Saturday, September 20, 2014

आभासी दुनिया में लाहुल की सांस्कृतिक अस्मिता -I


आभासी दुनिया में लाहुल की सांस्कृतिक अस्मिता -I


आभासी दुनिया में लाहुल की सांस्कृतिक अस्मिता( रिंचेन ज़ंग्पो साहित्यिक साँस्कृतिक सभा की पत्रिका असिक्नीके आगामी अंक में प्रका
 Sunday, January 3, 2010 at 11:31am
इंटरनेट पर इन दिनों लाहुल स्पिति पर केन्द्रित अनेक सरकारी और निजी साईटस् हैं, जिन में लाहुल स्पिति के बारे ढेर सारी सूचनाएं हैं. ब्लॉग्स , ग्रूप्स , कम्युनिटीज़ की तो भरमार है जहाँ दुनिया भर में रह रहे लाहुली और पितियाड़ लाहुल स्पिति के बारे अपने-अपने विचार (या जो कुछ भी उन के पास है) पोस्ट करते हैं. गम्भीर आर्थिक- सामाजिक -विकासात्मक समस्याओं से ले कर हल्के फुल्के विचार, वीडिओ तथा स्थिर चित्र, मौलिक तथा ध्वारी ( कट-पेस्ट माल और लिंक्स ) हर क़िस्म के पोस्ट यहाँ मिल जाते हैं. इन में से कुछ तो निपट हास्यास्पद होते हैं, कुछ मिडिऑकर टाईप और कुछ अपवाद स्वरूप विचारोत्तेजक एवं महत्वपूर्ण . जैसे दही बिलोने के बाद ढेर सारी झाग, और छाछ के बीच में से हम अपने हिस्से का मुट्ठी भर मक्खन खोज ही लेते हैं.

ऐसा ही एक ग्रूप श्री रोशन ठाकुर जी का है. पेशे से इंजीनीयर श्री ठाकुर आई. टी बी. पी. में उप सेनानी हैं. सम्प्रति तारादेवी शिमला में कार्यरत . इन का ग्रूप है http://groups.google.com/group/lahoulspiti इधर कुछ वर्षों से यह साईट सुदूर इलाक़ों में रहने वाले लाहुलियों के लिए गपशप का लोकप्रिय मंच बना हुआ है. चूँकि मैं भी इस ग्रूप का सदस्य हूँ, विषय देख कर इस के कुछ मेल मैं भी पढ़ लेता हूँ .कभी कभी यहाँ मैंने कुछ उल्लेखनीय नीतिकथाएं और बोधकथाएं देखीं, जो बच्चों के लिए तो उपयोगी हैं ही, कहीं न कहीं उन वयस्कों के काम की भी हैं जो आज की बदहवास ज़िन्दगी के ढर्रे में अपनी सम्वेदनाएं लगभग खो चुके हैं. और कुछ नहीं तो कम-अज़-कम अपने भीतर गुम हो गए एक सादे-सुच्चे बच्चे से इंसान को पहचान कर एक ईमानदार आह तो भर ही लेता है वह समझदार, उन्नत, परिष्कृत आधुनिक आदमी!
ऐसी ही एक बोधकथा श्री आर सी ठाकुर जी ने जनवरी 2008 में फॉर्वर्ड की. जो उन्हे संभवतः किसी विदेशी अथवा विदेश प्रेरित साईट से प्राप्त हुई थी. श्री आर सी ठाकुर रेलवे इंजीनीयरिंग सेवा में हैं तथा सम्प्रति मध्य रेलवे , मुम्बई में चीफ इंजीनीयर हैं. ग्रूप के एक अन्य सदस्य श्री अशोक कुमार उर्फ ज्ञलत्सन जी ने इस अच्छी खासी शिक्षापरक कथा में एक गंभीर गड़बड़ी पकड़ी .यह कि इस कथा की पृष्टभूमि सहित हर चीज़ पाश्चात्य थी. हाव भाव, अभिव्यक्तियाँ, पद, स्लेंग्स, व्यक्तिवाचक संज्ञाएं.....मसलन- kyle, “nerd”, freshman, duke, “those guys are jerks” इत्यादि.

