Tuesday, January 21, 2020

शरदकालीन छोदपा सौजन्य पद्मा टिंले

शरदकालीन छोदपा

 विश्व भर में भिन्न-भिन्न देशों, प्रांतों और भागों में अनेक त्यौहार मनाए जाते हैं। नई उमंगो, उत्साहो के साथ इन पर्वों का इंतजार करते हैं। ये मेले एवं त्यौहार ऐसी ऐतिहासिक एवं सामाजिक घटनाएं होती है, जहां लोग अपनी खुशियों को परस्पर वांटते हैं। ये तीज-त्यौहार प्रायः फुर्सत के क्षणों में मनाए जाते हैं। सामाजिक जीवन में भी इनका विशेष महत्व रहता है। इन त्योहारों के आयोजन के पीछे धार्मिक आस्था हो या समाजिक, सांस्कृतिक पहलू। वास्तव में (लोक) जन भावना ही सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों को समृद्ध करने तथा जीवन को गतिशील बनाए रखने में सहायक होती है। यद्यपि इन उत्सवों के पीछे कुछ ना कुछ ऐतिहासिक कारण तो होते ही हैं। इनकी सार्थकता तभी सिद्ध होती है जब हम इन मेलों को यथावत- पूर्ववत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। ये मेले एवं त्यौहार हमारे समाज की प्राचीन सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विशिष्टता और विविधता को अभिव्यक्त करते हैं। आज संभवत इनका महत्व न्यूनाधिक घट गया हो परंतु प्राचीन समय में ये मेले हमारी सांस्कृतिक पहचान, धार्मिक आस्था और जीवनशैली का महत्वपूर्ण साधन थे। इन त्योहारों के माध्यम से ही अमुक समाज की शिक्षा, धार्मिक परंपरा, जीवनशैली, समृद्ध संस्कृति आदि का दिग्दर्शन एवं आकलन किया जा सकता है।

लाहुल घाटी में भागा उपत्यका में स्थित खंङसर ग्राम जो पुराने समय में रजवाड़ों की राजधानी रही थी। उसी राजघराने में "छोदपा" नाम से अभिहित मुखौटा नृत्योत्सव को प्रतिवर्ष दो बार मनाया जाता है। ग्रीष्मकालीन एवं शरदकालीन छोदपा को स्थानीय लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते रहे हैं।

 खंङसर राजघराने में "ग्रीष्मकालीन छोदपा" भोटपंचांग अनुसार सातवें मास की पूर्णिमा तथा "शरदकालीन छोदपा" दूसरे मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। शरद ऋतु के छोदपा मुखौटा नृत्योत्सव की पूर्व संध्या अर्थात चतुर्दशी को खंङसर खर (राजमहल) से कतिपय लोग जिसमें लहब्दगपा (देव पूजक) दमनपा (नगाड़ा वादक) और कुछ गीतकारों की टीम सारंङ गांव में वोनपो (ज्योतिषशास्त्री) के आमंत्रण हेतु तथा सारंङ गांव में आम जनता को प्रवेश दिलाने हेतु जाती है। जिसे "छू" के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि लोसर (नववर्ष) के पश्चात साऱङ गांव (देवथान) तथा सारंङ से खंङसर तक की ऊपरी पगडंडी को देव स्थल मानते हुए जन आवागमन बंद कर दिया जाता है। "छू" हेतु जाने वाली टोली अपने साथ सारंङ योगमा के घर प्रतिष्ठापित  धर्मपाल के पूजार्थ दीपक प्रज्वलन के निमित्त घी और कपड़े का टुकड़ा (रेखा) ले जाते हैं।

