कुल्लू के भारत भारती स्कूल
मे हर वर्ष स्व. दया सागर स्मृति नवलेखन
कार्य शाला का
आयोजन होता है. जिस मे प्रतिभागी छात्र
स्वरचित कविताओं का पाठ करते हैं तथा
वरिष्ठ लेखकों के साथ इन पर चर्चा करते हैं . इस क्षेत्र
मे सार्थक लेखन का माहौल बनाने मे इस वर्क
शॉप की महत्वपूर्ण भूमिका है . मैं 2008 से
इस आयोजन मे भाग लेता रहा हूँ . इस कार्यशाला
मे मुझे नई पीढ़ी की बौद्धिक प्यास और कला अभिरुचियों का पता
चलता है . और निस्सन्देह मुझे मौलिक दृष्टि मिली है . आश्चर्यजनक प्रेरणाएं, अद्भुत
विचार मिले हैं. इस डायरी अंश मे कुछ यादें क़ैद हो
पाईं हैं .
डायरी अंश
जुलाई
3, 2012 . प्रातः 6:00 बजे
तीन दिनो से केलंग बेहद गर्म हो रखा है. भागा
गरज रही है . बहुत मिट्टी आ रही है . लगभग काली हो चली है. खिड़की से झाँकता हूँ , नदी के तमाम छोटे छोटे
पत्थर पानी मे छिप गए हैं. बस वह आखिरी बड़ी चट्टान दिख रही है. यह चट्टान मेरा
थर्मामीटर है. इस पर पानी का स्तर देख कर
मैं केलंग के तापमान का अन्दाज़ा लगाता हूँ.
आज सर दर्द कुछ कम है. ब्लड प्रेशर कभी बहुत
‘हाई’ हो जाता है तो कभी एकदम ‘लो’. आज सर दर्द कुछ कम है. ब्लड प्रेशर कभी बहुत
‘हाई’ हो जाता है तो कभी एकदम ‘लो’. आज न्यूरो सर्जन से मिलूँगा . डॉ योस्पा मेरे
बचपन के दोस्त किशन के बड़े भाई हैं. ये लोग शिमला देहरादून से किसी घरेलू फंक्शन के सिलसिले मे घर आए हैं .
मैं यह मौका नही चूकना चाहता . अरसे बाद किशन से भी मिलना होगा .
कविताओं की ‘हार्ड कॉपी’ ज्ञानरंजन को
भेजनी है . ज्ञान जी मेरी सम्पूर्ण कविताएं एक साथ पढ़ना चाहते हैं. सम्भव हुआ तो
मेरी कविताई पर कुछ लिखेंगे भी. आज वर्कशॉप से गाड़ी मिल जाएगी. एक लाख का एस्टिमेट
है.. लेकिन अभी इंश्योरेंस के कागज़ात पूरे नहीं हैं. शायद आज पतलीकुहुल पहुँचना भी
सम्भव नहीं. रजिस्ट्री के लिए पता नही कौन सी
तारीख मिलेगी ? पता नहीं डॉ साहब
क्या क्या निर्देश देंगे ? सी टी स्केन , एक्स रे , अन्य जाँच और दवाएं .......
पहले सरकारी काम निपटा लूँ , फिर छुट्टी निकलूँगा. 12 तक लौटना है. इतने कम समय
में क्या कुछ कर पाऊँगा ?
“भाषा” का नया असाईनमेंट पूरा करना है. डॉ देवी और तोब्दन जी को नाराज़ नही कर सकता . निरंजन
के नवलेखन कार्यशाला पर कुछ लिखना है. बार बार फोन आ रहे हैं. क्या लिखूँ ?
सर्वप्रथम तो यह कि नवलेखन व्यापक विषय है. तो
हर बार कार्यशाला किसी एक विधा पर
फोकस्स्ड हो . विभिन्न विधाओं पर एक साथ चर्चा करना सम्भव नहीं. वैसे यह एक सार्थक
आयोजन है .पर इस की समय सीमा बढ़ाई जाए . प्रस्तुत कविताओं के कला और विचार पक्ष पर संतुलित चर्चाएं हों .
इधर की कविता पर विचार बहुत हावी है. इस लिए चर्चाएं भी विचार केन्द्रित ही होतीं
हैं. निरंजन की कार्यशाला भी इस दबाव से मुक्त नहीं. फिर भी यहाँ काफी सम्भावनाएं
बनतीं हैं. और मैंने हमेशा कला पक्ष पर ही
सायास कुछ कहा है, चाहे अंट - शंट ही !
