कैलाश-मानसरोवर
(भू-लोक पर साक्षात शिवलोक)
कैलाश पर्वत देवादिदेव महादेव का पवित्र निवास स्थान है, जो कि समस्त सृष्टि के रचियता हैं । इसका वर्णन करने वाला भी उन्हीं की रचना का ही एक अंश है । इसलिए यह वर्णन जितना भी करो अपर्याप्त है।
2. कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र पृथ्वी का एक अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र है । इस क्षेत्र में ऐसी अदभुत शक्ति है कि जब दशर्नार्थी वहां पहुंचता है तो वह अदृश्य शक्ति वहां पर उसको प्रभावित करती है, क्योकि उस मनुष्य के अन्दर जो आत्मा विराजमान है, उसके मूल अंश परमात्मा का वह पवित्र निवास स्थल है। यहां की भूमि पवित्र और वायुमण्डल पवित्रतम है जो कि सर्वथा भिन्न है तथा जो एकाएक (अपने-आप) में मनुष्य को समाहित करने की शक्ति रखती है। यहां की वनस्पति दिव्य औषधियों से भी हुई है । यह सब देवाधिदेव महादेव के वहां विराजमान होने की ओर इशारा करती है। कैलाश के चारों ओर जो पहाड़ और पर्वत ऋंखलाएं हैं ये उन्हीं (शिवजी) के गण और सेवक जैसे प्रतीत होते है। (या यूं कहो कि गणों ने पर्वत का रूप धारण किया है।) दूर उॅंची-उॅंची हिमालय की चोटियां ऐसे प्रतीत होती है जैसो कि वे देवाधिदेव महादेव की उपासना में लीन है।
3. यहां की प्राकृतिक संरचनाएं हर पल परिवर्तित होकर मानव को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। सूक्ष्म शरीर में देवी-देवता, ऋषि-मुनि इस पवित्र स्थल में विचरण करते रहते हैं, जो कि इस स्थल की पवित्रता, शुद्धता को बनाए रखने में सहायक हैं।
4. कैलाश की तलहटी में दो विशालकाय झीलें (मानसरोवर एवं राक्षसताल) स्थित हैं। जो कि यह आवाज देतीं है कि ब्रहम्मानस के दो हिस्से हैं जो कि अच्छाई एवं बुराई कव प्रतीक हैं। कहते है कि एक बार ब्रहमाजी के पुत्रों ने अपने पिता की आज्ञानुसार भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए तप आरम्भ किया। उस समय इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना ऐसी थी कि यहां पर जल की कमी थी, इस कारण से वह शिव-पूजा के निर्मित शिवलिंग पर जल चढ़ाने में असमर्थ थे। इसके निवारण के लिए उन्होंने परमपिता ब्रहमाजी से प्रार्थना की तब ब्रहमाजी ने अपने मन से इस सरोवन की रचना की इसलिए इसका नाम मानसरोवर पड़ा अर्थात ऐसा सरोवन जिसकी रचना मन से की गई है मानसरोवर । मानसरोवर का पवित्र जल अमृत सदृष्य है और इसमें रहने वाले जीव स्वंय शिव स्वरूप है । मानसरोवर के चारों और बहुत सी पवित्र गुफाएं है जो दर्शनार्थियों को विश्राम देने के लिए काफी सहायक हैं । मानों प्रभु ने स्वंय अपने भक्तों के आराम की व्यवस्था की हो। मानसरोवर के दूसरे छोर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि कैलाश बिल्कुल उन्ही के किनारे में समाधिस्थ है और जब मानस शान्त होता है तो कैलाश जीम का प्रतिबिम्ब मानस में दिखलाई देता है। समय के साथ-साथ मानसरोवर के रंग रूप में परिवर्तन होता रहता है जो कि आते-जाते विचारों का घोतक है।
5. समीप ही स्थित राक्षसताल झील में यह अनुभव नहीं होता है क्योंकि इसे अशुद्धता का प्रतीक माना जाता है। हर पल इसका रंग गाढा नीला रहता है इसमें कोई जीव नहीं रहता है, जो एक उग्र तीक्ष्ण मानसिक प्रवृति का आभास कराता है। मानसरोवर और राक्षसताल के बीच में स्थित गुरला मानधाता एक चमकता हुआ उॅंचा पर्वत हैं जो कि अपने आप में एक सम्मान के साथ दोनों झीलों के किनारे में स्थित है। इससे यह प्रतीत होता है कि विवेक अच्छाई और बुराई का निर्णय करने वाला है।
6. कैलाश मानसरोवर क्षेत्र में चारों दिशाओं में चार नदियों का उदगम स्थल है जो संसार की चार दिशाओं से होकर समुद्र में जा मिलती है। दूर से देखने पर कैलाश विशाल मैदान में एक ज्योतिर्मय बिन्दु की तरह प्रतीत होता है ऐसा लगता है कि विषालकाय महाशून्य में एक ज्योति की उत्पति हुई है और जिससे सृष्टि की रचना होने वाली है।
7. इस पवित्र क्षेत्र से जैसे-जैसे वापिस नीचे आते है तो हिमालय से बहता सारा पानी, घने जंगल ऐसे प्रतीत होने हैं कि जैसे सृष्टि की रचना का आरम्भ हो गया है और नीचे मैदानों में आने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह सारा संसार उन्हीं की एक विशाल रचना है। यूं आभास होता है कि भगवान शंकर दूर कैलाश पर बैठ अपनी रचाई सृष्टि का अवलोकन कर रहे है।
8. देवाधिदेव महादेव परबृहमा हैं। यही कैलाश उनका निवास स्थान है इसलिए सारे देवी-देवताओं, अप्सराओं, किन्नर, यक्ष आदि का यहां आवागमन होता रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस स्थान में एक अद्भुभुत शक्ति है जो सबको अपनी ओर आकृर्षित करती है। जो दर्शनार्थी परमात्मा के जितना समीप होता है वह इस क्षेत्र से उतना ही प्रभावित होता है। इस क्षेत्र में पहुंचकर कोई तप नहीं कर सकता है क्योंकि जिसको पाने के लिए वह तपस्या करते है वह उन्हीं के पावन चरणों में पहुंच गया है क्योंकि वहां पहुंचना ही एक तपस्या है, जो अपने आपको तपस्या की ओर ले जाने को बाध्य करना है। इससे यह प्रतीत होता है कि तपस्या की नहीं जाती है वह स्वयं हो जाती है।
9. दर्शनार्थी चाहे कितना भी नास्तिक हो वह कैलाश से वापिस आने के बाद अपने आप को पूर्णतः परिवर्तित महसूस करता है । यह इस पवित्र भूमि का एक चमत्कार है मानों भगवान् शिव ने अपनी पवित्रता से जीव का माया रूपी मैल हटा दिया है । कैलाश से थोड़ा दूर स्थित भस्मासुर पर्वत (तीर्थपुरी) यह संकेत करता है कि बुराई जितनी भी शक्तिशाली हो उसका एक समय में अन्त निश्चित है ।
10. कैलाश की जो पवित्रता और चेतना है वह वहां के कण-कण में व्याप्त है। इसलिए हर कण शिव स्वरूप् है, जो भी प्राणी इस स्थान में पहुंच जाता है । वह भी शिव स्वरूप् हो जाता है, लेकिन अपने अहं के कारण वह इसे महसूस नहीं कर पाता है और प्रभु से दूर हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य में, उस रचनाकार की दी हुई, एक ऐसी शक्ति विघमान होती है जो कि अपने आप में एक बदलाव ला सके । कैलाश में जब दर्शनार्थी पहुंचता है तो यह पवित्र क्षेत्र इस परिवर्तन लाने में और सहायक सिद्ध होता है । यहां के पशु-पक्षियों में भी एक अलग तरह की समझ (ज्ञान) है, ऐसे प्रतीत होता है कि ये पशुपक्षी ना होकर पवित्र आत्माएं रूप बदलकर पशु रूप में विचरण कर रही है । मनुष्य इस क्षेत्र में पहुंचकर यदि अपने मान से इस स्थान की चेतना को अनुभव करने का प्रयास करें तो उसको निश्चित ही शिवलोक की प्राप्ति होने में देर नहीं लगेगी । क्योंकि वह स्वयं परमात्मा के (स्थान) चरणों में खड़ा है । आत्मा और परमात्मा में कोई दूरी नहीं है । उसका विवेक, मन, अहंकार, विचार परमात्मा से दूर करता है । मनुष्य अपने संस्कारों को बोरी बिस्तर की तरह जकड़े रहा है और इसे छोड़ना भी नहीं चाहता है । यहां प्रकृति हर क्षण में अपना रूप् बदलते हुए इस क्षेत्र की शोभा में चार चांद लगाती है । इस क्षेत्र में ना जाने कितने ऋषि मुनियों ने आकर तप किया और उस परमपिता परमात्मा में समाहित हो गये और उसका कोई अन्त नहीं है । उसकी समाज में कोई प्रतिष्ठा भी नहीं है क्योंकि उसका मूल उदेश्य परमात्मा में लीन होने का है।
11. कैलाश मानसरोवर क्षेत्र कल्पवृक्ष जैसा ही है, लेकिन यह कल्पवृक्ष सर्वथा भिन्न है। यहां जो आप मांगे वह नहीं मिलेगा वरन् आपको जो चाहिए (परमात्मा के दृश्टिकोण से) वह मिलेगा। दर्शनार्थी बहुत इच्छा-कामना लेकर पहुंचता है लेकिन अधिकांश की इच्छा-पूर्ति नहीं होती है परन्तु जो मनुष्य श्रद्धाभाव से यहां पहुंचता है वह अपने आप में अलग अनुभूति प्राप्त करता है जिसकी उसे उम्मीद ही नहीं थी। दर्शनार्थी जब कुछ मांगने की कोशिश करता है तो वह अपने सांसारिक जीवन की इच्छा पूर्ति करने के लिए ही मांगता है लेकिन जो मिलता है वह उसे शिव (परमात्मा) के चरणों में बहुत आगे तक पहुंचाने में सहायक होता है। दर्शनार्थी जब कैलाश मानसरोवर क्षेत्र में पहुंचता है तो यहां पर जो एक शक्तिशाली चेतना विधमान है वह उसे अनुभव नहीं कर पाता है क्योंकि वह अपने आपको बहुत परेशान महसूस करता है। एक तो वह संसार से बहुत दूर आ गया है जिस कारण वह बहुत भयभीत होता है विचलित होता है, दूसरे ठंड और आक्सीजन की कमी से बहुत परेशानी महसूस करता है। तीसरा खाने-पीने, रहने और बोलने-चालने की असुविधा के कारण हर समय परेशान रहता है जिसके कारण उसका मन बहुत विचलित रहता है और वह इस क्षेत्र के प्रभाव को नहीं जान पाता है। लेकिन उसका (शिव-कृपा का) प्रभाव जीव पर स्वतः ही होता रहता है वह जीव धुल जाता है और जब वह वापस आता है तो अपने आपको धुला (निर्मल) हुआ महसूस करता है। यही देवाधिदेव महादेव की कैलाश भूमि (शिवकृपा) का चमत्कार है।
