महा सिद्धाचारी गुरु घंटा की तपोभूमि लाहुल
के . अंगरूप लाहुली
हिमाचल प्रदेश में लाहुल एक छोटी सी घाटी का नाम है |जिस की वर्तमान जनसंख्या लगभग 23 हजार है |इस में 70 /75 प्रतिशत बोद्ध और शेष सनातन धर्म के अनुयायी हिन्दू धर्म के लोग हैं | बोद्धों में भी तिब्बत में विकसित महायान बोद्ध धर्म के मुख्य निकायों में से यहाँ पर कंग्युद – पा और लिंङ –म-पा की अनुयायियों का वर्चस्व् है | यद्यपि यहाँ के सभी बोद्ध विहार कंग्युद - पा निकाय के अधीन है , परन्तू इन में लिंङ –म-पा बोद्ध धर्म की विधि से भी पूजा अर्चना होती है | अब तक का अनुभव यह बताता है कि लाहुल में ही नहीं अपितू लदाख और तिब्बत जैसे बोद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्रों में भी इन दो निकायों की पूजा साथ साथ चलती है | यद्यपि लिंङ –म-पा बोद्ध धर्म का प्रवर्तक आचार्य पद्मसम्भव 8वी शती और कंग्युद –पा निकाय का प्रवर्तक मर-प-लो-च-वा 12 वीं शताब्दी के संत थे | लाहुल में केवल इन्ही दो निकायों का ही प्रचार क्यों हुआ इनके अनेक कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि चक्रतंवर जो कंग्युद –पा निकाय का इष्ट देव है और यहाँ के प्राचीन घंटा –गिरी नामक पर्वत इन्ही का तीर्थस्थान माना जाता है | भोत देश के एक विख्यात लेखक क्यों-प-जिग –तेन –गोन –पो जिनका समय 12वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जाता है , लाहुल एवं लाहुल के उपर्युक्त तीर्थस्थान के महत्व का वर्णन करते हुए वेह अपनी एक महत्वपूर्ण रचना ढिल –बु –रोई –नत-शद नामक पुस्तक में लिखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति शुचि मन से लाहुल की तीर्थयात्रा करता है तो उसे उस के पुन्य बल से तीन जन्मों तक नरक गामी नहीं होना पड़ता | इतना ही नहीं आगे वह लिखते हैं कि लाहुल की पवित्र भूमि एक महान कल्पद्रुम के समान है | यहाँ रह कर ताप-साधना करने वालों की साड़ी मनोकामना पूरी हो जाती है |
सम्भवतः यही वजह तरही कि उड्डयन प्रदेश के आचार्य पद्मसम्भव और तिब्बत के सुप्रसिद्ध सेंत गोद-छङ –वा जैसे महर्षि ने भी लाहुल की यात्रा की थी ,तथा गोद-छङ –वा तो तीन बर्ष तक यहाँ साधना करते रहे | उपर्युक्त घंटागिरी को लोग इस लिए भी तीर्थस्थान मानते हैं कि यहाँ एक लोककथा के अनुसार घन्टा -पाद जो भारतीय चौरासी सिद्धों में से एक प्रमुख सिद्ध थे , लाहुल पहुंच कर यहाँ के रे- पग मानक गाँव के एक जंगल में ताप साधना करने लगे थे , तो कुछ काल पश्चात इस की सूचना स्थानीय मुखिया को मिली | उसने गुरु घंटा पाद को एक बार अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया परन्तु सिद्धाचार्य ने किसी अज्ञातक गृहस्थ के घर जाना उपर्युक्त न समझा क्योंकि इस से भिक्षू नियम का उल्लंघन होता था | मुखिया द्वारा अनेक बार अनुरोध करने पर भी उन्होंने निमत्रं स्वीकार नहीं किया | इसे मुखिया ने अपना अपमान स्म्खा और सिद्धाचार्य से बदला लेने के बारे में सोचने लगा | उसने गाँव की एक सुरा बेचने वाली स्त्री से सम्पर्क स्थापित कर तथा षड्यंत्र रच कर उस की 14 वर्षीय कन्या को प्रतिदिन अच्छे –अच्छे पकवान के साथ सिद्धाचार्य के पास भिजवाने लगा, जिससे कि वे कन्या से मोहित हो कर शील से पतित हो जाए | वीतरागी सिद्धाचार्य आरम्भिक काल में तो स्त्री सुलभ छल से मोहित नहीं हुए, परन्तू बर्षों के सम्पर्क एवं विषय की निकटता के कारण एक दिन वे विचलित हो गए और कालान्तर में उस कन्या से एक पुत्र व् एक पुत्री उपन्न हुई |