मैं 2008 से इस वर्क शॉप का नियमित प्रतिभागी
हूँ . आरम्भ से ही मुझे कुछ अद्भुत छात्र कवियों को सुनने का मौका मिला. कुछ नाम याद रह गए हैं ..... तीस्ता , कमलजीत,
कृष्णा, नरेन्द्र, पूर्वा, विपाशा, ज़ोया
........... बहुत से नाम भूल भी गया हूँ
.... जो जो याद आते हैं उन्ही के सन्दर्भ से
कुछ कहता चलूँगा .
एक वर्कशॉप मे तीस्ता ने
शीर्षक का मसला उठाया था . कि उस की क्या उपयोगिता है, और वह क्यों ज़रूरी है ?
वहाँ कोई संतोष जनक उत्तर सामने नहीं आया था . मैं खुद कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाया . आज भी मुझे इस
बात का मलाल है. मेरे लिए कविता का शीर्षक रखना ठीक उस तरह का मामला नही है जैसा
कि अपने बच्चे का या प्यारे ‘पपी’ का नाम रख देना; या किसी बर्तन पर हेंडल फिक्स
कर देना या किसी युवराज को मुकुट पहना
देना . कभी कभी शीर्षक कविता के कंटेंट का
खुलासा करता है. उस की व्यंजना को दिशा देता है. उस के सन्दर्भ खोलता है. उस की
ग्राह्यता मे सहायक होता है, क्लूज़ ( सूत्र) प्रस्तुत करता है. लेकिन हर तरह की
कविता का शीर्षक ऐसा ही हो ज़रूरी नहीं. बल्कि किसी किसी विधा में तो शीर्षक भी ज़रूरी नहीं . मसलन गज़ल. भजन. रुबाई. चौपाई, दोहे . शे’र
...... शीर्षक की असल अहमियत आधुनिक विचार कविता मे है. उस के शिल्प की वजह से. फिर कथ्य ही शिल्प को
तय करता है. माने, बहुत कुछ कविता के कंटेंट पर निर्भर है . शीर्षक का मसला बहुत महत्वपूर्ण है, और पेचीदा भी. कभी इस विषय पर एक छोटा
फेसबुक नोट या ब्लॉग पॉस्ट लिखूँगा. तो इस
कवि के पास कुछ गम्भीर और महत्वपूर्ण
मुद्दे हैं , बहुत गहरे दबे हुए, जिन्हे शेयर करने के लिए वह बेचैन है. बाद के
वर्कशॉप्स मे तीस्ता नही दिखी . उम्मीद है
कि वह कविता मे ही खुद को अभिव्यक्त कर रही होगी. या हो सकता है कोई इतर माध्यम
खोज लिया हो !
कमलजीत की पहली कविता याद आती है.
इस मे कुल्लू दशहरा मेले से रोचक, सार्थक व ज़िन्दा चित्र उठाए गए हैं. कवि की नज़र मेले के उन्माद
और उस की भव्यता मे न खो कर ऐसे ‘लेस
नोटिस्ड स्पॉट्स’ की
पड़्ताल मे व्यस्त है जहाँ जीवन के
असल रूप धड़कते हैं. कमलजीत बाद के आयोजनों मे भी नियमित शिरकत करता रहा. इस
वर्ष उस ने आध्यात्म पर कुछ कविताएं पढ़ीं. यह चौंकाने वाला था. वैसे मै नहीं समझता
कि किसी कवि के “बनने” में हमें अनावश्यक दखलअन्दाज़ी करनी चाहिए. उस
की नैसर्गिक ग्रोथ ही स्वयम कवि और
कविता के हित में है. बाद मे ज्ञान
प्रकाश विवेक से मैंने इस पर चर्चा की. उन्हे कमलजीत की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं
और और प्यास काफी हद तक मौलिक और प्रामाणिक लगीं. उन्हो ने चिंता भी ज़ाहिर की कि
इस उम्र मे इस तरह का जुनून बच्चों के लिए अहितकर भी हो सकता है. मेरा मतलब यह क़तई नहीं है कि हम धार्मिक/ रूढ़िवादी कविता को प्रोमोट करें. मैं
किसी कवि के भीतर कविता की ग्रोथ के तमाम तलों को स्वीकार करने की बात कर
रहा हूँ. . कबीर ने भी पहले ही
इंस्टेंस पर कठमुल्लाओं के खिलाफ दोहे
नहीं लिख दिए होंगे. धर्म को ‘समझ’ लेने के बाद ही उस की निरर्थकता को उजागर किया
होगा . कमलजीत ने कार्यशाला मे प्रश्न रखा
कि उस की कविता मे उर्दू और पंजाबी के शब्द स्वतः आ जाते हैं, अनजाने ही... और इस
बात से अभिभावक परेशान रहते हैं कि कि वह मुसलमानों की भाषा इस्तेमाल
करता है. कुल्लू जैसी जगह के लिए अप्रत्याशित किंतु महत्वपूर्ण मसला . रूढ़िग्रस्त
समाज की संकीर्ण सोच का दबाव्. कोई भाषा किसी धर्म विशेष की बपौती नहीं. यदि
किन्ही कारणों से अधिकाँश लोग उर्दू को भारत में इस्लाम की भाषा मानते भी हों तो
किसी धर्म से ऐसा विद्वेष भी नाजायज़ है. बड़ी कठिनाई से मैं परस्पर
उलझी हुई ये दो बातें वहाँ रख पाया.