12. आदमी शुद्ध विचार, शान्त मन लेकर अगर इस क्षेत्र में कुछ दिन रहे तो अपने आप को परमात्मा से कभी भी दूर महसूस नहीं करेगा। लेकिन मनुष्य के संस्कार इतनी आसानी से उसक पीछा नहीं छोडते हैं इसलिए इस स्थान पर पहुंच कर जीवन और ज्यादा विचलित हो जाता है जैसे एक तेज बहाव वाली नदी की मछली को एक शांत तालाब में छोड़ दिया हो।
13. कैलाश् यात्रा करने से पहले कैलाश् की तलहटी में तथा हिमालय की तलहटी में विराजमान देवी-देवताओं के मन्दिर में जाकर प्रार्थना करनी आवश्यक है ताकि उनकी यात्रा सफल हो। कैलाश यात्रा में एक बात का ध्यान रखना जरूरी होता है कि जहां तक संभव हो प्रतिदिन स्नान करें और पानी एवं अन्य तरल पदार्थ ज्यादा मात्रा में ग्रहण करें।
14. दर्शनार्थी जब तकलाकोट (तिब्बत) से मानस पहुंचते हैं तो सर्वप्रथम मानसरोवर की परिक्रमा करनी चाहिए। मानसरोवर की परिक्रमा लगभग 107 कि.मी. की है तथा इसे तीन दिन में पूरा करने की परंपरा है। आजकल तो यह परिक्रमा बस, ट्रक या जीप द्धारा कुछ घंटो में भी की जा सकती है। मानसरोवर के पश्चिम में च्यू गोम्पा से प्रारम्भ करके पूर्व में होरचू से दक्षिण में ठुगु गोम्पा होते हुए वापिस च्यू गोम्पा पर परिक्रमा पूर्ण होती है। होरचू से ठुगु गोम्पा की दूरी लगभग 50 किमी है और ठुगु से च्यू गोम्पा लगभग 69 किमी है। वहां स्नान, पूजन, परिक्रमा के बाद ही कैलाश की परिक्रमा करनी चाहिए।
15. दर्शनार्थी को मानसरोवर का पवित्र जल अपने साथ अवश्य लाना चाहिए। मानसरोवर के दक्षिण में गुरला मान्धाता पर्वत की तलहटी से कैलाश के दर्शन पूजा, स्नान आदि का बहुत महत्व है। मानसरोवर के इस तरफ से कैलाश जीम की बड़ी मनोहर छवि के दर्शन भी होते हैं और उनका प्रतिबिम्ब मानसरोवर में दिखलाई पड़ता है।
16. मानसरोवर में बहुत-सी छोटी-बड़ी नदियां आकर मिलती हैं लेकिन इसका जल मृत्यु लोक में नही जाता है क्योंकि यह अत्यन्त पवित्र झील है। यह आश्चर्य का विषय है कि इतनी बड़ी नदियों का इसमें कैसे समावेश हो जाता है। मानसरोवर की गहराई लगभग 600 फीट है, लम्बाई व चैड़ाई लगभग 22 किमी है। इसकी गोलाई लगभग 107 किमी है। मानसरोवर के पूर्व और पश्चिम में दो गर्म पानी के स्रोत हैं ऐसे स्रोत मानसरोवर के मध्य में भी हो सकते हैं। जिसके कारण अन्य झीलों और नदियों की तुलना में इसका जल अपेक्षाकृत गर्म है। इस झील में बहुत से जीव, राजहंस आदि विचरण करते हैं तथा किनारे में बहुत से जंगली जानवर विचरण करते हैं। इसमें स्नान करने के बाद दर्शनार्थी स्वयं को बहुत अल्का (पवित्र) महसूस करते हैं। ऐसा महसूस होता है कि न जाने कितने ही जन्मों के पाप उतर (धुल) गये हैं। इसके जल में एक अलग-सा पोषक तत्व है जो तन और मन दोनों को अपने आप में तृप्ति देने की क्षमता रखता है। आध्यात्मिक दृष्टि से और वैज्ञानिक दृष्टि से मानसरोवर का वर्णन करना सम्भव से परे है । मानसरोवर के किनारे के पहाड़-पर्वत, खनिज व रत्नों से भरपूर हैं ऐसे मानो कि कुबेर का खजाना यहां पर है।
17. कैलाश पर्वत मानसरोवर झील से पश्चिम दिशा में लगभग 40 किमी. दूर है। कैलाश पर्वत की दक्षिण दिशा में डारचन नामक स्थान है, यहां से परिक्रमा का आरम्भी और अन्त होता है। परिक्रमा कुल 52 किमी की है। परिक्रमा का मार्ग दक्षिण दिशा में डारचन से शुरू होकर पश्चिम दिशा में यमद्धार (तारबोचे), उत्तर में डेरापुक, पूर्व में डोलमा पास और दक्षिण में जुथुलपुक से होते हुए डारचन में समाप्त होती है। यह परिक्रमा साधारणतया 6 दिन में की जाती है। परन्तु शिव-कृपा से इसे 2 दिन में या एक दिन में भी पूर्ण कर सकते है।
18. परिक्रमा आरम्भ करने के बाद सर्वप्रथम यमद्धार (तारबोचे) नामक स्थान आता है जोकि डारचन से लगभग 10 किमी दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है । यात्रा के दौरान इस द्धार से गुजरना अनिवार्य है । कहते है इस यमद्धार से गुजरने के बाद मनुष्य की असमय और अस्वभाविक मृत्यु नहीं होती। तिब्बती भाषा में इस स्थल को तारबोचे कहते हैं। 12 साल के बाद यहीं पर ध्वजारोहण का कार्यक्रम होता है। यहां से कैलाश जीम के भव्य दर्शन होते हैं मानो भोलेनाथ एक उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं। यहां से थोड़ा सा आगे चलने पर बायीं और गोम्पा है।
19. यमद्धार से 11-12 किमी चलने के बाद डेरापुक पहुंचते हैं। परिक्रमा मार्ग के दायें हाथ की तरफ कैलाशजी हैं और बायें हाथ की तरफ अन्य पर्वत हैं बीच में एक गलियारा सा है और यही परिक्रमा का मार्ग है। मार्ग में साथ-साथ नदी बहती है जिसमें आस-पास की चोटियों से और कैलाश से उतरता हुआ पवित्र जल आकर मिलता है। यह अमृत तुल्य है। यूं प्रतीत होता है मानों भोलेनाथ का अभिषेक करने के बाद यह पवित्र जल नदी में आ मिला है। यह सारा रास्ता लगभग समतल है। थोड़े बहुत उॅंचे-नीचे टीले मार्ग में आते हैं। डेरापुक पर पहले दिन का रात्रि विश्राम करते है।
20. डेरापुक कैलाश के उत्तर दिशा में स्थित है यहां से कैलाश जी के सबसे सुन्दर, भव्य और अत्यन्त नजदीक से दर्शन होते हैं। यहां से लगभग 2 धण्टे की दूरी तय करके कैलाशजी के चरणों में पहुंचा जा सकता है। परन्तु इसके लिए प्रभु की अनुमति तथा कृपा अत्यन्त आवश्यक है।
21. दूसरे दिन डेरापुक से चलने के बाद शिव स्थल होते हुए डोलमा पास पर पहुंचते है। यह पवित्र स्थल समुद्र तल से लगभग 19,500 फीट उॅंचा है तथा परिक्रमा मार्ग का सबसे उॅंचा स्थान है। यहां पर ऑक्सीजन की कमी होती है तथा थोड़ा-सा चलते ही सांस फूलती है। यहां पर ठंड भी अत्याधिक होती है। हवा का वेग भी अधिक होता है। डेरापुक से डोलमा पास लगभग 5 किमी दूर है परिक्रमा मार्ग में यह चढाई, आक्सीजन की कमी के कारण, थोड़ी सी कठिन लगती है। परन्तु शिव भोले को पुकारने पर उनके गण आकर इस चढाई को बड़ी आसानी से पूरा करवा देते हैं। परिक्रमा मार्ग में डोलमा पास पर ही पूजा करने की परंपरा है। यहां पर एक उॅंची शिला है और यहीं पर पूजा करने की परम्परा है। तिब्बती भाषा में इस स्थान को डोलमा कहते हैं और हिन्दू धर्म में इस पवित्र स्थान को मां तारा देवी की स्थान कहते हैं। यह पवित्र स्थल शक्ति पीठ है (तारा देवी शक्ति पीठ) यहीं से कैलाश जी के पूर्व मुख के दर्शन होते हैं। सीधे हाथ की तरफ कैलाश जी के पूर्व मुख के दर्शन और बांये हाथ की तरफ पवित्र तारा मां की शक्ति पीठ। ऐसा पवित्र मेल शायद ही कहीं हो। यहां आकर मन को बड़ी शान्ति मिलती है। डोलमा पास से थोड़ा आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ पर कैलाश जी की तलहटी में पवित्र गौरी कुण्ड है। अगर मां की अनुमति मिले तो इस कुण्ड में स्नान अवश्य करना चाहिए ओर इस पवित्र कुण्ड का जल अपने साथ अवश्य लाना चाहिए। डोलमा पास से आगे बढ़ने पर लगभग 7 किमी की उतराई है। रास्ते में ग्लेशियर हैं अतः यहां पर थोड़ी सावधानी से चलते रहना चाहिए। यहां से आगे का मार्ग समतल है। नरम मुलायम घास और पास बहती नदी। डोलमा पास पार करने के बाद वापिस डारचन पहुंचने तक कैलाश जी के दर्शन नहीं होते क्योंकि हमारे दाहिने हाथ की तरफ उॅंचे पहाड़ और उनके पीछे कैलाश महाराज विराजमान हैं।
22. लगभग 15 किमी दूर जुथुलपुक नाम स्थान आता है। यहां पर दूसरे दिन का रात्रि विश्राम करते है।
23. तीसरे दिन जुथुलपुक (जोंगजेरबु) से वापिस डारचन पहुंचते हैं यह दूरी लगभग 11 किमी है पूरा रास्ता समतल है और थोड़ी-थोड़ी ढलान है।
