आस्थाआस्था का संगम स्थल - त्रिलोकनाथ मंदिर
• शेर सिंह
देवदार और चीड़ के छितरे जंगल के मध्य से मोड़ के बाद मोड़ वाली संकरी सड़क से अपने दिल को थामे जब श्री त्रिलोकनाथ मंदिर के पास पहुंचते हैं, तो अपने तन मन में एक अलौकिक भाव की अनुभूति होती है । ऐसा आभास होता है मानो आप वास्तव में एक ऐसे लोक में पहुंच गए हैं जो कल्पना और सपनों वाले स्वर्ग का अहसास कराता है । मन और मस्तिष्क दोनों अभिभूत होकर कुछ सोचने की बजाए केवल वाह वाह कर उठता है ! और, भगवान त्रिलोकनाथ के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण की ऐसी उत्कहट भावना जाग उठती कि व्य क्ति जैसे अपना सुध बुघ खोकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा हुआ अनुभव करता है । ऊपर आसमान की ओ देखे, तो लगता है आकाश पृथ्वी से मिलने को आतुर है क्योंकि आकाश बहुत पास में दिखता है । ऐसा लगता है, मानो पर्वत के शिखर अपने शीश को झुकाकर लोगों के आगमन पर हर्षित होकर आकाश को अपने शीश में उठाए स्वागत कर रहे हैं । पर्वत की ये धाराएं और उनके शिखर नैसर्गिक सौंदर्य और हरीतिमा से लहलहा रही होती हैं । जिस ओर भी दृष्टि उठाकर देखें, सब ओर जलधारा के साथ -साथ घाटी सी बन गई है । बेशक वे नाले ही हैं । लेकिन स्वच्छ , शीतल पानी पूरे वेग से बहता हुआ सबको अचंभित करने के साथ ही मानसिक शांति और सुकून का अहसास कराता है । ऊंचे शिखरों पर जुलाई माह में भी मटमैली हो गई बर्फ की परतों के अवशेष पड़े दिख जाते हैं । यहां की प्राकृतिक रूप छटा और अवर्णनीय सौंदर्य को देख हर कोई चमत्कृत सा खड़ा रह जाता है ।
संकरी, चमकीली चट्टानों से सटी सड़क और नीचे वेग से बहती चन्द्रूभागा नदी है ! चन्द्रभाग नदी आगे जाकर जम्मू् कश्मीर से होती हुई चिनाब नदी के नाम से पाकिस्ताान पहुंचती है । चन्द्र भागा नदी के किनारे किनारे गाड़ी में दिल कड़ा करके बैठे रहने के पश्चात जब तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव की भूमि त्रिलोकनाथ में प्रवेश करते हैं, तो रास्ते की सारी थकावट, धूल- मिट्टी से अटी सड़क के गड्ढों के धक्के भूल जाते हैं । यह पर्वतीय क्षेत्र लाहुल का ऐसा भाग है जहां हिंदूु बहुसंख्या में हैं और पूरा क्षेत्र शिवमय है । लेकिन भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध का भी उतना ही प्रभाव है और उतनी ही श्रद्धा तथा भक्ति भावना है । त्रिलोकनाथ गांव जिला मुख्यालय केलंग से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । त्रिलोकीनाथ का मंदिर शिखर शैली में निर्मित है । मंदिर की बनावट कला और वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना है । इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर को
चंबा के राजा ललितादित्य् ने नवीं- दसवीं शताब्दी के दौरान निर्माण कराया था । कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इस प्राचीन हिंदू मंदिर का निर्माण चंबा के राजा अलबर सेन की पत्नी रानी सुल्तान देवी ने नवीं- दसवीं शताब्दीं के दौरान किया था । निर्माण संबंधी तथ्यों में मतभिन्नता हो सकती है । लेकिन यह निर्विवाद है कि इसे चंबा के राजवंशों द्वारा निर्मित किया गया था । श्री त्रिलोकनाथ जी का मंदिर प्राचीन हिंदू मंदिरों में से एक है । ऐसा माना जाता है कि राजा का बोधिसत्वा आर्य अवलोकीतेश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति भावना होने के कारण उन्होंने तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की थी ।
त्रिलोकनाथ दो संस्कृतियों, संस्कारों, दो धर्मों, अनुयायिओं, मान्यताओं और मर्यादाओं का संगम स्थल है । गर्मीं के मौसम में हिंदु और बौध दोनों ही धर्मों के लोग हजारों की संख्या में दर्शनार्थ, मन्नत मांगने अथवा मन्नत पूरी होने पर आभार व्यहक्त करने, प्रियजनों के बिछुड़ जाने के उपरान्त तीर्थ स्थल का दर्शन करने के साथ साथ अपने उद्गारों, श्रद्धांजलि सुमन अर्पित, समर्पित करने आते हैं । त्रिलोकनाथ का मंदिर एक टीलेनुमा चट्टान पर बना हुआ है । चट्टान से नीचे हजारों फुट गहरी खाई है । दूर से ही मंदिर के शिखर से लहराता केसरिया ध्वज और सामने डोरियों से बंधे, टंगे बौध धर्म के पवित्र और आदर, मान का प्रतीक खत्तक, छपी हुई रंगीन पताकाएं, सफेद रेशमी दुपट्टा अथवा वस्त्र सभी दिशाओं में फैले हवा में झूलते, फरफराते नजर आते हैं ।
किंवदंती है कि त्रिलोकनाथ गांव में एक पुहाल (चरवाहा/गड़रिया ) रहता था । वह गांव वालों की भेडें चराता था । वह सुबह अपनी भेड़ों को चराने के लिए पर्वत शिखरों तक ले जाता था । भेड़ों के साथ साथ पर्वत शिखरों पर चढ़ते, चलते थक जाता, तो कुछ समय के लिए विश्राम करने के उद्देश्य से सो जाता था । इस दौरान स्वेर्गलोक की परियां आकर भेड़ों के दूध निकाल लेती थी । चरवाहे को कुछ पता नहीं चलता था । शाम को गांव के लोग जब पाते कि उनकी भेड़ों के दूध किसी ने निकाल लिया है, तो वे चरवाहे पर शक करते और उसे बुरा -भला कहते । गड़रिया बिना कसूर मन मसोसकर रह जाता ।