मुझे लगा कि यह बात मैं कमलजीत के इलावा वहाँ मौजूद अन्य लोगो को भी समझाने
का प्रयास कर रहा था. यह शायद हिन्दी समाज
की पारम्परिक विडम्बना रही है जिस पर
ध्यान देना इधर हम छोड़ चुके हैं. इस विषय पर एक विस्तृत आलेख लिखने का मन हुआ है.
कमलजीत उर्दू- पंजाबी ही नहीं , लोकभाषा
का भी सुन्दर प्रयोग करता है. यह हिन्दी के सरवाईवल के लिए यह ज़रूरी है. कविता को
ठस्स गद्य होने से बचाने लिए और भी ज़रूरी.
कृष्णा एक टेलेंटेड किंतु शारीरिक रूप से
अक्षम युवती. वह केवल पाँचवीं कक्षा तक ही पढ़ पाई है. चित्र कला और लेखन मे बहुत
रुचि है. उस के पास बहुत गहरे व्यक्तिगत अनुभव हैं लेकिन उपयुक्त विधा की तलाश
बाक़ी है. इस वर्कशॉप मे ऐसे बहुत से बच्चे / युवा शामिल होते हैं जिन का
कविता की अधुनातन प्रवृत्तियों से पूर्व
परिचय नहीं होता. न ही ये लोग पारम्परिक शैलियों और विधाओं से अवगत होते हैं.
लेकिन यहाँ बहुत अच्छी रिवायत है कि
कुछ पत्रिकाओं के ताज़ा और क्लेसिक अंक , कुछ नई पुरानी चर्चित किताबों की प्रतियाँ डिस्प्ले पर रखी रहतीं हैं. .
विक्रय के लिए भी. ऐसे छात्रों को पुस्तकें उपहार स्वरूप भी दी जाती हैं.
मैंने कृष्णा को कुछ जर्नल्ज़ दिये थे, कृतिओर,
उन्नयन आदि . मालूम नही क्या असर रहा
? इस वर्कशॉप की एक दिक्कत यह है कि आम
तौर पर प्रतिभागी रिपीट नही होते. एक फोलोअप योजना बनाने की ज़रूरत है, कि इस
श्रमसाध्य उपक्रम के प्रभावों का आकलन हो.
ज़्यादातर छात्र प्रतिभागी गहन मानवीय मुद्दों पर कविता कहना चाहते हैं . इन
मुद्दों को ले कर उन मे अतिरिक्त उत्कटता
है. लेकिन व्यापक अनुभव की कमी के कारण बहुत अस्पष्ट लिखते हैं . एक प्रबुद्ध
श्रोता ने अचम्भित होते हुए चुटकी ली थी — पता नहीं इतने बड़े मुद्दे वास्तव मे इन
के अपने भी हैं या नहीं ! जो भी हो इतने
बड़े इश्यूज़ पर बात करने की उन की आकाँक्षा मात्र प्रशंसनीय है. और लाख वैचारिक असहमति के बावजूद
इन ज़टिल मुद्दों पर उन के बालसुलभ
दृश्टिकोण को समझना अति रोचक विषय है. इस वर्कशॉप मे बहुधा एक प्रश्न मेरे सामने
खड़ा होता रहा है - क्या हम वैचारिक
परिपक्वता के नाम पर किसी कवि की मौलिकता के साथ छेड़ खानी कर सकते हैं ? मेरे लिए
तो ये कविताएं ‘आई ओपनर’ होती हैं . इसी प्रेरणा से मेरी कविता ‘मुझे इस गाँव
को उन बच्चों की नज़र से देखना है’ लिखी गई थी .