24. कैलाश परिक्रमा एक नदी के किनारे से प्रारम्भ होती है और दूसरी नदी के किनारे पर समाप्त होती है। यह नदियां कैलाश और आसपास के पर्वतों से आती हैं और राक्षसताल में जाकर मिलती हैं। कैलाश की आकृति पंचाकोण आकृति है जोकि पंचानन अर्थात् शिवजी के पांच मुखों का प्रतीक है। ये 5 मुख इस सृष्टि के आधारभूत पंचतत्वों, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि के प्रतीक हैं। इन्ही के संयोग से इस शरीर के रचना होती है जोकि परमात्मा के अंश के कारण जीवंत हो उठता है। मृत्यु के बाद ये पंच तत्व वापिस उन्ही मे समाहित हो जाते हैं - आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।
25. कैलाश परिक्रमा के मार्ग में हर कोण से कैलाश की ओर नजदीक जा सकते हैं लेकिन काफी धैर्य और हिम्मत रखनी पड़ती है। मार्ग दुर्गम है और कठिनाइयों से पूर्ण है। दक्षिण दिशा से कैलाश की ओर जाने के लिए डारचन से नदी के किनारे जाने का रास्ता है। डरचन में जो नदी है वह कैलाश पर्वत से ही आ रही है । कुछ दूर चलने के बाद कैलाश जीम के भव्य दर्शन होते हैं। कैलाश पर्वत के सामने नन्दी पर्वत तथा बायीं ओर अष्टापद पर्वत है। यहां एक अलग तरह से द्रान के आनन्द की अनुभूति होती है।
26. कैलाश परिक्रमा के बाद नन्दी परिक्रमा भी कर सकते हैं। नन्दी परिक्रम में कैलाश और नन्दी जीम के बीच में से होकर जाना पड़ता है। जिससे कैलाश स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त होता है। नन्दी जीम के सामने बायीं तरफ अष्टापद पर्वत है जोकि जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव जी का निर्वाण स्थल है। कैलाश पर कोई मंन्दिर नहीं है लेकिन पूरा पर्वत अपने आप में एक मन्दिर जैसा ही है। इसके अन्दर बहुत बड़ी-बड़ी गुफाएं हैं जिसमें बहुत से ऋषि-मुनि वहां तपस्या कर चुके हैं।
27. भीतरी (इनर) परिक्रमा कैलाश के सबसे नजदीक से होती है। जिसमें कई पहाड़ियां छूट जाती है और सिर्फ कैलाश से जुड़ी हुई पहाड़ियों के साथ-साथ परिक्रमा होती है। डारचन से अष्टापद के किनारे से होते हुए डेरापुक पहुंचते हैं। डेरापुक से खण्डेसांगलुम होते हुए जुथुलपुक पहुंचते हैं। भीतरी परिक्रमा में गौरी कुण्ड और डोलमा के दर्शन नहीं होते है जोकि केवल बाहरी परिक्रमा में होते हैं। भीतरी परिक्रमा में कैलाश से आने वाली नदी को ही पार करके जा सकते हैं, दूसरी किसी नदी को पार करके जाना उचित नहीं है।
28. कैलाश में बहुत सालों से बौद्ध धर्मावलंबियों का निवास है इसलिए बौद्ध धर्मावलम्बी इस स्थान के हर पहाड़, हर स्थान के बारे में अलग- अलग कहानी कहते हैं। हिन्दू धर्मावलम्बी अधिक दिन तक वहां नहीं रह पाते हैं इसलिए उन्हें अधिक जानकारी नहीं है, अतः बौद्ध धर्मावलम्बियों के कथनों को ही मानना पड़ता है। कैलाश को हिन्दू, बौद्ध और बोम्बो धर्म के सर्वोच्च तीर्थ के रूप में मानते हैं और मूल शक्ति का निवास स्थान मानते हैं।
29. आजकल कैलाश-मानसरोवर जाने की काफी सुविधा हो गई है। पैदल सड़क और हवाई मार्ग जैसा सामर्थ्य (प्रभु-कृपा) हो उसी साधन से कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर जाया जा सकता है।
30. कैलाश मानसरोवर तिब्बत में स्थित है और तिब्बत पर चीन सरकार का आधिपत्य है। इसलिए कैलाश मानसरोवर जाने के लिए चीन सरकार से वीजा लेना पड़ता है, इसके लिए पासपोर्ट होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ होने के कारण चीन सरकार भारतीय तथा नेपाली श्रद्धालुओं को लोकल परमिट भी जारी करती है। जिसका प्रयोग प्रायः पैदल जाने वाले साधु-संत तथा अन्य लोग करते हैं लेकिन इसकी सरकारी कागजी कार्यवाही बहुत जटिल और कष्टप्रद है।
31. कैलाश मानसरोवर जाने के लिए बहुत से मार्ग है। भारतवासियों के लिए भारत सरकार का विदेश मंत्रालय, कुमाउॅं मंडल विकास निगम के सहयोग से इस यात्रा का आयोजन करती है। हर साल जनवरी-फरवरी में विदेश मंत्रालय द्धारा मुख्य समाचार पत्रों तथा दूरदर्शन के माध्यम् से आवेदन आमंत्रित किये जाते है इसके बाद मंत्रालय द्धारा ड्रा निकाला जाता है और भाग्यशाली यात्रियों के 16 जत्थे (बैच) बनाये जाते हैं। प्रत्येक जत्थे में 60 यात्रियों को अनुमति प्रदान की जाती है। वीजा़ आदि की व्यवस्था मंत्रालय द्धारा की जाती है। इसके साथ ही कुमाऊं मंडल विकास निगम बाकी सारा कार्य सभांलती है। दिल्ली से लेकर पुलेख पास और वापिस दिल्ली तक भोजन, रहने और यातायात आदि की व्यवस्था कुमाऊं मंडल विकास निगम करती है। प्रत्येक पड़ाव पर निगम के अपने विश्रामालय हैं । जिसमें समुचित प्रबन्ध होते हैं।
पहला दिनः- शारीरिक जांच के लिए दिल्ली में मंत्रालय द्धारा निर्धारित अस्पताल में निर्धारित टेस्ट करवाए जाते हैं। जैसेः-
1. RDT, LTC, DLC, HB.
2. Urine-(a) Re-Albumin Sugar(b) Microscopic.
3. Stool –Re.
4. Blood-sugar,Rasting-PP Urea-Creatinine, Seru Bilurubin, Blood Group.
5. Chest X-ray.
6. Tread Mill Test.
यात्रा पर जाने के इच्छुक भक्तों को यह सब परीक्षण करवाकर सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उनका शरीर पूर्णतया स्वस्थ है, ताकि दिल्ली में आने के बाद परीक्षणों में कोई कमी होने से उन्हें कठिनाई न हो। परीक्षणों में कमी होने पर आईटीबीपी. द्धारा यात्रा करने की अनुमति नहीं मिलती है। इसके साथ ही प्रत्येक दर्शनार्थी को अपने रक्तचाप (ब्लड प्रेषर) का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि अधिक ऊॅचाई वाले क्षेत्रों में जाने पर रक्तचाप थोड़ा बढ जाता है।
दूसरा दिन:-
विदेश मंत्रालय (साउथ ब्लाक) में अधिकारीगण यात्रा के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं और वीजा आदि की औपचारिकता पूरी की जाती है।
तीसरा दिनः-
आईटीबीपी. के बेस अस्पताल (खानपुर-दिल्ली, बत्रा अस्पताल के सामने) में दर्शनार्थी की शारीरिक जांच की जाती है और परीक्षणों (टेस्ट रिपोर्टो) की भी जांच पड़ताल की जाती है। इन सब का मुख्य उद्देश्य यात्री को आने वाली तकलीफों से बचाना क्योंकी अधिक ऊॅचाई (हाई एटीच्यूट) वाले क्षेत्रों में उच्च रक्तचाप, शुगर आदि से बड़ी तकलीफें होती हैं।
चौथा दिनः-
दर्शनार्थी बैब जाकर डालर खरीदते हैं । तिब्बत जाकर डॉलर को फिर युआन (चीनी करंसी) में बदला जाता है।
पॅाचवां दिनः-
यात्रा का शुभारंभ होता है और यात्री कुमाऊं मंडल विकास निगम की बसों के द्धारा मुरादाबाद, रामपुर, हल्द्धानी, काठगोदाम होते हुए अल्मोड़ा पहुंचते है । दिल्ली से अल्मोड़ा की दूरी लगभग 370 किमी है।
छठा दिन:-
यात्री अल्मोड़ा से पिथौरागढ़ होते हुए बागेश्वर पहुंचते हैं। बागेश्वर एक प्राचीन तीर्थ है। यह गोमती और सरयू नदी के संगम पर बसा छोटा सा शहर है। यहां पर भगवान शंकर ने बाघ का रूप् धारण कर विचरण किया था इस लिए इस शहर का नाम बागेश्वर पड़ा। संगम के किनारे पर सन 1602 में बना बाघनाथ का प्राचीन मंदिर है। यहां से आगे चलकर चकौरी होते हुए धारचूला पहुंचते हैं। यह दूरी लगभग 270 किमी की है। धारचूला इस यात्रा का बेस कैम्प है । धारचूला काली गंगा के किनारे घाटी में बसा छोटा सा शहर है तथा नदी के उस पार नेपाल है।
सातवां दिन:-
धारचूला से बस द्धारा तवाघट (19 किमी) या मंगती पहुंचा जाता है और यहां से पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है। तवाघाट से थाणीधार, पांगू होते हुए लगभग 20 किमी की दूरी तय कर यात्री सिरखा (समुद्रतल से ऊचाई 8,450 फीट) पहुंचते हैं। पांगू गांव से सिरखा गांव तक पहुंचने के लिए एक अन्य रास्ता भी है जो नारायण आश्रम होकर पहुंचता है इसके लिए 03 किमी अधिक चलना पड़ता है।
आठवां दिनः-
आज की मंजिल गाला (समुद्रतल से ऊंचाई 8,050 फीट) है। गाला-सिरखा से 16 किमी की दूरी पर स्थित है। यह सारा रास्ता पहाड़ी बनस्पतियों तथा पेड़ों से भरपूर है। रास्तें में 10,050 फीट उॅचा रंगलिंग पास पड़ता है। चढ़ाई उतराई के बाद सिमोलखा गांव होते हुए गाला कैंप पहुंचते हैं।
नौवां दिनः-
आज की मंजिल बुद्धि है। गाला से बुद्धि की दूरी 18 किमी है गाला से चलते ही 4,444 सीढ़ियां उतरकर लखनपुर आता है और यहां से नदी पार करके मालपा, लामारी होते हुए बुद्धि पहुंचते हैं। यह पूरा रास्ता काली नदी के किनारे है। लखनपुर से लेकर मालपा तक रास्ता संकरा है अतः दर्शनार्थी को यहां सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए।