इस दिन सारंङ पगपा के आंगन में सभी गांव वाले एकत्रित होते हैं। "छू" की टीम का स्थानीय अंदाज में फूल भेंट कर स्वागत किया जाता है। सर्वप्रथम स्थानीय लौकिक देवताओं की पूजा की जाती है। तदनन्तर  "छू"  में आए लोगों के साथ ग्रामवासी भी सम्मिलित होकर "तोङरोग गीत" (गोलाकार पंक्तिबद्ब आपस में हाथ पकड़कर गीत गाते हुए नृत्य) पर नृत्य किया जाता है। रात के समय सारंङ पगपा और बरजिगपा के घर सभागत मेहमानों का अतिथि सत्कार होता है। सभी ग्रामवासी भी इस टीम के साथ रात्रि आयोजन में सम्मिलित होते हैं। हर एक घर से कल्छोर (शगुन हेतु अरक) लाया जाता है। लोसर के दौरान गाए जाने वाले "ल्हरज्ञस" गीतों को भी सभी मिलकर गाते हैं। छङ, अरक आदि पेय पदार्थों का आनंद लेते हैं। स्वादिष्ट भोजन भी परोसा जाता है। दूसरे दिन सुबह 'वोनपो'  के आगमन से पूर्व "छू" की टीम पुनः खर की ओर वापिस लौट जाती है।

 पूर्णिमा के प्रातः "वोनपो" सारंङ से कुछ लोगों के साथ खंङसर खर की ओर प्रस्थान करते हैं। खंङसर खर की छत पर दो ढोल वादक उनके आगमन पर स्वागत राग (लमरग) बजाते हैं। वोनपो भी अपने घर से पूजनार्थ घी, तेल और कपड़े का टुकड़ा (रेखा) लेकर जाते हैं। वोनपो के आगमन के पश्चात राजभवन के गृहतल में बुद्बशासन की अभिवृद्धि एवं राजभवन की परिरक्षा हेतु प्रतिष्ठापित धर्मपालिका इष्ट देवी दीर्घायुष्मती की प्रतिमा के अंधेरे कक्ष के द्वार को खोला जाता है। साथ ही उत्तर दिशा में खुलने वाली खिड़की को भी खोला जाता है। वोनपो, कोमञेर (पुजारी) आदि कुछ लामागण इष्ट देवी की पूजा- अर्चना बौद्ब तांत्रिक-अनुष्ठान विधि से करते हैं। सभी मुखोटों को बंद कमरे में मौजूद लकड़ी के सन्दूकों से निकाला जाता है। सभी को कपड़ों से साफ कर मक्खन मल कर सजाया जाता है। सभी नर्तकों को विशेष प्रकार के परिधानों को पहनाकर तैयार करवाया जाता है। पूजा-पाठ के पश्चात "वोनपो" नृत्योत्सव के शुभारंभ का आदेश देता है। "ग्रीष्मकालीन छोदपा" के संबंध में कुछ वर्ष पूर्व 'कुन्जोम" नामक पत्रिका में छप चुका है। उसमें ग्रीष्म और शरद ऋतु दोनों के दौरान एक समान नृत्यों के  मंचन के संबंध में विस्तार से वर्णन किया गया है। अतः यहां फु छोदपा नृत्य और कोको छोमो नृत्य के बारे में अधिक लिखा जाएगा
1  फु छोदपा नृत्य
जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है कि फु  छोदपा नृत्य का मंचन दोनों ऋतुओं में किया जाता है। इस नृत्य के दोनों ऋतुओं में अभिनीत शैली में लेशमात्र भी अंतर नहीं है। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में विशेषतः हिमालय क्षेत्र में जब मानव का उद्भव हुआ था तो बोधिसत्व पिता कपि और मां राक्षसनी के संसर्ग से संतानों की उत्पत्ति हुई। इसी के आधार पर इस नृत्य को अभिनीत किया जाता है।

2. ञिलदापा नृत्य

ग्रीष्म ऋतु में हिम सिंह और वानर नृत्य होता है परंतु शरद ऋतु में इसके स्थान पर ञिलदापा मुखौटा नृत्य होता है। इस समय लाहुल बर्फ से आच्छादित होता है। इस नृत्य में सात मुखौटाधारी नर्तक होते हैं - पहला बुजुर्ग मुखौटाधारी, दो रास्ता लगाने वाले (लमशगपा), एक तीर फेकने वाला (ञिलदापा)  दो अन्य धनुर्धारी (बोस-बोस छे छुङ) और अंत में एक नारी मुखौटाधारी (करमोकर)।