एक दिन उसने ठान लिया कि देखें भेड़ों को कौन दुह लेता है । इस रहस्य को जानने के लिए उसने नींद में होने का बहाना किया । उसने देखा, अनिंद्यय सौंदर्य वाली सात परियां भेड़ों के बीच आकर भेड़ों को दुहने लगी हैं । चरवाहे ने आज अपनी आंखों से उन्हें देख लिया था । उसने एक परी को पकड़ लिया और अपनी पीठ पर उठाकर गांव की ओर इस आशय से चल पड़ा कि गांव को दिखा सके कि भेड़ों का दुध चुराने वाली को उसने आज पकड़ लिया है । अपने साथी परी को चरवाहे की पकड़ से छुड़वाने के लिए अन्य छह परियां भी गड़रिया के पीछे चल पड़ी । जिस परी को गड़रिया ने पकड़ कर अपनी पीठ पर उठा रखा था, उसने अपना परिचय देते हुए गड़रिया को बताया कि वह परी है और शर्त के अनुसार पकड़ी गई परी को अपनी पीठ पर उठाए पुहाल आगे आगे चलता रहा और छह अन्य परियां पीछे । चलते चलते चरवाहे को जिज्ञासा होने लगी और उसे लगा कि वह मूर्ख तो नहीं बन गया है । इस विचार के आते ही वह शर्त को भूल गया । उसने पीछे मुड़कर देखा । एक परी उसकी पीठ में और छह परियां परियां पीछे आ रही थीं । लेकिन पीछे मुड़ककर देख्तेउ ही गड़रिया शैल हो गया ।
सात परियां सात धाराओं के रूप में आज भी त्रिलोकनाथ मंदिर के सामने से निकलती हैं, और चन्द्रभागा नदी में समा जाती है । मान्यता है कि इन सात धाराओं का पानी दूध की तरह धवल होता है, चाहे कितनी ही वर्षा हो, बर्फ पड़े अथवा बाढ़ आए । इन सात धाराओं का पानी कभी भी गंदला या मटमैला नहीं होता है । हमेशा दूध की तरह धवल ही रहता है ।
त्रिलोकनाथ मंदिर में भगवान शिव की अप्रतिम सौंदर्य वाली छह भुजाओं वाली सफेद संगमरमर की मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है । स्लेटी रंग की मूल प्रस्तर प्रतिमा दशकों पहले मंदिर से चोरी हो चुकी है । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के शीश पर तपस्या में लीन भगवान बुद्ध की लघु आकार में प्रतिमा विराजमान है । बुद्ध की प्रतिमा आकार में भगवान शिव की मूर्ति से बहुत छोटी लगती है । गर्भगृह में स्थापित मूर्तियां अमूल्य मणि माणिक्यों रत्नों और स्वर्ण आभुषणों से सजी हैं । पीत शुभ्र एवं केसरिया रंग के वस्त्रों से ढकी मूर्तियों से अवर्णनीय तेज सी निकलती हुई प्रतीत होता है जिससे श्रद्धालु अभिभूत होकर अपनी सुध बुध भुलाकर कुछ क्षणों के लिए उनके साथ एकाकार हो जाता है । लेकिन मंदिर का पुजारी बौध लामा है । ये लामा समय समय पर कुछ वर्षों के अंतराल में बदलते रहते हैं । मंदिर का प्रवेश द्वार अद्भुत और अनोखा है । मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के ऊंचे स्तंभ बने हुए हैं जो छत (सीलिंग) तक खड़े हैं । इन स्तंभों को धर्म और पाप का स्तंभ कहा जाता है । प्रवेश द्वार और इन स्तं भों के मध्यग बहुत संकरी जगह है । इन स्तं भों के बीच अत्यंकत संकरे स्था न से होकर जो व्यक्ति गर्भगृह में प्रवेश करता है अथवा बाहर निकलता है, ऐसी मान्य्ता है कि वह सच्चा, ईमानदार और धर्मात्मां है । लेकिन जो इन संकरे द्वारों में फंस जाता है, तो वह पाखण्डी और पापी है ।
मंदिर में अखण्ड ज्योत जलती रहती है चाहे कैसा भी समय अथवा ऋतु हो । गर्भगृह में प्रवेश से पहले मंदिर के प्रांगण में स्फटिक पत्थर (ग्रेनाइट) का बना शिवलिंग है । नंदी और शिव के गण हैं । प्रांगण और गर्भगृह के मध्यम भाग में मने यानी धर्मचक्र सजे हैं । इन धर्मचक्रों में भोटी भाषा में मंत्र उर्त्कीण किये गए हैं । अंदर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमाओं का दर्शन करने के पश्चात बाहर सजावट के साथ बनाए गए इन मने को दाएं हाथ से घुमाना पुण्य का कार्य माना जाता है । इन्हें फिराते हुए मन्नत मांगी जाती है अथवा वांछित इच्छा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है । बाहर आंगन में हवनकुंड में गड़ाए विशाल त्रिशूल पर आम हिंदु मंदिरों की भांति मन्नतों के रूप में बंधे धागे, रेशमी कपडों के टुकड़े और खतक लटके, बंधे सहज ही नजर आते हैं ।
इस मंदिर की विशेषता है कि यहां न अधिक आडंबर है, और ना ही अधिक बंदिशें अथवा हिदायतें हैं । आम धार्मिक स्थानों के विपरीत यहां न लालची पंडित हैं, ना लोभी पंडे पुजारी । न भिखारी हैं, न मांगने, ठगने वाले लोग हैं । सरल स्वभाव के सीधे-सादे, भोले और धर्मभीरू लोग । छल, कपट से दूर ।
गर्मियों के ऋतु में देश के सुदूर क्षेत्रों से साधु संत त्रिलोकीनाथ के दर्शन हेतु पहुंचते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को जुलाई माह के दौरान एक साधु मिले थे जिन्हों ने बताया था कि वह इस वर्ष यानी 2016 में उजैन में सम्पन्न हुए कुंभ में शामिल होकर त्रिलोकनाथ में भोले शंकर के दर्शन के लिए आए हैं । वास्तव में यह पहाड़ी प्रदेश विशेषकर लाहुल स्पीति के लोगों की अपने अराध्यल के प्रति श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और आस्था का संगम स्थल है । इससे भी बढ़कर आस्था का स्वर्गिक एवं पावन स्थान है, जहां उनके विश्वास और आस्था के अनुसार उनके ईष्ट देवों का वास है । लोगों का इन पर इतनी अटूट आस्था है कि कोई भी धार्मिक कार्य, शुभ अनुष्ठान अथवा दुख और शोक के समय भी उस आयोजन, प्रयोजन का मुंह सदैव त्रिलोकनाथ दिशा की ओर करके ही सम्पान्न किया जाता है ।
यहां भी बारह वर्षों के बाद कुंभ का मेला लगता है । पिछला कुंभ 2015 में सम्पन्न हुआ है । प्रति वर्ष अगस्त माह के दौरान पोरी का मेला लगता है । पोरी में लोग दूर दूर से और पूरे जिले के साथ साथ किन्नौर, लेह- लद्दाख से भी श्रद्धालु भक्ति और श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत होकर आते हैं । पारंपरिक
वेशभूषा में विशेषकर महिलाओं को चोडू (कतर/कदर) में सजे -संवरे को देखते ही बनता है । यह मेला आपसी मेलजोल, लोक संस्कृूति को बचाए रखने तथा धार्मिक परंपरा के संरक्षण का भी पर्व है ।
पिछले कुछ वर्षों से अब इस मंदिर का रख- रखाव, पूजा आदि की जिम्मेंदारी यानी प्रशासन का भार हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है ।
• शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश – 175126
E Mail: shersingh52@gmail.com
Mob: 8447037777