श्री ज्ञल्त्सन जी नेशनल फिज़िकल लेबोरेटरी नई दिल्ली में वैज्ञानिक हैं. उन्हों ने इस साधारण सी कथा के बहाने जो विमर्श यहाँ खड़ा किया, इस की उम्मीद स्वयँ संचालक महोदय ने भी न की होगी. अपने लंबे पोस्ट में उन्हों ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ज़बरन नाम परिवर्तन तथा पाठ्य पुस्तकों में अजनबी पात्रों के साथ तादात्मय न बैठा पाने की पीड़ा का भी ज़िक्र किया है. और दावा किया है कि हम अपरिचित चरित्रों और देश काल के साथ अपने संघर्षों और समस्याओं को संदर्भित (relate) नहीं कर सकते.
मेरी मंशा थी कि इस पूरी बहस का चंद्रताल अथवा असिक्नी के लिए हिन्दी अनुवाद करवाऊँ. मित्रों को प्रिंट आऊट भी दिए, और मेल भेजे. लेकिन यह संभव न हुआ. बहरहाल, श्री ज्ञल्त्सन के द्वारा उठाए गए प्रश्नों के कुछ मौलिक अंश देखॆं:


“Is it the land of "freshman", Kyle", "Duke"…is the final destination of our
human kind?
Are their stories the only stories worth forwarded across the "groups"?
Why not stories of Kogi's of Columbia, Inuits of Canada, Huaoranis of
Ecuador, Bantu's of South Africa, Onges of Nicobar islands, Santhals of
Chotangpur, and for that matter why not the stories of Todhpas of
Lahoul-Spiti, Monpas of Arunachal, and Khampas of Tibet find audience in
real as well as in cyber space? Why the tale about Avalikiteshwara's
inspirational efforts to save the flies suiciding in the lake upstream the
small stream that waters Triloknath village produce miracles that many of
such mails tend to claim? Why we forget to "forward" our own stories? To
me it seems we need to share our own stories, and keep "forwarding" our own
stories before history forgets us.”
* * * * *
“I know of an octogenarian in my village who *still* carries capacity to
narrate the whole "King Gesar" story without any help form written material
(amazing! considering he is "uneducated" one hand and on the another people
like us require addressbook to remember few friends that we can afford in
our times). As many of our tradition were orally passed for generations, why
at this point in history such practices are considered obsolete and why the
story of Gesar doesn't enjoy equivalent awe if not greater than JK Rowling's
Harry Potter.”

इस प्रतिक्रिया ने मुझे हैरत में डाल दिया. मैं नहीं समझता था कि ऐसे विजन वाले लेखक् हमारे बीच इसी पीढी में पैदा हो जाएंगे. कहन की शैली में उद्वेग का अतिरेक होते हुए भी यह पोस्ट मुझे कई अर्थों में एक परिपक्व विरोध का साहित्य लगा.
श्री कुलजीत सिंह क्रोफा जी इस ग्रूप के एक नियमित सदस्य हैं. श्री क्रोफा भारतीय प्रशासनिक सेवा में सीनियर अधिकारी हैं . संप्रति दिल्ली में भारत सरकार के कोयला मंत्रालय में संयुक्त सचिव हैं. ज्ञलत्सन जी के इस पोस्ट ने उनका ध्यान खींचा. प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य की परिभाषा, उस का उद्देश्य, उस के स्कोप को ले कर उन का शानदार पोस्ट आया. कुछ अंश :
“ Literature often addresses the larger civilisational issues. It cannot limit itself to a one community, one society, one tribe, one region or one country alone”

और

“ perhaps, beyond a point, it does not really matter where the characters are from. It is the message that truly matters. It is what we discern, what we imbibe, what we adopt, what we practice and what we finally leave as a legacy (of values) that should matter indeed. And as we evolve, as we open up, as we inter-mingle (with 'other' people, 'other' societies, 'other' cultures and 'other' civilisations), we find it easier (and gradually more convenient too) to relate to their values, their socio-cultural contexts, and their 'jeene ka falsafa'.
“And if a society aspires to be known, understood and accepted beyond its immediate social boundaries, then it has to have the capacity to create literature about itself that would be read, understood and accepted beyond those boundaries.”
“the challenge is - how do we reach out to others! Not by closing the boundaries, I'm afraid. But by opening up more, by sharing more, and by relating more! As we share more, we learn more, we create more, we tell more, and we grow more!! What says the Group??”