दसवां दिनः-
आज का पड़ाव गूंजी है। यह आईटीबीपी. का अन्तिम बेस कैंप है। बुद्धि से गूंजी (समुद्रतल से ऊचाई 10,624 फीट) की-छिया लेक, गर्बयांग होते हुए दूरी लगभग 22 किमी है। यहां पर आईटीबीपी. के डाक्टर दोबारा रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) की जांच करते हैं और रक्तचाप अधिक होने या अन्य शारीरिक कमी होने पर यहां से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं मिलती है।
ग्याहरवां दिनः-
इस दिन यात्री गुंजी से कालापानी (समुद्रतल से ऊचाई 11,880 फीट) पहुंचता है। यह दूरी लगभग 10 किमी है तथा यहां भगवान शिव और मां काली का मंन्दिर है। जिसकी देखभाल आईटीबीपी. के जवान करते हैं। काली नदी का उदगम इसी स्थल से होता है।
बारहवां दिनः-
बारहवें दिन की मंजिल नाबीढांग है। यहां भारतीय क्षेत्र में आईटीबीपी. की अन्तिम चौकी है। समुद्रतल से इस स्थान की उॅचाई 14,220 फीट है यह दूरी लगभग 09 किमी है। इसी स्थान से ही पश्चिम दिशा में ओम पर्वत के दर्शन होते है।
तेरहवां दिन:-
आज की मंजिल तकलाकोट (तिब्बत) है। इस दिन की यात्रा सुबह 3.30 बजे प्रारम्भ होती है। लगभग 08 किमी की कठिन चढ़ाई करके लगभग 06 बजे तक लिपूलेख पास 16,730 फीट पर पहुंचते हैं यहीं से दर्रा (पास) पार करके तिब्बत में प्रवेश करते हैं। लगभग 05 किमी की उतराई (पैदल या घोड़े द्धारा) के बाद, लगभग 02 घंटे की बस यात्रा करके तकलाकोट पहुंचते हैं। तकलाकोट में पहुंचने के बाद चीनी अधिकारियों द्धारा वीजा और कस्टम आदि की औपचारिकताएं पुरंग गैस्ट हाउस में ही पूरी की जाती हैं।
चैदहवां दिनः-
यह दिन तकलाकोट में विश्राम का दिन है तथा इसी दिन डालर के बदले में युआन लिए जाते हैं।
पन्द्रहवां दिनः-
आज का दिन बड़ा ही शुभ है क्योंकि तकलाकोट से लगभग 100 किमी की दूर तय करने के बाद पवित्र मानसरोवर और कैलाश के प्रथम दर्शन होते हैं तथा रात्रि विश्राम मानसरोवर के पश्चिम तट पर च्यू गोम्पा के पास स्थित गैस्ट हाउस में होता है।
सोलहवां दिनः-
मान परिक्रमा के लिए बस द्धारा च्यू गोम्पा से बरघा होते हुए सर्वप्रथम पूर्व दिशा में हरिचू (हरि), हरिचू से पश्चिम दिशा में डुगू गोम्पा पहुंचते हैं। यहां से कैलाश का पूर्ण प्रतिबिम्ब मानसरोवर में दिखलाई देता है। स्नान आदि के पश्चात दर्शनार्थी परिक्रमा पूर्ण करते हुए वापिस च्यू गोम्पा पर स्थित गेस्ट हाउस में पहुंचते हैं। पवित्र मानस का जल डुग से लेना ज्यादा उचित है।
सत्रहवां दिनः-
यह दिन हवन पूजा एवं मनन आदि के लिए निर्धारित है।
अठारहवां दिन:-
मानसरोवर से बस द्धारा लगभग 40 किमी दूर कैलाश परिक्रमा के आधार-शिविर पर पहुंचते हैं। अगर समय मिले तो डारचन से अष्टापद अवश्य जाना चाहिए, यहां से कैलाश के दक्षिण मुख के भव्य दर्शन होते हैं तथा यहीं से नन्दी परिक्रमा का मार्ग है।
उन्नीसवां दिनः-
आज कैलाश परिक्रमा (शिव परिवार की परिक्रमा) का शुभारम्भ है। ट्रक या बस द्धारा लगभग 10 किमी दूर यमद्धार पहुंच कर वहां से पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है और लगभग 11 किमी की दूरी पैदल या याक द्धारा तय करके रात्रि विश्राम डेरापुक पर करते हैं।
बीसवां दिनः-
डेरापुक से चलकर शिवस्थल होते हुए डोलमा पास पर पूजा करके और गौरी कुण्ड के दर्शनों के पश्चात लगभग 24 किमी दूर जोंगजरेबू (जुथुलपुक) पर रात्रि विश्राम करते हैं।
इक्कीसवां दिनः-
जोंगजरेबू से लगभग 11 किमी पैदल चलकर शिव-कृपा से डारचन पर परिक्रमा सम्पन्न। समय मिलने पर अष्टपद के पुनः दर्शन।
बाईसवां दिनः-
डारचन से चलकर मानसरोवर पर शिव-कृपा के लिए धन्यवाद करते हुए वापिस तकलाकोट।
तेइसवां दिनः-
तकलाकोट से खोचरनाथ (राम दरबार को समर्पित बौद्ध गोम्पा) दर्शन एवं वापिस तकलाकोट आकर रात्रि विश्राम पुरंग गेस्ट हाउस।
चैाबीसवां दिनः-
तकलाकोट से गूंजी।
पच्चीसवां दिनः-
गूंजी से बुद्धि।
छब्बीसवां दिनः-
बुद्धि से गाला।
सताईसवां दिन:-
गाला से सिरखा।
अटठाईसवां दिन:-
सिरखा से धारचूला।
उन्नतीसवां दिन:-
धारचूला से अल्मोड़ा।
तीसवां दिनः-
अल्मोड़ा से दिल्ली।
32. कैलाश-मानसरोवर जाने के लिए अन्य मार्ग काठमाण्डू से है। इस यात्रा के लिए नेपाल तथा भारत में स्थित ऐजेन्टों की मदद आवश्यक है। यह यात्रा लगभग 18 दिन में पूर्ण होती है। इसमें ग्रुप वीज़ा तथा अन्य सारी व्यवस्थायें एजेन्ट करते हैं। इस मार्ग में शारीरिक जांच की कोई औपचारिकता नहीं है। परन्तु अपनी सुविधा के लिए प्रत्येक यात्री को अपनी शारीरिक जांच अवश्य करा लेनी चाहिए क्योंकि भारत और तिब्बत के मौसम में बहुत भिन्नता है। तिब्बत का मौसम शुष्क और ठण्डा है। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र समुद्रतल से लगभग 150000 फीट से लेकर 19500 फीट पर स्थित है इस लिए तन और मन दोनों की तन्दुरूस्ती अन्यन्त आवश्यक है।
33. सर्वप्रथम यात्री काठमांडू पहुंचते हैं। यहां पर 02 दिन (पशुपतिनाथ के दर्शन तथा काठमांडू भ्रमण) के बाद तीसरे दिन सुबह बस द्धारा लगभग 113 किमी दूर नेपाल तिब्बत सीमा कोदारी पर पहुंचते हें। यहां पर कागजी कार्यवाही करने के बाद तिब्बत में प्रवेश करते हैं और फिर लैण्डक्रूज़र जीप से जंगमू होते हुए नयालाम पहुंचते हैं। यहां पर मौसम के अनुरूप शरीर को ढालने के लिए एक दिन का विश्राम करते हैं। पांचवे दिन लैण्डक्रूज़र से लगभग 270 किमी का कठिन सफर करके सागा, छठे दिन फिर लगभग 260 किमी का कठिन सफर तय करके प्रयांग और सातवें दिन फिर लगभग 270 किमी का कठिन सफर तय करके पवित्र मानसरोवर के किनारे पूर्व दिशा में होरचू पहुंचते हैं। आठवें दिन मानसजी की परिक्रमा लैण्डक्रूजर द्धारा सम्पन्न की जाती है। नवें दिन हवन, पूजा तथा मनन आदि सम्पन्न करके दोपहर बाद लगभग 40 किमी दूर कैलाश परिक्रमा के आधार शिविर डारचन पर रात्रि विश्राम। दसवें दिन कैलाश परिक्रमा करते हुए डेरापुक पर रात्रि विश्राम। ग्याहरवें दिन डेरापुक से शिव स्थल, डोलमा पास होते हुए जुथुलपुक पर रात्रि विश्राम। बारहवें दिन जुथलपुक से लगभग 12 किमी तय करते हुए डारचन पर परिक्रमा सम्पन्न। रात्रि विश्राम मानसरोवर के पूर्व तट होरचू पर। तेरहवें दिन डारचन से प्रयांग। चैादहवें दिन प्रयांग से सागा । पन्द्रहवें दिन सागा से नयालाम। सोलहवें दिन नयालाम से काठमांडू। सत्रहवें दिन काठमांडू से दिल्ली।
34. एक और रास्ता काठमांडू से नेपालगंज, नेपालगंज से हवाईमार्ग से सिमीकोट, सिमीकोट से पैदल चलकर 4 दिन में नेपाल तिब्बत सीमा सेरा से तकलाकोट पहुंचा जा सकता है। हवाई यात्रा के लिए काठमांडू से हैलीकाप्टर द्धारा नेपालगंज और नेपालगंज से हैलीकाप्टर द्धारा सेरा और सेरा से गाड़ी द्धारा तकलाकोट होते हुए मानसरोवर पहुंचा जा सकता है।
35. कैलाश मानसरोवर मार्ग में खाने-पीने का विशेष ध्यान रखना पड़ता है इस क्षेत्र में शुष्कता की बहुतायत है। ठंड के कारण पूर्ण मात्रा में पानी पीने ओर नहाने में कठिनाई होती है। जिससे शरीर में पानी की कमी हो जाती है। जिसके कारण शारीरिक तकलीफ होती है। अतः शरीर को कम-से-कम 4 लीटर प्रतिदिन पानी की आवश्यकता होती है चाहे वह गर्म हो या ठंडा हो वह स्वंय की काया के अनुसार निर्णय करना चाहिए। खाने-पीने में हल्का आहार जैसे दाल, चावल, रोटी इत्यादि का ज्यादा सेवन करना चाहिए। तले हुए पदार्थ, ड्राईफ्रूट या ज्यादा घी वाले आहार का कम-से-कम सेवन करना चाहिए। शरीर स्वस्थ होने पर यात्रा का आनन्द कुछ और ही रहता है।
36. कैलाश् क्षेत्र का मौसम बड़ा ही विचित्र है, जोकि कभी भी बदलता रहता है इसलिए ठंड, बारिश और तेज हवा आदि से बचने की पूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिएं तेज हवा से बचने के लिए हल्के लेकिन हवारोधी कपड़े पहनने चाहिए। गर्म वस्त्रों की दो या तीन परत पहननी चाहिए। बारिश से बचने के लिए अच्छी बरसाती (रेन सूट) की व्यवस्था करनी चाहिए।
37. यहां पर अंग्रेजी दवाईयों का कम से कम सेवन करना चाहिए क्योंकि वह उस समय तो राहत देती है लेकिन बाद में ज्यादा तकलीफदेह होती हैं। लेकिन कुछ आवश्यक निजी दवाईयां साथ में अवश्य रखनी चाहिए।
(भू-लोक पर साक्षात शिवलोक)