8/8/2016 का संगम स्थल - त्रिलोकनाथ मंदिर
• शेर सिंह
देवदार और चीड़ के छितरे जंगल के मध्य से मोड़ के बाद मोड़ वाली संकरी सड़क से अपने दिल को थामे जब श्री त्रिलोकनाथ मंदिर के पास पहुंचते हैं, तो अपने तन मन में एक अलौकिक भाव की अनुभूति होती है । ऐसा आभास होता है मानो आप वास्तव में एक ऐसे लोक में पहुंच गए हैं जो कल्पना और सपनों वाले स्वर्ग का अहसास कराता है । मन और मस्तिष्क दोनों अभिभूत होकर कुछ सोचने की बजाए केवल वाह वाह कर उठता है ! और, भगवान त्रिलोकनाथ के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण की ऐसी उत्कहट भावना जाग उठती कि व्य क्ति जैसे अपना सुध बुघ खोकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा हुआ अनुभव करता है । ऊपर आसमान की ओ देखे, तो लगता है आकाश पृथ्वी से मिलने को आतुर है क्योंकि आकाश बहुत पास में दिखता है । ऐसा लगता है, मानो पर्वत के शिखर अपने शीश को झुकाकर लोगों के आगमन पर हर्षित होकर आकाश को अपने शीश में उठाए स्वागत कर रहे हैं । पर्वत की ये धाराएं और उनके शिखर नैसर्गिक सौंदर्य और हरीतिमा से लहलहा रही होती हैं । जिस ओर भी दृष्टि उठाकर देखें, सब ओर जलधारा के साथ -साथ घाटी सी बन गई है । बेशक वे नाले ही हैं । लेकिन स्वच्छ , शीतल पानी पूरे वेग से बहता हुआ सबको अचंभित करने के साथ ही मानसिक शांति और सुकून का अहसास कराता है । ऊंचे शिखरों पर जुलाई माह में भी मटमैली हो गई बर्फ की परतों के अवशेष पड़े दिख जाते हैं । यहां की प्राकृतिक रूप छटा और अवर्णनीय सौंदर्य को देख हर कोई चमत्कृत सा खड़ा रह जाता है ।
संकरी, चमकीली चट्टानों से सटी सड़क और नीचे वेग से बहती चन्द्रूभागा नदी है ! चन्द्रभाग नदी आगे जाकर जम्मू् कश्मीर से होती हुई चिनाब नदी के नाम से पाकिस्ताान पहुंचती है । चन्द्र भागा नदी के किनारे किनारे गाड़ी में दिल कड़ा करके बैठे रहने के पश्चात जब तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव की भूमि त्रिलोकनाथ में प्रवेश करते हैं, तो रास्ते की सारी थकावट, धूल- मिट्टी से अटी सड़क के गड्ढों के धक्के भूल जाते हैं । यह पर्वतीय क्षेत्र लाहुल का ऐसा भाग है जहां हिंदूु बहुसंख्या में हैं और पूरा क्षेत्र शिवमय है । लेकिन भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध का भी उतना ही प्रभाव है और उतनी ही श्रद्धा तथा भक्ति भावना है । त्रिलोकनाथ गांव जिला मुख्यालय केलंग से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । त्रिलोकीनाथ का मंदिर शिखर शैली में निर्मित है । मंदिर की बनावट कला और वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना है । इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर को
चंबा के राजा ललितादित्य् ने नवीं- दसवीं शताब्दी के दौरान निर्माण कराया था । कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इस प्राचीन हिंदू मंदिर का निर्माण चंबा के राजा अलबर सेन की पत्नी रानी सुल्तान देवी ने नवीं- दसवीं शताब्दीं के दौरान किया था । निर्माण संबंधी तथ्यों में मतभिन्नता हो सकती है । लेकिन यह निर्विवाद है कि इसे चंबा के राजवंशों द्वारा निर्मित किया गया था । श्री त्रिलोकनाथ जी का मंदिर प्राचीन हिंदू मंदिरों में से एक है । ऐसा माना जाता है कि राजा का बोधिसत्वा आर्य अवलोकीतेश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति भावना होने के कारण उन्होंने तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की थी ।
त्रिलोकनाथ दो संस्कृतियों, संस्कारों, दो धर्मों, अनुयायिओं, मान्यताओं और मर्यादाओं का संगम स्थल है । गर्मीं के मौसम में हिंदु और बौध दोनों ही धर्मों के लोग हजारों की संख्या में दर्शनार्थ, मन्नत मांगने अथवा मन्नत पूरी होने पर आभार व्यहक्त करने, प्रियजनों के बिछुड़ जाने के उपरान्त तीर्थ स्थल का दर्शन करने के साथ साथ अपने उद्गारों, श्रद्धांजलि सुमन अर्पित, समर्पित करने आते हैं । त्रिलोकनाथ का मंदिर एक टीलेनुमा चट्टान पर बना हुआ है । चट्टान से नीचे हजारों फुट गहरी खाई है । दूर से ही मंदिर के शिखर से लहराता केसरिया ध्वज और सामने डोरियों से बंधे, टंगे बौध धर्म के पवित्र और आदर, मान का प्रतीक खत्तक, छपी हुई रंगीन पताकाएं, सफेद रेशमी दुपट्टा अथवा वस्त्र सभी दिशाओं में फैले हवा में झूलते, फरफराते नजर आते हैं ।
किंवदंती है कि त्रिलोकनाथ गांव में एक पुहाल (चरवाहा/गड़रिया ) रहता था । वह गांव वालों की भेडें चराता था । वह सुबह अपनी भेड़ों को चराने के लिए पर्वत शिखरों तक ले जाता था । भेड़ों के साथ साथ पर्वत शिखरों पर चढ़ते, चलते थक जाता, तो कुछ समय के लिए विश्राम करने के उद्देश्य से सो जाता था । इस दौरान स्वेर्गलोक की परियां आकर भेड़ों के दूध निकाल लेती थी । चरवाहे को कुछ पता नहीं चलता था । शाम को गांव के लोग जब पाते कि उनकी भेड़ों के दूध किसी ने निकाल लिया है, तो वे चरवाहे पर शक करते और उसे बुरा -भला कहते । गड़रिया बिना कसूर मन मसोसकर रह जाता ।