 श्री लालचंद प्रार्थी द्वारा प्रणीत 'कुलूत देश की कहानी' और श्री पदमचंद्र कश्यप ने "कूलुई लोक साहित्य" में महाभारत से जुड़ी पौराणिक जनश्रुति एवं किंबदन्ती का जिक्र किया है। उस किंबदंती के अनुसार महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और यदुवंशियों के संहार का समाचार सुना तब महाप्रस्थान का निर्णय लिया। पांडव जब महाप्रस्थान के लिए "हिम भन्त महागिरीम" की ओर निकले तो मार्ग में कुलूत देश में पहुंचे। वहां भीम ने अपने वनवास के दौरान हिडिंबा के साथ शादी कर ली थी। राक्षस प्रवृत्ति वाले हिडिंबा का भाई लोगों पर अत्याचार करता था। भीम ने उसका वध कर दिया। तण्डी की पुत्री सुदंगी से विदुर का विवाह कर दिया। जबकि महाभारत में विदुर अविवाहित रहे। उसके दो पुत्र भोट और मकड़ पैदा हुए। भोट से लाहौल-स्पीति, लद्दाख आदि देश बसा तो दूसरे मकड़ से वर्तमान कुल्लू बसा।

 किंबदंती के अनुसार जब पांडव हिमवन्त देश की ओर अग्रसर थे तो रोहतांग दर्रे को पार कर लाहुल में प्रवेश किए। यहां के स्थानीय वासियों द्वारा उनका आदर सत्कार किया गया। इस नृत्योत्सव में भी हिमालय में विचरते हुए अर्जुन आदि धनुर्धरों द्वारा बाण चलाने तथा द्रौपदी के साथ  प्रेमालाप करने की नृत्य कला को बखूबी दर्शाया गया है।

जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पहला बुजुर्ग नर्तक जो विदुर के रूप में हाथ में डंडा लिए, उसके बाद पांच मुखौटा नर्तक जो हाथ में धनुष बाण लिए होते हैं पांच पांडव भाइयों के प्रतीक हैं। अंत में नारी नर्तक द्रौपदी के रूप में है। वह भी धनुष-बाण लिए है। यहां यह उल्लेखनीय है कि स्थानीय भाषा में इन्हें क्रमशः बगगदपो (विदुर), लमशगपा ञी (युधिष्ठिर और भीम), ञिलदापा (अर्जुन) (मुखौटे मस्तक पर सूर्य और चंद्र का चित्रण) बोस-बोस छेनपो और छुङ (नकुल और सहदेव) और करमोकर (द्रौपदी) कहा जाता है। यह सात मुखौटाधारी नर्तक गृहतल में मौजूद कक्ष के उत्तरी दिशा के किवाड़ से बाहर निकलते हैं। इसके साथ एक नगाड़ा-वादक भी बाहर खिड़की के दोनों ओर बैठकर लमशगपा राग अर्थात  मार्ग खोलने का विशेष राग बजाते हैं। राग बजते ही पहला लमशगपा अर्थात धनुर्धारी राजमहल से पूर्व दिशा की ओर बढ़ता हुआ बर्फ से कुछ दूरी तक रास्ता लगाता है। बीच-बीच में नगाड़ा-बादकों  के शुग-शुग राग (बलि विसर्जन राग) पर तीर फेंकने का अभिनय करता है। इस प्रकार कुछ दूरी तय करने के पश्चात वह पुनः ऊपर की ओर जाता है। राजमहल से कुछ दूरी पर पांच छोरतेन (स्तूप) बने हैं, वहां पहुंचकर दूसरों की प्रतीक्षा में रहता है। इसके पश्चात लमशगपा उसी रास्ते से नीचे पूर्व दिशा की ओर बढ़ता है। विशेष प्रकार के राग बजते रहते हैं। लमशगपा दो गुना रास्ता लगा कर पुनः उसी नृत्यशैली को अभिनीत कर छोरतेन के पास लौटता है।

 अंत में ञिलदापा उसी विशेष राग पर नृत्य करते हुए तीन गुना रास्ता तयकर दो बार तीर छोड़ने का असफल प्रयास करता है। अंत में शुग-शुग राग पर एक तीर को छोड़ दिया जाता है। तीर छोड़ते समय मेले में आए लोग सीटी बजाते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से सारी दुष्ट आत्माएं, भूत-प्रेत, पिशाच, अमानुषी आपदाओं आदि का शमन एवं दमन हो जाता है। तीर छोड़ने के पश्चात ञिलदापा और पूर्व दो लमशगपा छोरतेन की परिक्रमा कर लौटते हैं। इधर राजमहल के ऊपर बने छोरतेन के सामने बगगदपो, बोस-बोस छे-छुङ और करमाकर उन तीनों के इन्तजा़र में रहते हैं। बीच-बीच में बोस-बोस छे-छुङ करमोकर को यदा-कदा पकड़कर आलिंगन करने का हास्यास्पद अभिनय करते हैं। उन तीनों के पहुंचने पर सभी नर्तक एक साथ मुख्य द्वार में प्रवेश कर नृत्यशाला में पहुंचते हैं।