कैलाश पर्वत देवादिदेव महादेव का पवित्र निवास स्थान है, जो कि समस्त सृष्टि के रचियता हैं । इसका वर्णन करने वाला भी उन्हीं की रचना का ही एक अंश है । इसलिए यह वर्णन जितना भी करो अपर्याप्त है।
2. कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र पृथ्वी का एक अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र है । इस क्षेत्र में ऐसी अदभुत शक्ति है कि जब दशर्नार्थी वहां पहुंचता है तो वह अदृश्य शक्ति वहां पर उसको प्रभावित करती है, क्योकि उस मनुष्य के अन्दर जो आत्मा विराजमान है, उसके मूल अंश परमात्मा का वह पवित्र निवास स्थल है। यहां की भूमि पवित्र और वायुमण्डल पवित्रतम है जो कि सर्वथा भिन्न है तथा जो एकाएक (अपने-आप) में मनुष्य को समाहित करने की शक्ति रखती है। यहां की वनस्पति दिव्य औषधियों से भी हुई है । यह सब देवाधिदेव महादेव के वहां विराजमान होने की ओर इशारा करती है। कैलाश के चारों ओर जो पहाड़ और पर्वत ऋंखलाएं हैं ये उन्हीं (शिवजी) के गण और सेवक जैसे प्रतीत होते है। (या यूं कहो कि गणों ने पर्वत का रूप धारण किया है।) दूर उॅंची-उॅंची हिमालय की चोटियां ऐसे प्रतीत होती है जैसो कि वे देवाधिदेव महादेव की उपासना में लीन है।
3. यहां की प्राकृतिक संरचनाएं हर पल परिवर्तित होकर मानव को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। सूक्ष्म शरीर में देवी-देवता, ऋषि-मुनि इस पवित्र स्थल में विचरण करते रहते हैं, जो कि इस स्थल की पवित्रता, शुद्धता को बनाए रखने में सहायक हैं।
4. कैलाश की तलहटी में दो विशालकाय झीलें (मानसरोवर एवं राक्षसताल) स्थित हैं। जो कि यह आवाज देतीं है कि ब्रहम्मानस के दो हिस्से हैं जो कि अच्छाई एवं बुराई कव प्रतीक हैं। कहते है कि एक बार ब्रहमाजी के पुत्रों ने अपने पिता की आज्ञानुसार भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए तप आरम्भ किया। उस समय इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना ऐसी थी कि यहां पर जल की कमी थी, इस कारण से वह शिव-पूजा के निर्मित शिवलिंग पर जल चढ़ाने में असमर्थ थे। इसके निवारण के लिए उन्होंने परमपिता ब्रहमाजी से प्रार्थना की तब ब्रहमाजी ने अपने मन से इस सरोवन की रचना की इसलिए इसका नाम मानसरोवर पड़ा अर्थात ऐसा सरोवन जिसकी रचना मन से की गई है मानसरोवर । मानसरोवर का पवित्र जल अमृत सदृष्य है और इसमें रहने वाले जीव स्वंय शिव स्वरूप है । मानसरोवर के चारों और बहुत सी पवित्र गुफाएं है जो दर्शनार्थियों को विश्राम देने के लिए काफी सहायक हैं । मानों प्रभु ने स्वंय अपने भक्तों के आराम की व्यवस्था की हो। मानसरोवर के दूसरे छोर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि कैलाश बिल्कुल उन्ही के किनारे में समाधिस्थ है और जब मानस शान्त होता है तो कैलाश जीम का प्रतिबिम्ब मानस में दिखलाई देता है। समय के साथ-साथ मानसरोवर के रंग रूप में परिवर्तन होता रहता है जो कि आते-जाते विचारों का घोतक है।
5. समीप ही स्थित राक्षसताल झील में यह अनुभव नहीं होता है क्योंकि इसे अशुद्धता का प्रतीक माना जाता है। हर पल इसका रंग गाढा नीला रहता है इसमें कोई जीव नहीं रहता है, जो एक उग्र तीक्ष्ण मानसिक प्रवृति का आभास कराता है। मानसरोवर और राक्षसताल के बीच में स्थित गुरला मानधाता एक चमकता हुआ उॅंचा पर्वत हैं जो कि अपने आप में एक सम्मान के साथ दोनों झीलों के किनारे में स्थित है। इससे यह प्रतीत होता है कि विवेक अच्छाई और बुराई का निर्णय करने वाला है।
6. कैलाश मानसरोवर क्षेत्र में चारों दिशाओं में चार नदियों का उदगम स्थल है जो संसार की चार दिशाओं से होकर समुद्र में जा मिलती है। दूर से देखने पर कैलाश विशाल मैदान में एक ज्योतिर्मय बिन्दु की तरह प्रतीत होता है ऐसा लगता है कि विषालकाय महाशून्य में एक ज्योति की उत्पति हुई है और जिससे सृष्टि की रचना होने वाली है।
7. इस पवित्र क्षेत्र से जैसे-जैसे वापिस नीचे आते है तो हिमालय से बहता सारा पानी, घने जंगल ऐसे प्रतीत होने हैं कि जैसे सृष्टि की रचना का आरम्भ हो गया है और नीचे मैदानों में आने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह सारा संसार उन्हीं की एक विशाल रचना है। यूं आभास होता है कि भगवान शंकर दूर कैलाश पर बैठ अपनी रचाई सृष्टि का अवलोकन कर रहे है।
8. देवाधिदेव महादेव परबृहमा हैं। यही कैलाश उनका निवास स्थान है इसलिए सारे देवी-देवताओं, अप्सराओं, किन्नर, यक्ष आदि का यहां आवागमन होता रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस स्थान में एक अद्भुभुत शक्ति है जो सबको अपनी ओर आकृर्षित करती है। जो दर्शनार्थी परमात्मा के जितना समीप होता है वह इस क्षेत्र से उतना ही प्रभावित होता है। इस क्षेत्र में पहुंचकर कोई तप नहीं कर सकता है क्योंकि जिसको पाने के लिए वह तपस्या करते है वह उन्हीं के पावन चरणों में पहुंच गया है क्योंकि वहां पहुंचना ही एक तपस्या है, जो अपने आपको तपस्या की ओर ले जाने को बाध्य करना है। इससे यह प्रतीत होता है कि तपस्या की नहीं जाती है वह स्वयं हो जाती है।
9. दर्शनार्थी चाहे कितना भी नास्तिक हो वह कैलाश से वापिस आने के बाद अपने आप को पूर्णतः परिवर्तित महसूस करता है । यह इस पवित्र भूमि का एक चमत्कार है मानों भगवान् शिव ने अपनी पवित्रता से जीव का माया रूपी मैल हटा दिया है । कैलाश से थोड़ा दूर स्थित भस्मासुर पर्वत (तीर्थपुरी) यह संकेत करता है कि बुराई जितनी भी शक्तिशाली हो उसका एक समय में अन्त निश्चित है ।
10. कैलाश की जो पवित्रता और चेतना है वह वहां के कण-कण में व्याप्त है। इसलिए हर कण शिव स्वरूप् है, जो भी प्राणी इस स्थान में पहुंच जाता है । वह भी शिव स्वरूप् हो जाता है, लेकिन अपने अहं के कारण वह इसे महसूस नहीं कर पाता है और प्रभु से दूर हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य में, उस रचनाकार की दी हुई, एक ऐसी शक्ति विघमान होती है जो कि अपने आप में एक बदलाव ला सके । कैलाश में जब दर्शनार्थी पहुंचता है तो यह पवित्र क्षेत्र इस परिवर्तन लाने में और सहायक सिद्ध होता है । यहां के पशु-पक्षियों में भी एक अलग तरह की समझ (ज्ञान) है, ऐसे प्रतीत होता है कि ये पशुपक्षी ना होकर पवित्र आत्माएं रूप बदलकर पशु रूप में विचरण कर रही है । मनुष्य इस क्षेत्र में पहुंचकर यदि अपने मान से इस स्थान की चेतना को अनुभव करने का प्रयास करें तो उसको निश्चित ही शिवलोक की प्राप्ति होने में देर नहीं लगेगी । क्योंकि वह स्वयं परमात्मा के (स्थान) चरणों में खड़ा है । आत्मा और परमात्मा में कोई दूरी नहीं है । उसका विवेक, मन, अहंकार, विचार परमात्मा से दूर करता है । मनुष्य अपने संस्कारों को बोरी बिस्तर की तरह जकड़े रहा है और इसे छोड़ना भी नहीं चाहता है । यहां प्रकृति हर क्षण में अपना रूप् बदलते हुए इस क्षेत्र की शोभा में चार चांद लगाती है । इस क्षेत्र में ना जाने कितने ऋषि मुनियों ने आकर तप किया और उस परमपिता परमात्मा में समाहित हो गये और उसका कोई अन्त नहीं है । उसकी समाज में कोई प्रतिष्ठा भी नहीं है क्योंकि उसका मूल उदेश्य परमात्मा में लीन होने का है।
11. कैलाश मानसरोवर क्षेत्र कल्पवृक्ष जैसा ही है, लेकिन यह कल्पवृक्ष सर्वथा भिन्न है। यहां जो आप मांगे वह नहीं मिलेगा वरन् आपको जो चाहिए (परमात्मा के दृश्टिकोण से) वह मिलेगा। दर्शनार्थी बहुत इच्छा-कामना लेकर पहुंचता है लेकिन अधिकांश की इच्छा-पूर्ति नहीं होती है परन्तु जो मनुष्य श्रद्धाभाव से यहां पहुंचता है वह अपने आप में अलग अनुभूति प्राप्त करता है जिसकी उसे उम्मीद ही नहीं थी। दर्शनार्थी जब कुछ मांगने की कोशिश करता है तो वह अपने सांसारिक जीवन की इच्छा पूर्ति करने के लिए ही मांगता है लेकिन जो मिलता है वह उसे शिव (परमात्मा) के चरणों में बहुत आगे तक पहुंचाने में सहायक होता है। दर्शनार्थी जब कैलाश मानसरोवर क्षेत्र में पहुंचता है तो यहां पर जो एक शक्तिशाली चेतना विधमान है वह उसे अनुभव नहीं कर पाता है क्योंकि वह अपने आपको बहुत परेशान महसूस करता है। एक तो वह संसार से बहुत दूर आ गया है जिस कारण वह बहुत भयभीत होता है विचलित होता है, दूसरे ठंड और आक्सीजन की कमी से बहुत परेशानी महसूस करता है। तीसरा खाने-पीने, रहने और बोलने-चालने की असुविधा के कारण हर समय परेशान रहता है जिसके कारण उसका मन बहुत विचलित रहता है और वह इस क्षेत्र के प्रभाव को नहीं जान पाता है। लेकिन उसका (शिव-कृपा का) प्रभाव जीव पर स्वतः ही होता रहता है वह जीव धुल जाता है और जब वह वापस आता है तो अपने आपको धुला (निर्मल) हुआ महसूस करता है। यही देवाधिदेव महादेव की कैलाश भूमि (शिवकृपा) का चमत्कार है।