एक दिन उसने ठान लिया कि देखें भेड़ों को कौन दुह लेता है । इस रहस्य को जानने के लिए उसने नींद में होने का बहाना किया । उसने देखा, अनिंद्यय सौंदर्य वाली सात परियां भेड़ों के बीच आकर भेड़ों को दुहने लगी हैं । चरवाहे ने आज अपनी आंखों से उन्हें देख लिया था । उसने एक परी को पकड़ लिया और अपनी पीठ पर उठाकर गांव की ओर इस आशय से चल पड़ा कि गांव को दिखा सके कि भेड़ों का दुध चुराने वाली को उसने आज पकड़ लिया है । अपने साथी परी को चरवाहे की पकड़ से छुड़वाने के लिए अन्य छह परियां भी गड़रिया के पीछे चल पड़ी । जिस परी को गड़रिया ने पकड़ कर अपनी पीठ पर उठा रखा था, उसने अपना परिचय देते हुए गड़रिया को बताया कि वह परी है और शर्त के अनुसार पकड़ी गई परी को अपनी पीठ पर उठाए पुहाल आगे आगे चलता रहा और छह अन्य परियां पीछे । चलते चलते चरवाहे को जिज्ञासा होने लगी और उसे लगा कि वह मूर्ख तो नहीं बन गया है । इस विचार के आते ही वह शर्त को भूल गया । उसने पीछे मुड़कर देखा । एक परी उसकी पीठ में और छह परियां परियां पीछे आ रही थीं । लेकिन पीछे मुड़ककर देख्तेउ ही गड़रिया शैल हो गया ।
सात परियां सात धाराओं के रूप में आज भी त्रिलोकनाथ मंदिर के सामने से निकलती हैं, और चन्द्रभागा नदी में समा जाती है । मान्यता है कि इन सात धाराओं का पानी दूध की तरह धवल होता है, चाहे कितनी ही वर्षा हो, बर्फ पड़े अथवा बाढ़ आए । इन सात धाराओं का पानी कभी भी गंदला या मटमैला नहीं होता है । हमेशा दूध की तरह धवल ही रहता है ।
त्रिलोकनाथ मंदिर में भगवान शिव की अप्रतिम सौंदर्य वाली छह भुजाओं वाली सफेद संगमरमर की मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है । स्लेटी रंग की मूल प्रस्तर प्रतिमा दशकों पहले मंदिर से चोरी हो चुकी है । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के शीश पर तपस्या में लीन भगवान बुद्ध की लघु आकार में प्रतिमा विराजमान है । बुद्ध की प्रतिमा आकार में भगवान शिव की मूर्ति से बहुत छोटी लगती है । गर्भगृह में स्थापित मूर्तियां अमूल्य मणि माणिक्यों रत्नों और स्वर्ण आभुषणों से सजी हैं । पीत शुभ्र एवं केसरिया रंग के वस्त्रों से ढकी मूर्तियों से अवर्णनीय तेज सी निकलती हुई प्रतीत होता है जिससे श्रद्धालु अभिभूत होकर अपनी सुध बुध भुलाकर कुछ क्षणों के लिए उनके साथ एकाकार हो जाता है । लेकिन मंदिर का पुजारी बौध लामा है । ये लामा समय समय पर कुछ वर्षों के अंतराल में बदलते रहते हैं । मंदिर का प्रवेश द्वार अद्भुत और अनोखा है । मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के ऊंचे स्तंभ बने हुए हैं जो छत (सीलिंग) तक खड़े हैं । इन स्तंभों को धर्म और पाप का स्तंभ कहा जाता है । प्रवेश द्वार और इन स्तं भों के मध्यग बहुत संकरी जगह है । इन स्तं भों के बीच अत्यंकत संकरे स्था न से होकर जो व्यक्ति गर्भगृह में प्रवेश करता है अथवा बाहर निकलता है, ऐसी मान्य्ता है कि वह सच्चा, ईमानदार और धर्मात्मां है । लेकिन जो इन संकरे द्वारों में फंस जाता है, तो वह पाखण्डी और पापी है ।
मंदिर में अखण्ड ज्योत जलती रहती है चाहे कैसा भी समय अथवा ऋतु हो । गर्भगृह में प्रवेश से पहले मंदिर के प्रांगण में स्फटिक पत्थर (ग्रेनाइट) का बना शिवलिंग है । नंदी और शिव के गण हैं । प्रांगण और गर्भगृह के मध्यम भाग में मने यानी धर्मचक्र सजे हैं । इन धर्मचक्रों में भोटी भाषा में मंत्र उर्त्कीण किये गए हैं । अंदर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमाओं का दर्शन करने के पश्चात बाहर सजावट के साथ बनाए गए इन मने को दाएं हाथ से घुमाना पुण्य का कार्य माना जाता है । इन्हें फिराते हुए मन्नत मांगी जाती है अथवा वांछित इच्छा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है । बाहर आंगन में हवनकुंड में गड़ाए विशाल त्रिशूल पर आम हिंदु मंदिरों की भांति मन्नतों के रूप में बंधे धागे, रेशमी कपडों के टुकड़े और खतक लटके, बंधे सहज ही नजर आते हैं ।
इस मंदिर की विशेषता है कि यहां न अधिक आडंबर है, और ना ही अधिक बंदिशें अथवा हिदायतें हैं । आम धार्मिक स्थानों के विपरीत यहां न लालची पंडित हैं, ना लोभी पंडे पुजारी । न भिखारी हैं, न मांगने, ठगने वाले लोग हैं । सरल स्वभाव के सीधे-सादे, भोले और धर्मभीरू लोग । छल, कपट से दूर ।
गर्मियों के ऋतु में देश के सुदूर क्षेत्रों से साधु संत त्रिलोकीनाथ के दर्शन हेतु पहुंचते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को जुलाई माह के दौरान एक साधु मिले थे जिन्हों ने बताया था कि वह इस वर्ष यानी 2016 में उजैन में सम्पन्न हुए कुंभ में शामिल होकर त्रिलोकनाथ में भोले शंकर के दर्शन के लिए आए हैं । वास्तव में यह पहाड़ी प्रदेश विशेषकर लाहुल स्पीति के लोगों की अपने अराध्यल के प्रति श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और आस्था का संगम स्थल है । इससे भी बढ़कर आस्था का स्वर्गिक एवं पावन स्थान है, जहां उनके विश्वास और आस्था के अनुसार उनके ईष्ट देवों का वास है । लोगों का इन पर इतनी अटूट आस्था है कि कोई भी धार्मिक कार्य, शुभ अनुष्ठान अथवा दुख और शोक के समय भी उस आयोजन, प्रयोजन का मुंह सदैव त्रिलोकनाथ दिशा की ओर करके ही सम्पान्न किया जाता है ।
यहां भी बारह वर्षों के बाद कुंभ का मेला लगता है । पिछला कुंभ 2015 में सम्पन्न हुआ है । प्रति वर्ष अगस्त माह के दौरान पोरी का मेला लगता है । पोरी में लोग दूर दूर से और पूरे जिले के साथ साथ किन्नौर, लेह- लद्दाख से भी श्रद्धालु भक्ति और श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत होकर आते हैं । पारंपरिक
वेशभूषा में विशेषकर महिलाओं को चोडू (कतर/कदर) में सजे -संवरे को देखते ही बनता है । यह मेला आपसी मेलजोल, लोक संस्कृूति को बचाए रखने तथा धार्मिक परंपरा के संरक्षण का भी पर्व है ।
पिछले कुछ वर्षों से अब इस मंदिर का रख- रखाव, पूजा आदि की जिम्मेंदारी यानी प्रशासन का भार हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है ।
• शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश – 175126
E Mail: shersingh52@gmail.com
Mob: 8447037777