अंदर नृत्यशाला में राजभवन का पुजारी पहले से ही बर्फ के त्रिकोण बलि को बना कर रखता है। उसमें सरसों के सूखे पौधों की डालियों को चुभोकर  रखता है। सभी मुखौटाधारी नर्तक बाहर से आते समय अपने तीरों के सिरे पर बर्फ के छोटे-छोटे गोले लगा कर लाते हैं। आते ही नृत्यशाला के उर्ध्वभाग में क्रमशः खड़े हो जाते हैं। इसी उर्ध्वभाग के ऊपरी कक्ष जिसे जबखङ ञीङपा (पुराना अतिथि कक्ष) कहा जाता है, में ठाकुर, ठकुराइन, कुलीन वर्ग, शाही मेहमान, पुजारी आदि बैठते हैं। वस्तुतः इन उत्सवों में शाही लोग इसी कक्ष की खिड़की से नृत्योत्सव का आनंद लेते हैं। पुजारी उक्त कक्ष की खिड़की से नर्तकों के हाथ से एक-एक तीर ले लेता है।

इसके पश्चात ऊपर कक्ष में पुजारी आवाज देते हुए कुछ प्रश्न पूछता है। सभी नर्तक ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। पुजारी पूछता है-रोहतांग में कितनी बर्फ थी? नर्तक इशारों से अपने हाथों को छाती तक ले जाते हैं। क्या आंखें तो नहीं जली? सभी नर्तक अपनी आंखों पर हाथ रखकर नहीं-नहीं का संकेत करते हैं। इस वर्ष क्या फसल अच्छी होगी? सभी नर्तक अपने तोंद पर हाथ घुमाने का अभिनय करते हैं। इस प्रकार कई प्रश्न पूछे जाते हैं। इन प्रश्नों से साफ जाहिर होता है कि लोग सुख, समृद्धि और खुशहाली की कामना करते हैं। इसी बीच "करमोकर"  एक झाड़ू ले आता है। ऊपर बुजुर्ग नर्तक से लेकर क्रमशः सभी नर्तकों के पावों से बर्फ हटाता है। जैसे ही बोस-बोस छे-छुङ के पास पहुंचता है उन दोनों के सिर पर झाड़ू से मारता है। वे दोनों भी उसे पकड़कर जबरन प्रेम बद्ब आलिंगन आदि करने का हास्यास्पद अभिनय करते हैं। इसके पश्चात वह पुनः एक खेम (काष्ठ निर्मित बेलचा) ले आता है। जमीन पर गिरी सारी बर्फ को हटाते हुए ऊपर से क्रमशः नीचे बोस-बोस छे-छुङ  तक पहुंच कर पुनः उनके सिर पर खेम चला देता है। दोनों बचने की कोशिश करते हैं। जिससे रुष्ट होकर दोनों उसके ऊपर चढ़ जाते हैं। यदा-कदा अश्लील एवं हास्यास्पद हरकतें करने का अभिनय भी करते हैं। पूरी दर्शक दीर्घा में हंसी- खुशी का माहौल बन जाता है। अंत में वह एक "पिल" (कास्ठ निर्मित छाननी) ले आता है। उसे घुमा-घुमाकर सभी नर्तकों को शुद्धि करने का अभिनय करते हुए दोनों बोस-बोस के सिर दे मारता है और शीघ्र वहां से भाग जाता है।