12. आदमी शुद्ध विचार, शान्त मन लेकर अगर इस क्षेत्र में कुछ दिन रहे तो अपने आप को परमात्मा से कभी भी दूर महसूस नहीं करेगा। लेकिन मनुष्य के संस्कार इतनी आसानी से उसक पीछा नहीं छोडते हैं इसलिए इस स्थान पर पहुंच कर जीवन और ज्यादा विचलित हो जाता है जैसे एक तेज बहाव वाली नदी की मछली को एक शांत तालाब में छोड़ दिया हो।
13. कैलाश् यात्रा करने से पहले कैलाश् की तलहटी में तथा हिमालय की तलहटी में विराजमान देवी-देवताओं के मन्दिर में जाकर प्रार्थना करनी आवश्यक है ताकि उनकी यात्रा सफल हो। कैलाश यात्रा में एक बात का ध्यान रखना जरूरी होता है कि जहां तक संभव हो प्रतिदिन स्नान करें और पानी एवं अन्य तरल पदार्थ ज्यादा मात्रा में ग्रहण करें।
14. दर्शनार्थी जब तकलाकोट (तिब्बत) से मानस पहुंचते हैं तो सर्वप्रथम मानसरोवर की परिक्रमा करनी चाहिए। मानसरोवर की परिक्रमा लगभग 107 कि.मी. की है तथा इसे तीन दिन में पूरा करने की परंपरा है। आजकल तो यह परिक्रमा बस, ट्रक या जीप द्धारा कुछ घंटो में भी की जा सकती है। मानसरोवर के पश्चिम में च्यू गोम्पा से प्रारम्भ करके पूर्व में होरचू से दक्षिण में ठुगु गोम्पा होते हुए वापिस च्यू गोम्पा पर परिक्रमा पूर्ण होती है। होरचू से ठुगु गोम्पा की दूरी लगभग 50 किमी है और ठुगु से च्यू गोम्पा लगभग 69 किमी है। वहां स्नान, पूजन, परिक्रमा के बाद ही कैलाश की परिक्रमा करनी चाहिए।
15. दर्शनार्थी को मानसरोवर का पवित्र जल अपने साथ अवश्य लाना चाहिए। मानसरोवर के दक्षिण में गुरला मान्धाता पर्वत की तलहटी से कैलाश के दर्शन पूजा, स्नान आदि का बहुत महत्व है। मानसरोवर के इस तरफ से कैलाश जीम की बड़ी मनोहर छवि के दर्शन भी होते हैं और उनका प्रतिबिम्ब मानसरोवर में दिखलाई पड़ता है।
16. मानसरोवर में बहुत-सी छोटी-बड़ी नदियां आकर मिलती हैं लेकिन इसका जल मृत्यु लोक में नही जाता है क्योंकि यह अत्यन्त पवित्र झील है। यह आश्चर्य का विषय है कि इतनी बड़ी नदियों का इसमें कैसे समावेश हो जाता है। मानसरोवर की गहराई लगभग 600 फीट है, लम्बाई व चैड़ाई लगभग 22 किमी है। इसकी गोलाई लगभग 107 किमी है। मानसरोवर के पूर्व और पश्चिम में दो गर्म पानी के स्रोत हैं ऐसे स्रोत मानसरोवर के मध्य में भी हो सकते हैं। जिसके कारण अन्य झीलों और नदियों की तुलना में इसका जल अपेक्षाकृत गर्म है। इस झील में बहुत से जीव, राजहंस आदि विचरण करते हैं तथा किनारे में बहुत से जंगली जानवर विचरण करते हैं। इसमें स्नान करने के बाद दर्शनार्थी स्वयं को बहुत अल्का (पवित्र) महसूस करते हैं। ऐसा महसूस होता है कि न जाने कितने ही जन्मों के पाप उतर (धुल) गये हैं। इसके जल में एक अलग-सा पोषक तत्व है जो तन और मन दोनों को अपने आप में तृप्ति देने की क्षमता रखता है। आध्यात्मिक दृष्टि से और वैज्ञानिक दृष्टि से मानसरोवर का वर्णन करना सम्भव से परे है । मानसरोवर के किनारे के पहाड़-पर्वत, खनिज व रत्नों से भरपूर हैं ऐसे मानो कि कुबेर का खजाना यहां पर है।
17. कैलाश पर्वत मानसरोवर झील से पश्चिम दिशा में लगभग 40 किमी. दूर है। कैलाश पर्वत की दक्षिण दिशा में डारचन नामक स्थान है, यहां से परिक्रमा का आरम्भी और अन्त होता है। परिक्रमा कुल 52 किमी की है। परिक्रमा का मार्ग दक्षिण दिशा में डारचन से शुरू होकर पश्चिम दिशा में यमद्धार (तारबोचे), उत्तर में डेरापुक, पूर्व में डोलमा पास और दक्षिण में जुथुलपुक से होते हुए डारचन में समाप्त होती है। यह परिक्रमा साधारणतया 6 दिन में की जाती है। परन्तु शिव-कृपा से इसे 2 दिन में या एक दिन में भी पूर्ण कर सकते है।
18. परिक्रमा आरम्भ करने के बाद सर्वप्रथम यमद्धार (तारबोचे) नामक स्थान आता है जोकि डारचन से लगभग 10 किमी दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है । यात्रा के दौरान इस द्धार से गुजरना अनिवार्य है । कहते है इस यमद्धार से गुजरने के बाद मनुष्य की असमय और अस्वभाविक मृत्यु नहीं होती। तिब्बती भाषा में इस स्थल को तारबोचे कहते हैं। 12 साल के बाद यहीं पर ध्वजारोहण का कार्यक्रम होता है। यहां से कैलाश जीम के भव्य दर्शन होते हैं मानो भोलेनाथ एक उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं। यहां से थोड़ा सा आगे चलने पर बायीं और गोम्पा है।
19. यमद्धार से 11-12 किमी चलने के बाद डेरापुक पहुंचते हैं। परिक्रमा मार्ग के दायें हाथ की तरफ कैलाशजी हैं और बायें हाथ की तरफ अन्य पर्वत हैं बीच में एक गलियारा सा है और यही परिक्रमा का मार्ग है। मार्ग में साथ-साथ नदी बहती है जिसमें आस-पास की चोटियों से और कैलाश से उतरता हुआ पवित्र जल आकर मिलता है। यह अमृत तुल्य है। यूं प्रतीत होता है मानों भोलेनाथ का अभिषेक करने के बाद यह पवित्र जल नदी में आ मिला है। यह सारा रास्ता लगभग समतल है। थोड़े बहुत उॅंचे-नीचे टीले मार्ग में आते हैं। डेरापुक पर पहले दिन का रात्रि विश्राम करते है।
20. डेरापुक कैलाश के उत्तर दिशा में स्थित है यहां से कैलाश जी के सबसे सुन्दर, भव्य और अत्यन्त नजदीक से दर्शन होते हैं। यहां से लगभग 2 धण्टे की दूरी तय करके कैलाशजी के चरणों में पहुंचा जा सकता है। परन्तु इसके लिए प्रभु की अनुमति तथा कृपा अत्यन्त आवश्यक है।
21. दूसरे दिन डेरापुक से चलने के बाद शिव स्थल होते हुए डोलमा पास पर पहुंचते है। यह पवित्र स्थल समुद्र तल से लगभग 19,500 फीट उॅंचा है तथा परिक्रमा मार्ग का सबसे उॅंचा स्थान है। यहां पर ऑक्सीजन की कमी होती है तथा थोड़ा-सा चलते ही सांस फूलती है। यहां पर ठंड भी अत्याधिक होती है। हवा का वेग भी अधिक होता है। डेरापुक से डोलमा पास लगभग 5 किमी दूर है परिक्रमा मार्ग में यह चढाई, आक्सीजन की कमी के कारण, थोड़ी सी कठिन लगती है। परन्तु शिव भोले को पुकारने पर उनके गण आकर इस चढाई को बड़ी आसानी से पूरा करवा देते हैं। परिक्रमा मार्ग में डोलमा पास पर ही पूजा करने की परंपरा है। यहां पर एक उॅंची शिला है और यहीं पर पूजा करने की परम्परा है। तिब्बती भाषा में इस स्थान को डोलमा कहते हैं और हिन्दू धर्म में इस पवित्र स्थान को मां तारा देवी की स्थान कहते हैं। यह पवित्र स्थल शक्ति पीठ है (तारा देवी शक्ति पीठ) यहीं से कैलाश जी के पूर्व मुख के दर्शन होते हैं। सीधे हाथ की तरफ कैलाश जी के पूर्व मुख के दर्शन और बांये हाथ की तरफ पवित्र तारा मां की शक्ति पीठ। ऐसा पवित्र मेल शायद ही कहीं हो। यहां आकर मन को बड़ी शान्ति मिलती है। डोलमा पास से थोड़ा आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ पर कैलाश जी की तलहटी में पवित्र गौरी कुण्ड है। अगर मां की अनुमति मिले तो इस कुण्ड में स्नान अवश्य करना चाहिए ओर इस पवित्र कुण्ड का जल अपने साथ अवश्य लाना चाहिए। डोलमा पास से आगे बढ़ने पर लगभग 7 किमी की उतराई है। रास्ते में ग्लेशियर हैं अतः यहां पर थोड़ी सावधानी से चलते रहना चाहिए। यहां से आगे का मार्ग समतल है। नरम मुलायम घास और पास बहती नदी। डोलमा पास पार करने के बाद वापिस डारचन पहुंचने तक कैलाश जी के दर्शन नहीं होते क्योंकि हमारे दाहिने हाथ की तरफ उॅंचे पहाड़ और उनके पीछे कैलाश महाराज विराजमान हैं।
22. लगभग 15 किमी दूर जुथुलपुक नाम स्थान आता है। यहां पर दूसरे दिन का रात्रि विश्राम करते है।
23. तीसरे दिन जुथुलपुक (जोंगजेरबु) से वापिस डारचन पहुंचते हैं यह दूरी लगभग 11 किमी है पूरा रास्ता समतल है और थोड़ी-थोड़ी ढलान है।
