यहाँ बैठ
बीड़ी पिलाऊंगा
चाय पीते हें
इतने दिन हो गये
आज तुम्हारी गोद में सोऊंगा
तुम मुझे परियों की कहानी सुनाना
फिर न जाने कब फुर्सत होगी !
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