तदनन्तर बर्फ से निर्मित बिशेष बलि के सामने सभी नर्तक नगाड़े के विशेष राग पर नृत्य करते हुए सामने आते हैं। इसी बीच "करमोकर" अपने हाथों से बलि का इशारा करते हुए बाहर चले जाने का आह्वान करता है। करमोकर बलि को तिपाई के तिकोने फलक पर रख देता है। तीनों ओर काठू के सत्तू के त्रिकोणाकार बनाते हुए एक लंबी रेखा खींच ली जाती है। जो उसके मार्ग के रूप में दिक दर्शन कराती है। अतः बलि को तीन अलग-अलग जगहों पर रखा जाता है। ढोल नगाड़ों के विशेष राग पर "करमोकर" के शारीरिक एवं हाथों के अभिनयपूर्वक संकेतों से तीसरी बार शुग-शुग राग पर सीटी, आवाज आदि देते हुए बलि को फेंक दिया जाता है। इस प्रकार अपशकुनों का उपशमन हो जाता है।

इसके पश्चात सभी नर्तक "ञिलदापा-राग" पर नृत्यशाला में अलग-अलग अदाओं, हावभावों वाली नृत्यशैली में छह बार नृत्यशाला की परिक्रमा कर नृत्यकला का प्रदर्शन करते हैं। इसी बीच "करमोकर" नृत्यशाला में मौजूद किसी औरत जिसने चादर ओढ़ रखी है, से जबरन चादर खींच ले जाता है। चादर को नीचे जमीन पर बिछाता है। खर के अंदर से "कलछोर" अर्थात शगुण हेतु केतली भर "छङ" पहुंचता है। चादर पर बैठकर "करमोकर" तीर के सिरे को "छङ" की केतली में डालते हुए ऊपर नीचे डालता है जो शगुण का प्रतीक है। यह शागुण मुलला सोनमपा (ग्राम देवता ऋषि) के नाम पूजा जाता है।

पुनः इसके बाद नृत्यशाला में धनुषबाण को दोनों हाथों से पकड़कर ढोल-नगाड़ों के विशेष राग पर नृत्य का प्रदर्शन होता है। बीच-बीच में दर्शकों के मध्य कुछ मनचले लड़के- लड़कियां "करमोकर" को दर्शक दीर्घा के पीछे छुपा देते हैं। और जोर-जोर से चिल्लाते हुए पूछते हैं- "ज्ञालपो भोनग ख्योद अने गरु योद? (ज्ञालपो भोनग तुम्हारी पत्नी कहां है?) दोनों बोस-बोस छे-छुङ उसे ढूंढते हुए इधर-उधर भटकते हैं। दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों के बीच अपने हाथ में धारण किए धनुष के सिरे को आगे रख दौड़ पड़ते हैं। मानो कि उस से दर्शकों को बींध या चुभो दे। इस प्रकार चारों तरफ इसी शैली को अपनाते हुए "करमोकर" को ढूंढ लेते हैं। पुनः हास्यास्पद हरकतों के अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। पूरा वातावरण ठहाकों से गूंज उठता है। इस प्रकार तीन बार नृत्यशाला की परिक्रमा विशेष नृत्यशैली का प्रदर्शन करते हुए वापिस लौट जाते हैं।

 यहां उल्लेखनीय है कि ग्रीष्मकालीन छोदपा के दौरान हिम सिंह-वानर नृत्य में बजाए जाने वाले राग-थाप के समान शरदकालीन "ञिलदापा" के राग में किंचित अन्तर भर है। ढोल-नगाड़ों के थाप में एकाध थाप का ही फर्क है। गर्मियों के छोदपा में उसे थोड़ा ऊंची आवाज और सर्दियों के छोदपा में राग थोड़ी नीची आवाज में सुना जा सकता है। अतः कुल मिलाकर दोनों ऋतुओं के छोदपा मुखौटा नृत्योत्सव के विभिन्न नृत्यों के अनुसार ढोल- नगाड़ों के राग भी भिन्न-भिन्न है।
शरदकालीन छोदपा

गतांक से आगे ः-

3. छोमो कुकु-बग चोङ चोङ

 इस नृत्यकला के संबंध में उपरोक्त पत्रिका में छप चुका है। इसमें विशेषतः पंच पूजनीय देवियों की नृत्यकला का प्रदर्शन होता है। विस्तृत जानकारी के लिए "कुन्ज़ोम" पत्रिका को पढ़े। अंत में "वोनपो" द्वारा मंगल पूजन कर कक्ष के द्वार को अगले छः महीने के लिए बंद करवा दिया जाता है।