8/8/2016
• शेर सिंह
देवदार और चीड़ के छितरे जंगल के मध्य से मोड़ के बाद मोड़ वाली संकरी सड़क से अपने दिल को थामे जब श्री त्रिलोकनाथ मंदिर के पास पहुंचते हैं, तो अपने तन मन में एक अलौकिक भाव की अनुभूति होती है । ऐसा आभास होता है मानो आप वास्तव में एक ऐसे लोक में पहुंच गए हैं जो कल्पना और सपनों वाले स्वर्ग का अहसास कराता है । मन और मस्तिष्क दोनों अभिभूत होकर कुछ सोचने की बजाए केवल वाह वाह कर उठता है ! और, भगवान त्रिलोकनाथ के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण की ऐसी उत्कहट भावना जाग उठती कि व्य क्ति जैसे अपना सुध बुघ खोकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा हुआ अनुभव करता है । ऊपर आसमान की ओ देखे, तो लगता है आकाश पृथ्वी से मिलने को आतुर है क्योंकि आकाश बहुत पास में दिखता है । ऐसा लगता है, मानो पर्वत के शिखर अपने शीश को झुकाकर लोगों के आगमन पर हर्षित होकर आकाश को अपने शीश में उठाए स्वागत कर रहे हैं । पर्वत की ये धाराएं और उनके शिखर नैसर्गिक सौंदर्य और हरीतिमा से लहलहा रही होती हैं । जिस ओर भी दृष्टि उठाकर देखें, सब ओर जलधारा के साथ -साथ घाटी सी बन गई है । बेशक वे नाले ही हैं । लेकिन स्वच्छ , शीतल पानी पूरे वेग से बहता हुआ सबको अचंभित करने के साथ ही मानसिक शांति और सुकून का अहसास कराता है । ऊंचे शिखरों पर जुलाई माह में भी मटमैली हो गई बर्फ की परतों के अवशेष पड़े दिख जाते हैं । यहां की प्राकृतिक रूप छटा और अवर्णनीय सौंदर्य को देख हर कोई चमत्कृत सा खड़ा रह जाता है ।
संकरी, चमकीली चट्टानों से सटी सड़क और नीचे वेग से बहती चन्द्रूभागा नदी है ! चन्द्रभाग नदी आगे जाकर जम्मू् कश्मीर से होती हुई चिनाब नदी के नाम से पाकिस्ताान पहुंचती है । चन्द्र भागा नदी के किनारे किनारे गाड़ी में दिल कड़ा करके बैठे रहने के पश्चात जब तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव की भूमि त्रिलोकनाथ में प्रवेश करते हैं, तो रास्ते की सारी थकावट, धूल- मिट्टी से अटी सड़क के गड्ढों के धक्के भूल जाते हैं । यह पर्वतीय क्षेत्र लाहुल का ऐसा भाग है जहां हिंदूु बहुसंख्या में हैं और पूरा क्षेत्र शिवमय है । लेकिन भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध का भी उतना ही प्रभाव है और उतनी ही श्रद्धा तथा भक्ति भावना है । त्रिलोकनाथ गांव जिला मुख्यालय केलंग से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । त्रिलोकीनाथ का मंदिर शिखर शैली में निर्मित है । मंदिर की बनावट कला और वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना है । इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर को
चंबा के राजा ललितादित्य् ने नवीं- दसवीं शताब्दी के दौरान निर्माण कराया था । कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इस प्राचीन हिंदू मंदिर का निर्माण चंबा के राजा अलबर सेन की पत्नी रानी सुल्तान देवी ने नवीं- दसवीं शताब्दीं के दौरान किया था । निर्माण संबंधी तथ्यों में मतभिन्नता हो सकती है । लेकिन यह निर्विवाद है कि इसे चंबा के राजवंशों द्वारा निर्मित किया गया था । श्री त्रिलोकनाथ जी का मंदिर प्राचीन हिंदू मंदिरों में से एक है । ऐसा माना जाता है कि राजा का बोधिसत्वा आर्य अवलोकीतेश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति भावना होने के कारण उन्होंने तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की थी ।
त्रिलोकनाथ दो संस्कृतियों, संस्कारों, दो धर्मों, अनुयायिओं, मान्यताओं और मर्यादाओं का संगम स्थल है । गर्मीं के मौसम में हिंदु और बौध दोनों ही धर्मों के लोग हजारों की संख्या में दर्शनार्थ, मन्नत मांगने अथवा मन्नत पूरी होने पर आभार व्यहक्त करने, प्रियजनों के बिछुड़ जाने के उपरान्त तीर्थ स्थल का दर्शन करने के साथ साथ अपने उद्गारों, श्रद्धांजलि सुमन अर्पित, समर्पित करने आते हैं । त्रिलोकनाथ का मंदिर एक टीलेनुमा चट्टान पर बना हुआ है । चट्टान से नीचे हजारों फुट गहरी खाई है । दूर से ही मंदिर के शिखर से लहराता केसरिया ध्वज और सामने डोरियों से बंधे, टंगे बौध धर्म के पवित्र और आदर, मान का प्रतीक खत्तक, छपी हुई रंगीन पताकाएं, सफेद रेशमी दुपट्टा अथवा वस्त्र सभी दिशाओं में फैले हवा में झूलते, फरफराते नजर आते हैं ।
किंवदंती है कि त्रिलोकनाथ गांव में एक पुहाल (चरवाहा/गड़रिया ) रहता था । वह गांव वालों की भेडें चराता था । वह सुबह अपनी भेड़ों को चराने के लिए पर्वत शिखरों तक ले जाता था । भेड़ों के साथ साथ पर्वत शिखरों पर चढ़ते, चलते थक जाता, तो कुछ समय के लिए विश्राम करने के उद्देश्य से सो जाता था । इस दौरान स्वेर्गलोक की परियां आकर भेड़ों के दूध निकाल लेती थी । चरवाहे को कुछ पता नहीं चलता था । शाम को गांव के लोग जब पाते कि उनकी भेड़ों के दूध किसी ने निकाल लिया है, तो वे चरवाहे पर शक करते और उसे बुरा -भला कहते । गड़रिया बिना कसूर मन मसोसकर रह जाता ।
एक दिन उसने ठान लिया कि देखें भेड़ों को कौन दुह लेता है । इस रहस्य को जानने के लिए उसने नींद में होने का बहाना किया । उसने देखा, अनिंद्यय सौंदर्य वाली सात परियां भेड़ों के बीच आकर भेड़ों को दुहने लगी हैं । चरवाहे ने आज अपनी आंखों से उन्हें देख लिया था । उसने एक परी को पकड़ लिया और अपनी पीठ पर उठाकर गांव की ओर इस आशय से चल पड़ा कि गांव को दिखा सके कि भेड़ों का दुध चुराने वाली को उसने आज पकड़ लिया है । अपने साथी परी को चरवाहे की पकड़ से छुड़वाने के लिए अन्य छह परियां भी गड़रिया के पीछे चल पड़ी । जिस परी को गड़रिया ने पकड़ कर अपनी पीठ पर उठा रखा था, उसने अपना परिचय देते हुए गड़रिया को बताया कि वह परी है और शर्त के अनुसार पकड़ी गई परी को अपनी पीठ पर उठाए पुहाल आगे आगे चलता रहा और छह अन्य परियां पीछे । चलते चलते चरवाहे को जिज्ञासा होने लगी और उसे लगा कि वह मूर्ख तो नहीं बन गया है । इस विचार के आते ही वह शर्त को भूल गया । उसने पीछे मुड़कर देखा । एक परी उसकी पीठ में और छह परियां परियां पीछे आ रही थीं । लेकिन पीछे मुड़ककर देख्तेउ ही गड़रिया शैल हो गया ।