सिद्धाचार्य के शील भ्रष्ट होने की खबर जब मुखिया ने सुनी तो वह फुला न समाया | अब क्या था कि उसने आचार्य की निंदा करने के प्रयोजन से एक जनसभा का आयोजन किया सन्देश पा कर सिद्धचार्य भी सपरिवार त्भस्थ्ल पर उपस्थित हुए | लोग तभी की कार्यवाही बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे कि इतने में मुखिया उठा और सिद्धाचार्य की और अभिमुख हो कर बड़े ठहाके के साथ ताली बजाने लगा | आचार्य ने उसका मनोभाव तुरंत भांप लिया और अपने सिद्धि के चलते पुत्र और पुत्री को घन्टा और वज्र में परिणत कर तथा पत्नी को अपनी अकंवारी में ले कर आकाश मार्ग से चन्द्र और भागा के पार्श्व में स्तिथ उपर्युक्त पर्वत पर उतारे और वहां पर अंतर्ध्यान हो गए | दूसरे शब्दों में वे अपने इष्टदेव चक्रसंवर के साथ एकरसता को प्राप्त कर गए |
उस घटना के पश्चात चक्रसंवर का यह तीर्थ स्थान घन्टागिरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ | आज भी बोद्ध जगत के विभिन्न क्षेत्रों के सैंकड़ों तीर्थ यात्री इस पवित्र पर्वत के दर्शनार्थ आते हैं , और दर्शन पा कर अपने को धन्य मानते हैं |
यद्यपि यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि लाहुल में 7 वीं शताब्दी के आस –पास तपोनिष्ठ रहने वाला गुरु घन्टा पाद वाही थे जो पदकर (पद्मकर –पो) के इतिहास (पृष्ठ 78 -79 ) के अनुसार पूर्व भारत के वारेन्द्र जनपद के राजकुमार थे , जिन्होंने अपने पिटा की मृत्यु के पश्चात गृह त्याग नालंदा महा -विहार में उपाध्याय जयदेव सुभद्र से प्रवज्य ग्रहण किया था | तत्पश्चात महायान बोद्ध धर्म में दीक्षित होकर साधना में लग गए थे | इतना सही है की वे जन –कल्याण की भावना से प्रदेश –प्रदेश के परिभ्रमण किया करते थे | इस प्रकार वे लाहुल भी पहुंच गए हों तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है | क्योम्नकी गुरु घन्टा पाद के जीवन वृत्त के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन करने पर हमें यह संकेत मिलता है कि वे बड़े घुमक्कड़ी थे |
इन के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में भोत विद्वानों के विभिन्न चार प्रकार की जीवनियाँ उपलब्ध होती है | सुप्रसिद्ध षू – तोन और लामा तारा नाथ के अनुसार गुरु घन्टा –पाद ने उड़ीसा के किसी राजा का निमन्त्रण ठुकराया था, तो मों-डूब –शेन –रव के मतानुसार राजा देवपाल को कामल्प (असम) बंगाल तथा लालिपुत्र के अधिपति थे | उनका न्योता अस्वीकार किया था . और इधर लाहुल की एक लोक कथा के अनुसार वहां के रे-पग नामक कसबे के किसी सामंत (ठाकुर) के घर जाने से इनकार किया था |
वह भी सही है कि अधिकतर लोक कथाएँ विश्वासों और रूढ़ियों पर आधारित होती है , पर यह बिलकुल निर्मूल होती है ऐसी बात भी नहीं है | इनके अन्तस्थल में भी एक सत्यता की एक झलक छिपी हुई होती है | गुरु घंटा –पाद के संबंध में तो यहाँ एतिहासिक महत्व की बातिन भी निहित है | उदाहरण के तौर पर –
१. यहाँ के प्रसिद्ध चक्रतंवर के तीर्थस्थान का कलांतर में घन्टा गिरी नामक पड़ना
२. इसी पर्वत के आंचल में गुरु घन्टा- पाद के नाम पर स्थापित यहाँ के घन्टार गोम्पा नामक प्राचीन बोद्ध विहार |
३. उपर्युक्त घन्टा गिरी के सन्दर्भ में लिखे गए भोट विद्वानों की विभिन्न रचनाएँ |
४. गुरु घन्टा –पाद के सम्बन्ध में प्रचलित यहाँ की प्रसिद्ध लोक कथा आदि आदि .|