 उल्लेखनीय है कि राजघराने में मौजूद मुखौटों में हिम सिंह और वानर मुखौटे लकड़ी से तथा अन्य मुखौटे कपड़े के ऊपर चिकनी मिट्टी के लेप को चढा़कर बनाया गया है। मुखौटों की कलाकृति को देख कर ऐसा लगता है मानो इन्हें मंजे हुए कलाकार ने बनाया है। कला की दृष्टि से यह भोट कला से प्रभावित है। सभी मुखौटे विभिन्न रंगों से चित्रित किए गए हैं। लेकिन काल की गति ने इन्हें भी नहीं बख्शा है। कुछ मुखौटे नष्ट प्राय हैं। साथ ही इनके परिधान विचित्र रंगो वाले बस्त्रों से निर्मित हैं जो अब काल का ग्रास बन गए हैं।

 परंपरानुसार इस शरदकालीन छोदपा के पश्चात कुछ दिनों के भीतर खङसर खर से कुछ लोग दारचा में स्थानीय देवता "कुन्दुरु" के दर्शनार्थ जाते हैं। "कुन्दुरू" खङसर खर का भी देवता है। स्थानीय भाषा में इस दर्शन को "छग" (दर्शन या प्रणाम) कहा जाता है। कुछ लोग जिसमें लब्दगपा,दमनपा, कुछ गीतकार और दो व्यक्ति (नगाड़ों तथा बकरों को ढोने वाले) एक बकरा लेकर वर्फ के बीच रास्ता लगाकर निकलते हैं। दूसरे दिन प्रातः जिसपा से प्रस्थान कर दारचा पहुंचते हैं। ग्रामवासी मेहमानों को आदर- भोजन कराते हैं। देवता के थान पर बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। दारचा ग्राम वासियों द्वारा रात्रिभोज का आयोजन किया जाता है। रात्रि भोज में मांस-मदिरा के साथ-साथ ल्हरज्ञस, डललू, झुंङलू आदि गीत भी गाए या गवाए जाते हैं। शोनलू पर सभी लोग नाचते भी है। दूसरे दिन सुबह "छग" की टोली खङसर वापिस लौट जाती है।

 अत्यंत खेद के साथ कहना पड़ता है कि यह परंपराएं अब खत्म कर दी गई है। इधर कई वर्षों से छोदपा नृत्योत्सव का आयोजन भी बंद कर दिया गया है। इन सबके पीछे संभवतः सबसे बड़ा कारण तो  शिक्षा का आधुनिकीकरण और पुरानी संस्कृति एवं परंपराओं के प्रति उदासीन रवैया या नकारात्मक सोच ही है।


अंत में पाठकों से इस बात को सांझा करना आवश्यक समझता हूं। आज औद्योगिक क्रांति, वैश्वीकरण, तकनीकी विकास, उपभोक्तावादी संस्कृति और आधुनिकता के इस दौर में न केवल लाहुल-स्पीति अपितु संपूर्ण हिमालय में नवीन सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं व्यवसायिक समीकरण बनने लगे हैं। फलतः हिमालयी लोग अपनी प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं, मान्यताओं और धारणाओं को भूलने लगे हैं। प्राचीन परंपराओं के विखंडन और सांस्कृतिक मूल्यों के ह्रास के कारण आज समाज में अनेकबिध विकृतियां पनपने लगी है। अतः हमें आज नवीनता को अपनाते हुए प्राचीन को भी नहीं भूलना है। अर्थात प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाजों का पोषण ही हो जो श्रेष्ठ जीवन मूल्यों से संबद्ध हो। यदि इसमें कई प्रकार की विकृतियां हो तो उन्हें त्यागना ही श्रेयस्कर है। चूंकि समय गतिशील है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अतः प्राचीन स्वस्थ परंपरा के साथ नवीनता का समुचित समन्वय स्थापित कर नयी सांस्कृतिक चेतना के साथ संवेदनशील समाज के निर्माण की आवश्यकता है। जो मूल्य पर आधारित हो और वही जीवन एवं सामाजिक मूल्य संस्कृति, परंपराओं और शिक्षा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित होकर समाज को आलौकित करे। इसी आशा के साथ।

*****भवतु सर्वमंगलम*****
लेखक : श्री ठिन्ले नमज्ञल शास्त्री, गांव खंङसर

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