सात परियां सात धाराओं के रूप में आज भी त्रिलोकनाथ मंदिर के सामने से निकलती हैं, और चन्द्रभागा नदी में समा जाती है । मान्यता है कि इन सात धाराओं का पानी दूध की तरह धवल होता है, चाहे कितनी ही वर्षा हो, बर्फ पड़े अथवा बाढ़ आए । इन सात धाराओं का पानी कभी भी गंदला या मटमैला नहीं होता है । हमेशा दूध की तरह धवल ही रहता है ।
त्रिलोकनाथ मंदिर में भगवान शिव की अप्रतिम सौंदर्य वाली छह भुजाओं वाली सफेद संगमरमर की मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है । स्लेटी रंग की मूल प्रस्तर प्रतिमा दशकों पहले मंदिर से चोरी हो चुकी है । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के शीश पर तपस्या में लीन भगवान बुद्ध की लघु आकार में प्रतिमा विराजमान है । बुद्ध की प्रतिमा आकार में भगवान शिव की मूर्ति से बहुत छोटी लगती है । गर्भगृह में स्थापित मूर्तियां अमूल्य मणि माणिक्यों रत्नों और स्वर्ण आभुषणों से सजी हैं । पीत शुभ्र एवं केसरिया रंग के वस्त्रों से ढकी मूर्तियों से अवर्णनीय तेज सी निकलती हुई प्रतीत होता है जिससे श्रद्धालु अभिभूत होकर अपनी सुध बुध भुलाकर कुछ क्षणों के लिए उनके साथ एकाकार हो जाता है । लेकिन मंदिर का पुजारी बौध लामा है । ये लामा समय समय पर कुछ वर्षों के अंतराल में बदलते रहते हैं । मंदिर का प्रवेश द्वार अद्भुत और अनोखा है । मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के ऊंचे स्तंभ बने हुए हैं जो छत (सीलिंग) तक खड़े हैं । इन स्तंभों को धर्म और पाप का स्तंभ कहा जाता है । प्रवेश द्वार और इन स्तं भों के मध्यग बहुत संकरी जगह है । इन स्तं भों के बीच अत्यंकत संकरे स्था न से होकर जो व्यक्ति गर्भगृह में प्रवेश करता है अथवा बाहर निकलता है, ऐसी मान्य्ता है कि वह सच्चा, ईमानदार और धर्मात्मां है । लेकिन जो इन संकरे द्वारों में फंस जाता है, तो वह पाखण्डी और पापी है ।
मंदिर में अखण्ड ज्योत जलती रहती है चाहे कैसा भी समय अथवा ऋतु हो । गर्भगृह में प्रवेश से पहले मंदिर के प्रांगण में स्फटिक पत्थर (ग्रेनाइट) का बना शिवलिंग है । नंदी और शिव के गण हैं । प्रांगण और गर्भगृह के मध्यम भाग में मने यानी धर्मचक्र सजे हैं । इन धर्मचक्रों में भोटी भाषा में मंत्र उर्त्कीण किये गए हैं । अंदर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमाओं का दर्शन करने के पश्चात बाहर सजावट के साथ बनाए गए इन मने को दाएं हाथ से घुमाना पुण्य का कार्य माना जाता है । इन्हें फिराते हुए मन्नत मांगी जाती है अथवा वांछित इच्छा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है । बाहर आंगन में हवनकुंड में गड़ाए विशाल त्रिशूल पर आम हिंदु मंदिरों की भांति मन्नतों के रूप में बंधे धागे, रेशमी कपडों के टुकड़े और खतक लटके, बंधे सहज ही नजर आते हैं ।
इस मंदिर की विशेषता है कि यहां न अधिक आडंबर है, और ना ही अधिक बंदिशें अथवा हिदायतें हैं । आम धार्मिक स्थानों के विपरीत यहां न लालची पंडित हैं, ना लोभी पंडे पुजारी । न भिखारी हैं, न मांगने, ठगने वाले लोग हैं । सरल स्वभाव के सीधे-सादे, भोले और धर्मभीरू लोग । छल, कपट से दूर ।
गर्मियों के ऋतु में देश के सुदूर क्षेत्रों से साधु संत त्रिलोकीनाथ के दर्शन हेतु पहुंचते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को जुलाई माह के दौरान एक साधु मिले थे जिन्हों ने बताया था कि वह इस वर्ष यानी 2016 में उजैन में सम्पन्न हुए कुंभ में शामिल होकर त्रिलोकनाथ में भोले शंकर के दर्शन के लिए आए हैं । वास्तव में यह पहाड़ी प्रदेश विशेषकर लाहुल स्पीति के लोगों की अपने अराध्यल के प्रति श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और आस्था का संगम स्थल है । इससे भी बढ़कर आस्था का स्वर्गिक एवं पावन स्थान है, जहां उनके विश्वास और आस्था के अनुसार उनके ईष्ट देवों का वास है । लोगों का इन पर इतनी अटूट आस्था है कि कोई भी धार्मिक कार्य, शुभ अनुष्ठान अथवा दुख और शोक के समय भी उस आयोजन, प्रयोजन का मुंह सदैव त्रिलोकनाथ दिशा की ओर करके ही सम्पान्न किया जाता है ।
यहां भी बारह वर्षों के बाद कुंभ का मेला लगता है । पिछला कुंभ 2015 में सम्पन्न हुआ है । प्रति वर्ष अगस्त माह के दौरान पोरी का मेला लगता है । पोरी में लोग दूर दूर से और पूरे जिले के साथ साथ किन्नौर, लेह- लद्दाख से भी श्रद्धालु भक्ति और श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत होकर आते हैं । पारंपरिक
वेशभूषा में विशेषकर महिलाओं को चोडू (कतर/कदर) में सजे -संवरे को देखते ही बनता है । यह मेला आपसी मेलजोल, लोक संस्कृूति को बचाए रखने तथा धार्मिक परंपरा के संरक्षण का भी पर्व है ।
पिछले कुछ वर्षों से अब इस मंदिर का रख- रखाव, पूजा आदि की जिम्मेंदारी यानी प्रशासन का भार हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है ।
• शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश – 175126
E Mail: shersingh52@gmail.com
Mob: 8447037777
8/8/2016 का संगम स्थल - त्रिलोकनाथ मंदिर