के . अंगरूप लाहुली
हिमाचल प्रदेश में लाहुल एक छोटी सी घाटी का नाम है |जिस की वर्तमान जनसंख्या लगभग 23 हजार है |इस में 70 /75 प्रतिशत बोद्ध और शेष सनातन धर्म के अनुयायी हिन्दू धर्म के लोग हैं | बोद्धों में भी तिब्बत में विकसित महायान बोद्ध धर्म के मुख्य निकायों में से यहाँ पर कंग्युद – पा और लिंङ –म-पा की अनुयायियों का वर्चस्व् है | यद्यपि यहाँ के सभी बोद्ध विहार कंग्युद - पा निकाय के अधीन है , परन्तू इन में लिंङ –म-पा बोद्ध धर्म की विधि से भी पूजा अर्चना होती है | अब तक का अनुभव यह बताता है कि लाहुल में ही नहीं अपितू लदाख और तिब्बत जैसे बोद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्रों में भी इन दो निकायों की पूजा साथ साथ चलती है | यद्यपि लिंङ –म-पा बोद्ध धर्म का प्रवर्तक आचार्य पद्मसम्भव 8वी शती और कंग्युद –पा निकाय का प्रवर्तक मर-प-लो-च-वा 12 वीं शताब्दी के संत थे | लाहुल में केवल इन्ही दो निकायों का ही प्रचार क्यों हुआ इनके अनेक कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि चक्रतंवर जो कंग्युद –पा निकाय का इष्ट देव है और यहाँ के प्राचीन घंटा –गिरी नामक पर्वत इन्ही का तीर्थस्थान माना जाता है | भोत देश के एक विख्यात लेखक क्यों-प-जिग –तेन –गोन –पो जिनका समय 12वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जाता है , लाहुल एवं लाहुल के उपर्युक्त तीर्थस्थान के महत्व का वर्णन करते हुए वेह अपनी एक महत्वपूर्ण रचना ढिल –बु –रोई –नत-शद नामक पुस्तक में लिखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति शुचि मन से लाहुल की तीर्थयात्रा करता है तो उसे उस के पुन्य बल से तीन जन्मों तक नरक गामी नहीं होना पड़ता | इतना ही नहीं आगे वह लिखते हैं कि लाहुल की पवित्र भूमि एक महान कल्पद्रुम के समान है | यहाँ रह कर ताप-साधना करने वालों की साड़ी मनोकामना पूरी हो जाती है |
सम्भवतः यही वजह तरही कि उड्डयन प्रदेश के आचार्य पद्मसम्भव और तिब्बत के सुप्रसिद्ध सेंत गोद-छङ –वा जैसे महर्षि ने भी लाहुल की यात्रा की थी ,तथा गोद-छङ –वा तो तीन बर्ष तक यहाँ साधना करते रहे | उपर्युक्त घंटागिरी को लोग इस लिए भी तीर्थस्थान मानते हैं कि यहाँ एक लोककथा के अनुसार घन्टा -पाद जो भारतीय चौरासी सिद्धों में से एक प्रमुख सिद्ध थे , लाहुल पहुंच कर यहाँ के रे- पग मानक गाँव के एक जंगल में ताप साधना करने लगे थे , तो कुछ काल पश्चात इस की सूचना स्थानीय मुखिया को मिली | उसने गुरु घंटा पाद को एक बार अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया परन्तु सिद्धाचार्य ने किसी अज्ञातक गृहस्थ के घर जाना उपर्युक्त न समझा क्योंकि इस से भिक्षू नियम का उल्लंघन होता था | मुखिया द्वारा अनेक बार अनुरोध करने पर भी उन्होंने निमत्रं स्वीकार नहीं किया | इसे मुखिया ने अपना अपमान स्म्खा और सिद्धाचार्य से बदला लेने के बारे में सोचने लगा | उसने गाँव की एक सुरा बेचने वाली स्त्री से सम्पर्क स्थापित कर तथा षड्यंत्र रच कर उस की 14 वर्षीय कन्या को प्रतिदिन अच्छे –अच्छे पकवान के साथ सिद्धाचार्य के पास भिजवाने लगा, जिससे कि वे कन्या से मोहित हो कर शील से पतित हो जाए | वीतरागी सिद्धाचार्य आरम्भिक काल में तो स्त्री सुलभ छल से मोहित नहीं हुए, परन्तू बर्षों के सम्पर्क एवं विषय की निकटता के कारण एक दिन वे विचलित हो गए और कालान्तर में उस कन्या से एक पुत्र व् एक पुत्री उपन्न हुई |