24. कैलाश परिक्रमा एक नदी के किनारे से प्रारम्भ होती है और दूसरी नदी के किनारे पर समाप्त होती है। यह नदियां कैलाश और आसपास के पर्वतों से आती हैं और राक्षसताल में जाकर मिलती हैं। कैलाश की आकृति पंचाकोण आकृति है जोकि पंचानन अर्थात् शिवजी के पांच मुखों का प्रतीक है। ये 5 मुख इस सृष्टि के आधारभूत पंचतत्वों, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि के प्रतीक हैं। इन्ही के संयोग से इस शरीर के रचना होती है जोकि परमात्मा के अंश के कारण जीवंत हो उठता है। मृत्यु के बाद ये पंच तत्व वापिस उन्ही मे समाहित हो जाते हैं - आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।
25. कैलाश परिक्रमा के मार्ग में हर कोण से कैलाश की ओर नजदीक जा सकते हैं लेकिन काफी धैर्य और हिम्मत रखनी पड़ती है। मार्ग दुर्गम है और कठिनाइयों से पूर्ण है। दक्षिण दिशा से कैलाश की ओर जाने के लिए डारचन से नदी के किनारे जाने का रास्ता है। डरचन में जो नदी है वह कैलाश पर्वत से ही आ रही है । कुछ दूर चलने के बाद कैलाश जीम के भव्य दर्शन होते हैं। कैलाश पर्वत के सामने नन्दी पर्वत तथा बायीं ओर अष्टापद पर्वत है। यहां एक अलग तरह से द्रान के आनन्द की अनुभूति होती है।
26. कैलाश परिक्रमा के बाद नन्दी परिक्रमा भी कर सकते हैं। नन्दी परिक्रम में कैलाश और नन्दी जीम के बीच में से होकर जाना पड़ता है। जिससे कैलाश स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त होता है। नन्दी जीम के सामने बायीं तरफ अष्टापद पर्वत है जोकि जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव जी का निर्वाण स्थल है। कैलाश पर कोई मंन्दिर नहीं है लेकिन पूरा पर्वत अपने आप में एक मन्दिर जैसा ही है। इसके अन्दर बहुत बड़ी-बड़ी गुफाएं हैं जिसमें बहुत से ऋषि-मुनि वहां तपस्या कर चुके हैं।
27. भीतरी (इनर) परिक्रमा कैलाश के सबसे नजदीक से होती है। जिसमें कई पहाड़ियां छूट जाती है और सिर्फ कैलाश से जुड़ी हुई पहाड़ियों के साथ-साथ परिक्रमा होती है। डारचन से अष्टापद के किनारे से होते हुए डेरापुक पहुंचते हैं। डेरापुक से खण्डेसांगलुम होते हुए जुथुलपुक पहुंचते हैं। भीतरी परिक्रमा में गौरी कुण्ड और डोलमा के दर्शन नहीं होते है जोकि केवल बाहरी परिक्रमा में होते हैं। भीतरी परिक्रमा में कैलाश से आने वाली नदी को ही पार करके जा सकते हैं, दूसरी किसी नदी को पार करके जाना उचित नहीं है।
28. कैलाश में बहुत सालों से बौद्ध धर्मावलंबियों का निवास है इसलिए बौद्ध धर्मावलम्बी इस स्थान के हर पहाड़, हर स्थान के बारे में अलग- अलग कहानी कहते हैं। हिन्दू धर्मावलम्बी अधिक दिन तक वहां नहीं रह पाते हैं इसलिए उन्हें अधिक जानकारी नहीं है, अतः बौद्ध धर्मावलम्बियों के कथनों को ही मानना पड़ता है। कैलाश को हिन्दू, बौद्ध और बोम्बो धर्म के सर्वोच्च तीर्थ के रूप में मानते हैं और मूल शक्ति का निवास स्थान मानते हैं।
29. आजकल कैलाश-मानसरोवर जाने की काफी सुविधा हो गई है। पैदल सड़क और हवाई मार्ग जैसा सामर्थ्य (प्रभु-कृपा) हो उसी साधन से कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर जाया जा सकता है।
30. कैलाश मानसरोवर तिब्बत में स्थित है और तिब्बत पर चीन सरकार का आधिपत्य है। इसलिए कैलाश मानसरोवर जाने के लिए चीन सरकार से वीजा लेना पड़ता है, इसके लिए पासपोर्ट होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ होने के कारण चीन सरकार भारतीय तथा नेपाली श्रद्धालुओं को लोकल परमिट भी जारी करती है। जिसका प्रयोग प्रायः पैदल जाने वाले साधु-संत तथा अन्य लोग करते हैं लेकिन इसकी सरकारी कागजी कार्यवाही बहुत जटिल और कष्टप्रद है।
31. कैलाश मानसरोवर जाने के लिए बहुत से मार्ग है। भारतवासियों के लिए भारत सरकार का विदेश मंत्रालय, कुमाउॅं मंडल विकास निगम के सहयोग से इस यात्रा का आयोजन करती है। हर साल जनवरी-फरवरी में विदेश मंत्रालय द्धारा मुख्य समाचार पत्रों तथा दूरदर्शन के माध्यम् से आवेदन आमंत्रित किये जाते है इसके बाद मंत्रालय द्धारा ड्रा निकाला जाता है और भाग्यशाली यात्रियों के 16 जत्थे (बैच) बनाये जाते हैं। प्रत्येक जत्थे में 60 यात्रियों को अनुमति प्रदान की जाती है। वीजा़ आदि की व्यवस्था मंत्रालय द्धारा की जाती है। इसके साथ ही कुमाऊं मंडल विकास निगम बाकी सारा कार्य सभांलती है। दिल्ली से लेकर पुलेख पास और वापिस दिल्ली तक भोजन, रहने और यातायात आदि की व्यवस्था कुमाऊं मंडल विकास निगम करती है। प्रत्येक पड़ाव पर निगम के अपने विश्रामालय हैं । जिसमें समुचित प्रबन्ध होते हैं।
पहला दिनः- शारीरिक जांच के लिए दिल्ली में मंत्रालय द्धारा निर्धारित अस्पताल में निर्धारित टेस्ट करवाए जाते हैं। जैसेः-
1. RDT, LTC, DLC, HB.
2. Urine-(a) Re-Albumin Sugar(b) Microscopic.
3. Stool –Re.
4. Blood-sugar,Rasting-PP Urea-Creatinine, Seru Bilurubin, Blood Group.
5. Chest X-ray.
6. Tread Mill Test.
यात्रा पर जाने के इच्छुक भक्तों को यह सब परीक्षण करवाकर सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उनका शरीर पूर्णतया स्वस्थ है, ताकि दिल्ली में आने के बाद परीक्षणों में कोई कमी होने से उन्हें कठिनाई न हो। परीक्षणों में कमी होने पर आईटीबीपी. द्धारा यात्रा करने की अनुमति नहीं मिलती है। इसके साथ ही प्रत्येक दर्शनार्थी को अपने रक्तचाप (ब्लड प्रेषर) का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि अधिक ऊॅचाई वाले क्षेत्रों में जाने पर रक्तचाप थोड़ा बढ जाता है।
दूसरा दिन:-
विदेश मंत्रालय (साउथ ब्लाक) में अधिकारीगण यात्रा के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं और वीजा आदि की औपचारिकता पूरी की जाती है।
तीसरा दिनः-
आईटीबीपी. के बेस अस्पताल (खानपुर-दिल्ली, बत्रा अस्पताल के सामने) में दर्शनार्थी की शारीरिक जांच की जाती है और परीक्षणों (टेस्ट रिपोर्टो) की भी जांच पड़ताल की जाती है। इन सब का मुख्य उद्देश्य यात्री को आने वाली तकलीफों से बचाना क्योंकी अधिक ऊॅचाई (हाई एटीच्यूट) वाले क्षेत्रों में उच्च रक्तचाप, शुगर आदि से बड़ी तकलीफें होती हैं।
चौथा दिनः-
दर्शनार्थी बैब जाकर डालर खरीदते हैं । तिब्बत जाकर डॉलर को फिर युआन (चीनी करंसी) में बदला जाता है।
पॅाचवां दिनः-
यात्रा का शुभारंभ होता है और यात्री कुमाऊं मंडल विकास निगम की बसों के द्धारा मुरादाबाद, रामपुर, हल्द्धानी, काठगोदाम होते हुए अल्मोड़ा पहुंचते है । दिल्ली से अल्मोड़ा की दूरी लगभग 370 किमी है।
छठा दिन:-
यात्री अल्मोड़ा से पिथौरागढ़ होते हुए बागेश्वर पहुंचते हैं। बागेश्वर एक प्राचीन तीर्थ है। यह गोमती और सरयू नदी के संगम पर बसा छोटा सा शहर है। यहां पर भगवान शंकर ने बाघ का रूप् धारण कर विचरण किया था इस लिए इस शहर का नाम बागेश्वर पड़ा। संगम के किनारे पर सन 1602 में बना बाघनाथ का प्राचीन मंदिर है। यहां से आगे चलकर चकौरी होते हुए धारचूला पहुंचते हैं। यह दूरी लगभग 270 किमी की है। धारचूला इस यात्रा का बेस कैम्प है । धारचूला काली गंगा के किनारे घाटी में बसा छोटा सा शहर है तथा नदी के उस पार नेपाल है।
सातवां दिन:-
धारचूला से बस द्धारा तवाघट (19 किमी) या मंगती पहुंचा जाता है और यहां से पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है। तवाघाट से थाणीधार, पांगू होते हुए लगभग 20 किमी की दूरी तय कर यात्री सिरखा (समुद्रतल से ऊचाई 8,450 फीट) पहुंचते हैं। पांगू गांव से सिरखा गांव तक पहुंचने के लिए एक अन्य रास्ता भी है जो नारायण आश्रम होकर पहुंचता है इसके लिए 03 किमी अधिक चलना पड़ता है।
आठवां दिनः-
आज की मंजिल गाला (समुद्रतल से ऊंचाई 8,050 फीट) है। गाला-सिरखा से 16 किमी की दूरी पर स्थित है। यह सारा रास्ता पहाड़ी बनस्पतियों तथा पेड़ों से भरपूर है। रास्तें में 10,050 फीट उॅचा रंगलिंग पास पड़ता है। चढ़ाई उतराई के बाद सिमोलखा गांव होते हुए गाला कैंप पहुंचते हैं।
नौवां दिनः-
आज की मंजिल बुद्धि है। गाला से बुद्धि की दूरी 18 किमी है गाला से चलते ही 4,444 सीढ़ियां उतरकर लखनपुर आता है और यहां से नदी पार करके मालपा, लामारी होते हुए बुद्धि पहुंचते हैं। यह पूरा रास्ता काली नदी के किनारे है। लखनपुर से लेकर मालपा तक रास्ता संकरा है अतः दर्शनार्थी को यहां सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए।