• शेर सिंह
देवदार और चीड़ के छितरे जंगल के मध्य से मोड़ के बाद मोड़ वाली संकरी सड़क से अपने दिल को थामे जब श्री त्रिलोकनाथ मंदिर के पास पहुंचते हैं, तो अपने तन मन में एक अलौकिक भाव की अनुभूति होती है । ऐसा आभास होता है मानो आप वास्तव में एक ऐसे लोक में पहुंच गए हैं जो कल्पना और सपनों वाले स्वर्ग का अहसास कराता है । मन और मस्तिष्क दोनों अभिभूत होकर कुछ सोचने की बजाए केवल वाह वाह कर उठता है ! और, भगवान त्रिलोकनाथ के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण की ऐसी उत्कहट भावना जाग उठती कि व्य क्ति जैसे अपना सुध बुघ खोकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा हुआ अनुभव करता है । ऊपर आसमान की ओ देखे, तो लगता है आकाश पृथ्वी से मिलने को आतुर है क्योंकि आकाश बहुत पास में दिखता है । ऐसा लगता है, मानो पर्वत के शिखर अपने शीश को झुकाकर लोगों के आगमन पर हर्षित होकर आकाश को अपने शीश में उठाए स्वागत कर रहे हैं । पर्वत की ये धाराएं और उनके शिखर नैसर्गिक सौंदर्य और हरीतिमा से लहलहा रही होती हैं । जिस ओर भी दृष्टि उठाकर देखें, सब ओर जलधारा के साथ -साथ घाटी सी बन गई है । बेशक वे नाले ही हैं । लेकिन स्वच्छ , शीतल पानी पूरे वेग से बहता हुआ सबको अचंभित करने के साथ ही मानसिक शांति और सुकून का अहसास कराता है । ऊंचे शिखरों पर जुलाई माह में भी मटमैली हो गई बर्फ की परतों के अवशेष पड़े दिख जाते हैं । यहां की प्राकृतिक रूप छटा और अवर्णनीय सौंदर्य को देख हर कोई चमत्कृत सा खड़ा रह जाता है ।
संकरी, चमकीली चट्टानों से सटी सड़क और नीचे वेग से बहती चन्द्रूभागा नदी है ! चन्द्रभाग नदी आगे जाकर जम्मू् कश्मीर से होती हुई चिनाब नदी के नाम से पाकिस्ताान पहुंचती है । चन्द्र भागा नदी के किनारे किनारे गाड़ी में दिल कड़ा करके बैठे रहने के पश्चात जब तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव की भूमि त्रिलोकनाथ में प्रवेश करते हैं, तो रास्ते की सारी थकावट, धूल- मिट्टी से अटी सड़क के गड्ढों के धक्के भूल जाते हैं । यह पर्वतीय क्षेत्र लाहुल का ऐसा भाग है जहां हिंदूु बहुसंख्या में हैं और पूरा क्षेत्र शिवमय है । लेकिन भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध का भी उतना ही प्रभाव है और उतनी ही श्रद्धा तथा भक्ति भावना है । त्रिलोकनाथ गांव जिला मुख्यालय केलंग से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । त्रिलोकीनाथ का मंदिर शिखर शैली में निर्मित है । मंदिर की बनावट कला और वास्तु शिल्प का बेजोड़ नमूना है । इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर को
चंबा के राजा ललितादित्य् ने नवीं- दसवीं शताब्दी के दौरान निर्माण कराया था । कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इस प्राचीन हिंदू मंदिर का निर्माण चंबा के राजा अलबर सेन की पत्नी रानी सुल्तान देवी ने नवीं- दसवीं शताब्दीं के दौरान किया था । निर्माण संबंधी तथ्यों में मतभिन्नता हो सकती है । लेकिन यह निर्विवाद है कि इसे चंबा के राजवंशों द्वारा निर्मित किया गया था । श्री त्रिलोकनाथ जी का मंदिर प्राचीन हिंदू मंदिरों में से एक है । ऐसा माना जाता है कि राजा का बोधिसत्वा आर्य अवलोकीतेश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति भावना होने के कारण उन्होंने तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव के साथ भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की थी ।
त्रिलोकनाथ दो संस्कृतियों, संस्कारों, दो धर्मों, अनुयायिओं, मान्यताओं और मर्यादाओं का संगम स्थल है । गर्मीं के मौसम में हिंदु और बौध दोनों ही धर्मों के लोग हजारों की संख्या में दर्शनार्थ, मन्नत मांगने अथवा मन्नत पूरी होने पर आभार व्यहक्त करने, प्रियजनों के बिछुड़ जाने के उपरान्त तीर्थ स्थल का दर्शन करने के साथ साथ अपने उद्गारों, श्रद्धांजलि सुमन अर्पित, समर्पित करने आते हैं । त्रिलोकनाथ का मंदिर एक टीलेनुमा चट्टान पर बना हुआ है । चट्टान से नीचे हजारों फुट गहरी खाई है । दूर से ही मंदिर के शिखर से लहराता केसरिया ध्वज और सामने डोरियों से बंधे, टंगे बौध धर्म के पवित्र और आदर, मान का प्रतीक खत्तक, छपी हुई रंगीन पताकाएं, सफेद रेशमी दुपट्टा अथवा वस्त्र सभी दिशाओं में फैले हवा में झूलते, फरफराते नजर आते हैं ।
किंवदंती है कि त्रिलोकनाथ गांव में एक पुहाल (चरवाहा/गड़रिया ) रहता था । वह गांव वालों की भेडें चराता था । वह सुबह अपनी भेड़ों को चराने के लिए पर्वत शिखरों तक ले जाता था । भेड़ों के साथ साथ पर्वत शिखरों पर चढ़ते, चलते थक जाता, तो कुछ समय के लिए विश्राम करने के उद्देश्य से सो जाता था । इस दौरान स्वेर्गलोक की परियां आकर भेड़ों के दूध निकाल लेती थी । चरवाहे को कुछ पता नहीं चलता था । शाम को गांव के लोग जब पाते कि उनकी भेड़ों के दूध किसी ने निकाल लिया है, तो वे चरवाहे पर शक करते और उसे बुरा -भला कहते । गड़रिया बिना कसूर मन मसोसकर रह जाता ।
एक दिन उसने ठान लिया कि देखें भेड़ों को कौन दुह लेता है । इस रहस्य को जानने के लिए उसने नींद में होने का बहाना किया । उसने देखा, अनिंद्यय सौंदर्य वाली सात परियां भेड़ों के बीच आकर भेड़ों को दुहने लगी हैं । चरवाहे ने आज अपनी आंखों से उन्हें देख लिया था । उसने एक परी को पकड़ लिया और अपनी पीठ पर उठाकर गांव की ओर इस आशय से चल पड़ा कि गांव को दिखा सके कि भेड़ों का दुध चुराने वाली को उसने आज पकड़ लिया है । अपने साथी परी को चरवाहे की पकड़ से छुड़वाने के लिए अन्य छह परियां भी गड़रिया के पीछे चल पड़ी । जिस परी को गड़रिया ने पकड़ कर अपनी पीठ पर उठा रखा था, उसने अपना परिचय देते हुए गड़रिया को बताया कि वह परी है और शर्त के अनुसार पकड़ी गई परी को अपनी पीठ पर उठाए पुहाल आगे आगे चलता रहा और छह अन्य परियां पीछे । चलते चलते चरवाहे को जिज्ञासा होने लगी और उसे लगा कि वह मूर्ख तो नहीं बन गया है । इस विचार के आते ही वह शर्त को भूल गया । उसने पीछे मुड़कर देखा । एक परी उसकी पीठ में और छह परियां परियां पीछे आ रही थीं । लेकिन पीछे मुड़ककर देख्तेउ ही गड़रिया शैल हो गया ।