अकसर कुछ अम्बेरेसिंग स्थितियाँ भी पैदा हुईं हैं जब कुछ बच्चों ने अनजाने मे ( कि यह रेसिटेशन का वर्कशॉप
है) , और कुछ ने जान बूझ कर ( कि किसी को
पता नहीं चलेगा ) किसी स्थापित कवि की कविता पढ़ ली. इस से बचने के लिए कार्यशाला
का उद्देश्य, एजेंडा और कार्य योजना के
बारे स्पष्ट तथा विस्तृत पूर्व प्रचार हो.
ज़्यादातर बच्चे शौकिया लिखते हैं . मैं चाहता हूँ कि शौकिया लेखन , चाहे उस का कोई
खास बड़ा महत्व नहीं होता , को भी उचित सम्मान मिले. शौकिया लेखक ही गम्भीर पाठक / आलोचक होते हैं.
कविता पाठ के सिलसिले मे ज़ोया नाम का
नन्हा चेहरा याद आता है. और भारत भारती
स्कूल की हेड गर्ल दिव्या की
आत्मविश्वास पूर्ण शायरी . वह ग़ालिब की ‘फेन’ थी और गालिब के अन्दाज़ मे ही शायरी करती थी. प्रेरणा
भी महान रचना को जन्म दे सकती है बशर्ते कि उस का उपयोग प्रामाणिक अनुभूतियों से
जोड़ कर किया जाय. जहाँ वह निपट ‘नकल’ न लगे . पाठ के मामले मे मैं स्वयम अप्रेंटिस हूँ. यहाँ
बच्चे सहज, बिना काँशस हुए, निर्बाध प्रवाह से काव्य पाठ करते हैं. मैं इन स्व्च्छ
निर्दोष आत्माओं से बहुत सीखता हूँ. सच पूछो तो मुझे अपने पाठ के लिए आत्मबल यहीं
से मिलता है. मैं बहुत अच्छा पाठ करना चाहता हूँ और चाहता हूँ कि ये बच्चे भी कथ्य
के अनुरूप प्रभावशाली पाठ सीखें. इस के लिए कुछ सशक्त कविताओं का पाठ कुछ ऊर्जावान
कवियों से कराया जाय तो कार्यशाला को बहुत लाभ होगा. माने, एक एग्ज़म्पलरी क़िस्म का
काम . ईशिता आर गिरीश से यह काम बखूबी करवाया जा सकता है . बाहर से भी कवि
बुलाए जा सकते हैं..
नरेन्द्र और विपाशा
की काव्य भाषा परिष्कृत है. और कविताएं परिपक्व. विपाशा मे किशोर मन की ईमानदार
वाँच्छाएं और स्वपनिल उड़ाने हैं. जब कि नरेन्द्र मे आज के ग्राम्य जीवन के ठोस
यथार्थ को देखने समझने की तड़प है.
नरेन्द्र की कविता मे एक छोटी सी शिल्पगत
झोल मैने नोटिस की थी पता नही वह उसे ठीक से सम्प्रेषित हुआ या नहीं. हाल ही मे कहर
सिंह के नाटक उत्सव में मैंने उसे शानदार अभिनय करते देखा . कलाविधाओं मे
आवागमन ज़रूरी है. खास तौर पर पेंटिंग और थियेटर से तो कविता का गहरा संबंध है.
उम्मीद है कि थियेटर से जुड़ाव उस की कविता
को वाँछित धार देगा. या कौन जाने, थियेटर
मे ही वह अपनी क्रिएटिव ऊँचाईयाँ छू जाए ! नरेन्द्र और इस वर्कशॉप के तमाम प्रतिभागियों,
आयोजकों को शुभकामनाएं . द शो मस्ट गो
ऑन!
.......अरे बाप रे !! साढ़े आठ बज गए . पानी
ढोना है, रात के बरतन माँजने हैं . नाश्ता तय्यार करना है और नहा कर दफ्तर भी पहुँचना है. अंत मे इस वर्ष की कार्य शाला की तीन महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र ज़रूरी है
एक, छात्र लेखकों के वक्तव्य और प्रश्नावली पर
उन के उत्तर. दो, वरिष्ठ गज़ल गो , कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक की उपस्थिति और
रचनाओ पर उन की विस्तृत टिप्पणियां . तीन, मेरे प्रिय अग्रज कवि मित्र अग्निशेखर
की उपस्थिति . इस आशा के साथ कि अग्नि भाई की असीम ऊर्जा, संघर्ष चेतना और प्रखर
विश्वदृष्टि का ज़रूरी हिस्सा कुल्लू की युवा सृजनशीलता पर अपना असर डाल रहा होगा. आमिन !
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