सिद्धाचार्य के शील भ्रष्ट होने की खबर जब मुखिया ने सुनी तो वह फुला न समाया | अब क्या था कि उसने आचार्य की निंदा करने के प्रयोजन से एक जनसभा का आयोजन किया सन्देश पा कर सिद्धचार्य भी सपरिवार त्भस्थ्ल पर उपस्थित हुए | लोग तभी की कार्यवाही बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे कि इतने में मुखिया उठा और सिद्धाचार्य की और अभिमुख हो कर बड़े ठहाके के साथ ताली बजाने लगा | आचार्य ने उसका मनोभाव तुरंत भांप लिया और अपने सिद्धि के चलते पुत्र और पुत्री को घन्टा और वज्र में परिणत कर तथा पत्नी को अपनी अकंवारी में ले कर आकाश मार्ग से चन्द्र और भागा के पार्श्व में स्तिथ उपर्युक्त पर्वत पर उतारे और वहां पर अंतर्ध्यान हो गए | दूसरे शब्दों में वे अपने इष्टदेव चक्रसंवर के साथ एकरसता को प्राप्त कर गए |
उस घटना के पश्चात चक्रसंवर का यह तीर्थ स्थान घन्टागिरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ | आज भी बोद्ध जगत के विभिन्न क्षेत्रों के सैंकड़ों तीर्थ यात्री इस पवित्र पर्वत के दर्शनार्थ आते हैं , और दर्शन पा कर अपने को धन्य मानते हैं |
यद्यपि यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि लाहुल में 7 वीं शताब्दी के आस –पास तपोनिष्ठ रहने वाला गुरु घन्टा पाद वाही थे जो पदकर (पद्मकर –पो) के इतिहास (पृष्ठ 78 -79 ) के अनुसार पूर्व भारत के वारेन्द्र जनपद के राजकुमार थे , जिन्होंने अपने पिटा की मृत्यु के पश्चात गृह त्याग नालंदा महा -विहार में उपाध्याय जयदेव सुभद्र से प्रवज्य ग्रहण किया था | तत्पश्चात महायान बोद्ध धर्म में दीक्षित होकर साधना में लग गए थे | इतना सही है की वे जन –कल्याण की भावना से प्रदेश –प्रदेश के परिभ्रमण किया करते थे | इस प्रकार वे लाहुल भी पहुंच गए हों तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है | क्योम्नकी गुरु घन्टा पाद के जीवन वृत्त के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन करने पर हमें यह संकेत मिलता है कि वे बड़े घुमक्कड़ी थे |
इन के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में भोत विद्वानों के विभिन्न चार प्रकार की जीवनियाँ उपलब्ध होती है | सुप्रसिद्ध षू – तोन और लामा तारा नाथ के अनुसार गुरु घन्टा –पाद ने उड़ीसा के किसी राजा का निमन्त्रण ठुकराया था, तो मों-डूब –शेन –रव के मतानुसार राजा देवपाल को कामल्प (असम) बंगाल तथा लालिपुत्र के अधिपति थे | उनका न्योता अस्वीकार किया था . और इधर लाहुल की एक लोक कथा के अनुसार वहां के रे-पग नामक कसबे के किसी सामंत (ठाकुर) के घर जाने से इनकार किया था |
वह भी सही है कि अधिकतर लोक कथाएँ विश्वासों और रूढ़ियों पर आधारित होती है , पर यह बिलकुल निर्मूल होती है ऐसी बात भी नहीं है | इनके अन्तस्थल में भी एक सत्यता की एक झलक छिपी हुई होती है | गुरु घंटा –पाद के संबंध में तो यहाँ एतिहासिक महत्व की बातिन भी निहित है | उदाहरण के तौर पर –
१. यहाँ के प्रसिद्ध चक्रतंवर के तीर्थस्थान का कलांतर में घन्टा गिरी नामक पड़ना
२. इसी पर्वत के आंचल में गुरु घन्टा- पाद के नाम पर स्थापित यहाँ के घन्टार गोम्पा नामक प्राचीन बोद्ध विहार |
३. उपर्युक्त घन्टा गिरी के सन्दर्भ में लिखे गए भोट विद्वानों की विभिन्न रचनाएँ |
४. गुरु घन्टा –पाद के सम्बन्ध में प्रचलित यहाँ की प्रसिद्ध लोक कथा आदि आदि .|
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