हमारी पीढ़ी के बहुसंख्य शिक्षित लोगों को नौकरी,व्यवसाय इत्यादि के लिए घर से बाहर निर्वासन का जीवन
जीना पड़ता है । लेकिन खुशी की बात है निर्वासन में रहते हुए भी एक नॉस्टेल्जिया उन
में बरक़रार है । घर का मोह कभी छूट नहीं पाता। अपने जन्म स्थल लाहुल के लिए उन का
जज़्बा इधर उधर प्रकट होता रहता है । लेकिन इस जज़्बे को अमली जामा पहनाने में
कुछ ही लोग सफल हो पाते हैं । ऐसे ही हमारे एक मित्र हैं सुरेन्द्र सिंह उर्फ यूसुफ
। यूसुफ यूको बैंक में अधिकारी हैं । आप ने चन्द्रताल असिक्नी आदि पत्रिकाओं
में इन की कविताएं पढ़ी हैं । इस के अतिरिक्त रेखांकन और चित्रकला के माध्यम
से भी ये खुद को अभिव्यक्त करते हैं । इधर पट्टनी भाषा में कुछ सुन्दर गीत भी
लिखें हैं । उन के मन में लाहुल की लोक गाथाओं को ले कर एक उपन्यास लिखने की योजना
भी है । इन दिनों वे हमारी बोलियों की लुप्तप्रायः शब्दावली को सहेजने में लगे हैं
। आईये हम ऐसे स्वप्नो को पूरा करने में अपना योगदान दें ,
ऐसे जज़्बों से प्रेरणा ग्रहण करें । एक शुरुआत कम से कम कर रक्खें ; कि हम न सही , भावी पीढ़ियाँ हमारी योजनाओं को पूरा कर सकें ।
गत दिनों मुझे इस उन की टिप्पणी के साथ पट्टनी बोली की तक़रीबन
एक हज़ार अभिव्यक्तियों की सूचि मिली । क्या ऐसी सूचियाँ हम सभी तैयार कर सकते हैं ?
क्यों नहीं? जज़्बा चाहिये । शब्द हमें याद हैं ।हमारे बुज़ुर्ग हमारे
आस पास हैं , उन के पास अभी शब्दों के अद्भुत खज़ाने हैं । बस दर्ज भर करना
है । यूसुफ की यह टिप्पणी मुझे बहुत प्रेरक लगी ।
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कुछ दिनों से मेरे मन में यह ख्याल बार -बार उठ रहा है की क्या
मैं कुछ ऐसा कर सकता हूँ जो हमारे आने वाली पीढ़ियों के किसी काम आ जाये, इसी उधेड़बुन में मेने सोचा की मैं अपने लाहुल की पट्टन बोली को कागज
में दर्ज करूं. इस के पीछे मंशा यह थी कि अगर मेरी यह कोशिश कामयाब होती हे तो एक
साथ कई काम सफल हो जाएँगे. जेसे हम आने वाले पीढ़ियों के लिये उस मौखिक भाषा को
शब्दों का रूप दे कर इस की उम्र को लम्बी कर सकतें हें. अपने मौजूदा सामाजिक ढांचे
को देख कर यह बात जेहन में उठती हे कि क्या हम इस बदलते परिवेश में हम अपने
संस्कृति को जिंदा रख पाएंगे ? और अगर रख पाएंगे तो कब तक ?
आने वाले कुछ सालों में भोगोलिक परिबर्तन भी तय हे, रोह्थांग में सुरंग निकलने से हम लोगों को,
हमारे समाज को कितना फायदा होगा यह तो समय ही बतायेगा, मगर इस के दूरगामी दुष्परिणाम भी ज़रूर होंगे. इन्ही दुष्परिणामों में
मुझे यह लगता हे कि सुरंग के निकलने से जब हमारे समाज में बाहर की दुनियां का आगमन
होगा तो सब से पहले जो हमारे बीच संवाद होगा वह हिंदी में ही होगा. हम अपनी भाषा
को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेलते जायेंगे, और उस की जगह लेगा बिहारी हिंदी,
नेपाली हिंदी. और फिर हम अपने घरों में भी यही भाषा बोलेंगे. कुछ असर
तो हम अभी से देख सकते हें. मुझे लगता हे की इन हालतों में हम अपने मौखिक भाषा को
शायद जिंदा रख न पायें. इस लिये शायद यह जरूरी हो जाता हे कि इस भाषा को शब्दों का
रूप दे कर किताबों में दर्ज कर दें ताकि हम अपनी पहचान को कायम रख सकें. दूसरा
मुझे अपनी भाषा या बोली को शब्दों के रूप में दर्ज करना इस लिये भी ज़रूरी लग रहा
हे, कि जेनेरेशन का पलायन, हमारे प्रगतिशील समाज में कुछ समय से चला आ रहा हे, हमारे समाज का पच्चास फीसदी आवादी बाहर रहती हे, और साथ रहते हे उन के बच्चे जो कभी लाहुल रहे ही नहीं या जन्म के कुछ
सालों बाद बाहर ले जाये गये. अब इन की परवरिश ऐसे समाज में हो रही हे जहाँ अपने
समाज का उस बच्चे के माँ बाप के सिवा और कोई नहीं हे,
यहाँ वह अंग्रेजी सीखता हे, हिंदी सीखता हे मगर अपनी बोली सिखाने वाला कोई नहीं हे.मुझे लगता हे
ऐसे में अगर अपनी बोली या भाषा लिखित रूप में हो तो अपने ज़मीन से दूर रह कर भी उन
बच्चों में अपने संस्कारों को जीवित रख सकते हें......युसुफ.
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