सात परियां सात धाराओं के रूप में आज भी त्रिलोकनाथ मंदिर के सामने से निकलती हैं, और चन्द्रभागा नदी में समा जाती है । मान्यता है कि इन सात धाराओं का पानी दूध की तरह धवल होता है, चाहे कितनी ही वर्षा हो, बर्फ पड़े अथवा बाढ़ आए । इन सात धाराओं का पानी कभी भी गंदला या मटमैला नहीं होता है । हमेशा दूध की तरह धवल ही रहता है ।
त्रिलोकनाथ मंदिर में भगवान शिव की अप्रतिम सौंदर्य वाली छह भुजाओं वाली सफेद संगमरमर की मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है । स्लेटी रंग की मूल प्रस्तर प्रतिमा दशकों पहले मंदिर से चोरी हो चुकी है । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के शीश पर तपस्या में लीन भगवान बुद्ध की लघु आकार में प्रतिमा विराजमान है । बुद्ध की प्रतिमा आकार में भगवान शिव की मूर्ति से बहुत छोटी लगती है । गर्भगृह में स्थापित मूर्तियां अमूल्य मणि माणिक्यों रत्नों और स्वर्ण आभुषणों से सजी हैं । पीत शुभ्र एवं केसरिया रंग के वस्त्रों से ढकी मूर्तियों से अवर्णनीय तेज सी निकलती हुई प्रतीत होता है जिससे श्रद्धालु अभिभूत होकर अपनी सुध बुध भुलाकर कुछ क्षणों के लिए उनके साथ एकाकार हो जाता है । लेकिन मंदिर का पुजारी बौध लामा है । ये लामा समय समय पर कुछ वर्षों के अंतराल में बदलते रहते हैं । मंदिर का प्रवेश द्वार अद्भुत और अनोखा है । मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के ऊंचे स्तंभ बने हुए हैं जो छत (सीलिंग) तक खड़े हैं । इन स्तंभों को धर्म और पाप का स्तंभ कहा जाता है । प्रवेश द्वार और इन स्तं भों के मध्यग बहुत संकरी जगह है । इन स्तं भों के बीच अत्यंकत संकरे स्था न से होकर जो व्यक्ति गर्भगृह में प्रवेश करता है अथवा बाहर निकलता है, ऐसी मान्य्ता है कि वह सच्चा, ईमानदार और धर्मात्मां है । लेकिन जो इन संकरे द्वारों में फंस जाता है, तो वह पाखण्डी और पापी है ।
मंदिर में अखण्ड ज्योत जलती रहती है चाहे कैसा भी समय अथवा ऋतु हो । गर्भगृह में प्रवेश से पहले मंदिर के प्रांगण में स्फटिक पत्थर (ग्रेनाइट) का बना शिवलिंग है । नंदी और शिव के गण हैं । प्रांगण और गर्भगृह के मध्यम भाग में मने यानी धर्मचक्र सजे हैं । इन धर्मचक्रों में भोटी भाषा में मंत्र उर्त्कीण किये गए हैं । अंदर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमाओं का दर्शन करने के पश्चात बाहर सजावट के साथ बनाए गए इन मने को दाएं हाथ से घुमाना पुण्य का कार्य माना जाता है । इन्हें फिराते हुए मन्नत मांगी जाती है अथवा वांछित इच्छा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है । बाहर आंगन में हवनकुंड में गड़ाए विशाल त्रिशूल पर आम हिंदु मंदिरों की भांति मन्नतों के रूप में बंधे धागे, रेशमी कपडों के टुकड़े और खतक लटके, बंधे सहज ही नजर आते हैं ।
इस मंदिर की विशेषता है कि यहां न अधिक आडंबर है, और ना ही अधिक बंदिशें अथवा हिदायतें हैं । आम धार्मिक स्थानों के विपरीत यहां न लालची पंडित हैं, ना लोभी पंडे पुजारी । न भिखारी हैं, न मांगने, ठगने वाले लोग हैं । सरल स्वभाव के सीधे-सादे, भोले और धर्मभीरू लोग । छल, कपट से दूर ।
गर्मियों के ऋतु में देश के सुदूर क्षेत्रों से साधु संत त्रिलोकीनाथ के दर्शन हेतु पहुंचते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को जुलाई माह के दौरान एक साधु मिले थे जिन्हों ने बताया था कि वह इस वर्ष यानी 2016 में उजैन में सम्पन्न हुए कुंभ में शामिल होकर त्रिलोकनाथ में भोले शंकर के दर्शन के लिए आए हैं । वास्तव में यह पहाड़ी प्रदेश विशेषकर लाहुल स्पीति के लोगों की अपने अराध्यल के प्रति श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और आस्था का संगम स्थल है । इससे भी बढ़कर आस्था का स्वर्गिक एवं पावन स्थान है, जहां उनके विश्वास और आस्था के अनुसार उनके ईष्ट देवों का वास है । लोगों का इन पर इतनी अटूट आस्था है कि कोई भी धार्मिक कार्य, शुभ अनुष्ठान अथवा दुख और शोक के समय भी उस आयोजन, प्रयोजन का मुंह सदैव त्रिलोकनाथ दिशा की ओर करके ही सम्पान्न किया जाता है ।
यहां भी बारह वर्षों के बाद कुंभ का मेला लगता है । पिछला कुंभ 2015 में सम्पन्न हुआ है । प्रति वर्ष अगस्त माह के दौरान पोरी का मेला लगता है । पोरी में लोग दूर दूर से और पूरे जिले के साथ साथ किन्नौर, लेह- लद्दाख से भी श्रद्धालु भक्ति और श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत होकर आते हैं । पारंपरिक
वेशभूषा में विशेषकर महिलाओं को चोडू (कतर/कदर) में सजे -संवरे को देखते ही बनता है । यह मेला आपसी मेलजोल, लोक संस्कृूति को बचाए रखने तथा धार्मिक परंपरा के संरक्षण का भी पर्व है ।
पिछले कुछ वर्षों से अब इस मंदिर का रख- रखाव, पूजा आदि की जिम्मेंदारी यानी प्रशासन का भार हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है ।
• शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश – 175126
E Mail: shersingh52@gmail.com
Mob: 8447037777
8/8/2016