दसवां दिनः-
आज का पड़ाव गूंजी है। यह आईटीबीपी. का अन्तिम बेस कैंप है। बुद्धि से गूंजी (समुद्रतल से ऊचाई 10,624 फीट) की-छिया लेक, गर्बयांग होते हुए दूरी लगभग 22 किमी है। यहां पर आईटीबीपी. के डाक्टर दोबारा रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) की जांच करते हैं और रक्तचाप अधिक होने या अन्य शारीरिक कमी होने पर यहां से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं मिलती है।
ग्याहरवां दिनः-
इस दिन यात्री गुंजी से कालापानी (समुद्रतल से ऊचाई 11,880 फीट) पहुंचता है। यह दूरी लगभग 10 किमी है तथा यहां भगवान शिव और मां काली का मंन्दिर है। जिसकी देखभाल आईटीबीपी. के जवान करते हैं। काली नदी का उदगम इसी स्थल से होता है।
बारहवां दिनः-
बारहवें दिन की मंजिल नाबीढांग है। यहां भारतीय क्षेत्र में आईटीबीपी. की अन्तिम चौकी है। समुद्रतल से इस स्थान की उॅचाई 14,220 फीट है यह दूरी लगभग 09 किमी है। इसी स्थान से ही पश्चिम दिशा में ओम पर्वत के दर्शन होते है।
तेरहवां दिन:-
आज की मंजिल तकलाकोट (तिब्बत) है। इस दिन की यात्रा सुबह 3.30 बजे प्रारम्भ होती है। लगभग 08 किमी की कठिन चढ़ाई करके लगभग 06 बजे तक लिपूलेख पास 16,730 फीट पर पहुंचते हैं यहीं से दर्रा (पास) पार करके तिब्बत में प्रवेश करते हैं। लगभग 05 किमी की उतराई (पैदल या घोड़े द्धारा) के बाद, लगभग 02 घंटे की बस यात्रा करके तकलाकोट पहुंचते हैं। तकलाकोट में पहुंचने के बाद चीनी अधिकारियों द्धारा वीजा और कस्टम आदि की औपचारिकताएं पुरंग गैस्ट हाउस में ही पूरी की जाती हैं।
चैदहवां दिनः-
यह दिन तकलाकोट में विश्राम का दिन है तथा इसी दिन डालर के बदले में युआन लिए जाते हैं।
पन्द्रहवां दिनः-
आज का दिन बड़ा ही शुभ है क्योंकि तकलाकोट से लगभग 100 किमी की दूर तय करने के बाद पवित्र मानसरोवर और कैलाश के प्रथम दर्शन होते हैं तथा रात्रि विश्राम मानसरोवर के पश्चिम तट पर च्यू गोम्पा के पास स्थित गैस्ट हाउस में होता है।
सोलहवां दिनः-
मान परिक्रमा के लिए बस द्धारा च्यू गोम्पा से बरघा होते हुए सर्वप्रथम पूर्व दिशा में हरिचू (हरि), हरिचू से पश्चिम दिशा में डुगू गोम्पा पहुंचते हैं। यहां से कैलाश का पूर्ण प्रतिबिम्ब मानसरोवर में दिखलाई देता है। स्नान आदि के पश्चात दर्शनार्थी परिक्रमा पूर्ण करते हुए वापिस च्यू गोम्पा पर स्थित गेस्ट हाउस में पहुंचते हैं। पवित्र मानस का जल डुग से लेना ज्यादा उचित है।
सत्रहवां दिनः-
यह दिन हवन पूजा एवं मनन आदि के लिए निर्धारित है।
अठारहवां दिन:-
मानसरोवर से बस द्धारा लगभग 40 किमी दूर कैलाश परिक्रमा के आधार-शिविर पर पहुंचते हैं। अगर समय मिले तो डारचन से अष्टापद अवश्य जाना चाहिए, यहां से कैलाश के दक्षिण मुख के भव्य दर्शन होते हैं तथा यहीं से नन्दी परिक्रमा का मार्ग है।
उन्नीसवां दिनः-
आज कैलाश परिक्रमा (शिव परिवार की परिक्रमा) का शुभारम्भ है। ट्रक या बस द्धारा लगभग 10 किमी दूर यमद्धार पहुंच कर वहां से पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है और लगभग 11 किमी की दूरी पैदल या याक द्धारा तय करके रात्रि विश्राम डेरापुक पर करते हैं।
बीसवां दिनः-
डेरापुक से चलकर शिवस्थल होते हुए डोलमा पास पर पूजा करके और गौरी कुण्ड के दर्शनों के पश्चात लगभग 24 किमी दूर जोंगजरेबू (जुथुलपुक) पर रात्रि विश्राम करते हैं।
इक्कीसवां दिनः-
जोंगजरेबू से लगभग 11 किमी पैदल चलकर शिव-कृपा से डारचन पर परिक्रमा सम्पन्न। समय मिलने पर अष्टपद के पुनः दर्शन।
बाईसवां दिनः-
डारचन से चलकर मानसरोवर पर शिव-कृपा के लिए धन्यवाद करते हुए वापिस तकलाकोट।
तेइसवां दिनः-
तकलाकोट से खोचरनाथ (राम दरबार को समर्पित बौद्ध गोम्पा) दर्शन एवं वापिस तकलाकोट आकर रात्रि विश्राम पुरंग गेस्ट हाउस।
चैाबीसवां दिनः-
तकलाकोट से गूंजी।
पच्चीसवां दिनः-
गूंजी से बुद्धि।
छब्बीसवां दिनः-
बुद्धि से गाला।
सताईसवां दिन:-
गाला से सिरखा।
अटठाईसवां दिन:-
सिरखा से धारचूला।
उन्नतीसवां दिन:-
धारचूला से अल्मोड़ा।
तीसवां दिनः-
अल्मोड़ा से दिल्ली।
32. कैलाश-मानसरोवर जाने के लिए अन्य मार्ग काठमाण्डू से है। इस यात्रा के लिए नेपाल तथा भारत में स्थित ऐजेन्टों की मदद आवश्यक है। यह यात्रा लगभग 18 दिन में पूर्ण होती है। इसमें ग्रुप वीज़ा तथा अन्य सारी व्यवस्थायें एजेन्ट करते हैं। इस मार्ग में शारीरिक जांच की कोई औपचारिकता नहीं है। परन्तु अपनी सुविधा के लिए प्रत्येक यात्री को अपनी शारीरिक जांच अवश्य करा लेनी चाहिए क्योंकि भारत और तिब्बत के मौसम में बहुत भिन्नता है। तिब्बत का मौसम शुष्क और ठण्डा है। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र समुद्रतल से लगभग 150000 फीट से लेकर 19500 फीट पर स्थित है इस लिए तन और मन दोनों की तन्दुरूस्ती अन्यन्त आवश्यक है।
33. सर्वप्रथम यात्री काठमांडू पहुंचते हैं। यहां पर 02 दिन (पशुपतिनाथ के दर्शन तथा काठमांडू भ्रमण) के बाद तीसरे दिन सुबह बस द्धारा लगभग 113 किमी दूर नेपाल तिब्बत सीमा कोदारी पर पहुंचते हें। यहां पर कागजी कार्यवाही करने के बाद तिब्बत में प्रवेश करते हैं और फिर लैण्डक्रूज़र जीप से जंगमू होते हुए नयालाम पहुंचते हैं। यहां पर मौसम के अनुरूप शरीर को ढालने के लिए एक दिन का विश्राम करते हैं। पांचवे दिन लैण्डक्रूज़र से लगभग 270 किमी का कठिन सफर करके सागा, छठे दिन फिर लगभग 260 किमी का कठिन सफर तय करके प्रयांग और सातवें दिन फिर लगभग 270 किमी का कठिन सफर तय करके पवित्र मानसरोवर के किनारे पूर्व दिशा में होरचू पहुंचते हैं। आठवें दिन मानसजी की परिक्रमा लैण्डक्रूजर द्धारा सम्पन्न की जाती है। नवें दिन हवन, पूजा तथा मनन आदि सम्पन्न करके दोपहर बाद लगभग 40 किमी दूर कैलाश परिक्रमा के आधार शिविर डारचन पर रात्रि विश्राम। दसवें दिन कैलाश परिक्रमा करते हुए डेरापुक पर रात्रि विश्राम। ग्याहरवें दिन डेरापुक से शिव स्थल, डोलमा पास होते हुए जुथुलपुक पर रात्रि विश्राम। बारहवें दिन जुथलपुक से लगभग 12 किमी तय करते हुए डारचन पर परिक्रमा सम्पन्न। रात्रि विश्राम मानसरोवर के पूर्व तट होरचू पर। तेरहवें दिन डारचन से प्रयांग। चैादहवें दिन प्रयांग से सागा । पन्द्रहवें दिन सागा से नयालाम। सोलहवें दिन नयालाम से काठमांडू। सत्रहवें दिन काठमांडू से दिल्ली।
34. एक और रास्ता काठमांडू से नेपालगंज, नेपालगंज से हवाईमार्ग से सिमीकोट, सिमीकोट से पैदल चलकर 4 दिन में नेपाल तिब्बत सीमा सेरा से तकलाकोट पहुंचा जा सकता है। हवाई यात्रा के लिए काठमांडू से हैलीकाप्टर द्धारा नेपालगंज और नेपालगंज से हैलीकाप्टर द्धारा सेरा और सेरा से गाड़ी द्धारा तकलाकोट होते हुए मानसरोवर पहुंचा जा सकता है।
35. कैलाश मानसरोवर मार्ग में खाने-पीने का विशेष ध्यान रखना पड़ता है इस क्षेत्र में शुष्कता की बहुतायत है। ठंड के कारण पूर्ण मात्रा में पानी पीने ओर नहाने में कठिनाई होती है। जिससे शरीर में पानी की कमी हो जाती है। जिसके कारण शारीरिक तकलीफ होती है। अतः शरीर को कम-से-कम 4 लीटर प्रतिदिन पानी की आवश्यकता होती है चाहे वह गर्म हो या ठंडा हो वह स्वंय की काया के अनुसार निर्णय करना चाहिए। खाने-पीने में हल्का आहार जैसे दाल, चावल, रोटी इत्यादि का ज्यादा सेवन करना चाहिए। तले हुए पदार्थ, ड्राईफ्रूट या ज्यादा घी वाले आहार का कम-से-कम सेवन करना चाहिए। शरीर स्वस्थ होने पर यात्रा का आनन्द कुछ और ही रहता है।
36. कैलाश् क्षेत्र का मौसम बड़ा ही विचित्र है, जोकि कभी भी बदलता रहता है इसलिए ठंड, बारिश और तेज हवा आदि से बचने की पूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिएं तेज हवा से बचने के लिए हल्के लेकिन हवारोधी कपड़े पहनने चाहिए। गर्म वस्त्रों की दो या तीन परत पहननी चाहिए। बारिश से बचने के लिए अच्छी बरसाती (रेन सूट) की व्यवस्था करनी चाहिए।
37. यहां पर अंग्रेजी दवाईयों का कम से कम सेवन करना चाहिए क्योंकि वह उस समय तो राहत देती है लेकिन बाद में ज्यादा तकलीफदेह होती हैं। लेकिन कुछ आवश्यक निजी दवाईयां साथ में अवश्य रखनी चाहिए।
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