ज्ञल्त्सन जी का उत्तर था :

Kropha Ji's lucid elaboration of the message-messenger role-relationships
and detailing of the inherent comfort in "becoming acceptable" to
meta-narratives is highly enlightening. However, I *want* to believe, at
least this point in time that we (Lahoul-Spitians) can find strength and
comfort within our own mini-narratives and move on without morphing it to
facilitate easy absorption in *a* meta-narrative.
“Stories of many cultures like ours are eliminated from the Earth as we speak
in the name of "education' or 'development" or "empowerment”
“I am not sure how long the elder of my village that I mentioned in the last mail will keep the Gesar story alive before he responds to "nature's call"?

स्थानाभाव के कारण पूरी बहस यहाँ नहीं दी जा सकती. पाठक इंटर्नेट पर सीधे ऊपर दिए गए एड्रेस पर जा कर पूरा टेक्स्ट् पढ़ सकते हैं. अंत में दोनों सदस्यों ने लोक ( कथित मिनि नरेटिव्ज़ ) के दस्तावेज़ीकरण (डॉक्युमेंटेशन) को एक विकल्प के रूप में लगभग स्वीकार किया और एक दूसरे का औपचारिक आभार प्रकट करते हुए चर्चा समाप्त की. लेकिन दोनो सदस्यों सहित हम सब जानते हैं कि दस्तावेज़ी करण अंतिम् हल नही है. शायद हम में से कोई भी अपने उन् ऊर्जावान आख्यानों, सशक्त मिथकों, और जीवंत (vibrant) जातीय स्मृतियों को महज़ अनुसंधान और तमाशे की वस्तु नहीं बनाये रखना चाहेगा.हम उन में से बहुत कुछ को यथासंभव जीना चाहेंगे.
इस द्विभाषी रिपोर्ट को यहाँ प्रस्तुत करने का मेरा एक मक़सद इस मुद्दे को साईबर स्पेस से उठा कर ज़मीन पर लाना है , जो कि प्रकारांतर से एक अभिजात्य (इलीट) भाषा में से उठा कर जन भाषा में लाना भी है. इस देश में ज़रूरी और संवेदनशील मुद्दों को ले कर जो भी विमर्श है अंग्रेज़ी में है. वर्नेक्युलर्ज़ में नहीं. थोड़ा पूरा मराठी ,बाँग्ला और मलयालम में हो तो हो, हिन्दी में तो क़तई नहीं. यहाँ तक कि हमारा सरकारी मीडिया भी यह सोचता है कि कुछ मुद्दे और विमर्श अंग्रेज़ी तक ही सीमित रहे तो बेहतर है. यह एक गलत प्रेक्टिस है. आप दूरदर्शन के प्राईम टाईम खबर के अंगेज़ी और हिन्दी वर्जन को गौर से देखिए , फर्क़ स्पष्ट नज़र आ जाएगा. किसी बुद्धिजीवी का इंटर्व्यू देखिए, भला चंगा हिन्दी बोल रहा है, संवेदनशील मुद्दों पर आते ही अंग्रेज़ी पर उतर आएगा. मज़े की बात तो यह है हमारे समाज का पूरा मध्यवर्ग ( थिंक टेंक ?) ही इस कंडीशनिंग का शिकार है. कि जैसे ये मुद्दे कहीं सर्वहारा की भाषा मे आ जाएं तो वह उसे पचा नहीं पाएगा, विस्फोट हो जाएगा. यह एक बीमार क़िस्म की मानसिकता है जिस से हाशिए (सबाल्टर्न) की सोच मुख्यधारा ( मेनस्ट्रीम) के विमर्श (डिसकोर्स) से असंपृक्त् तथा वंचित रह जा रही है.

साथ में इस चर्चा से कुछ गलत फहमियाँ भी दूर हुईं हैं :

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यह कि लाहुल स्पिति से बाहर जो एक अनिवासी (आभासी) लाहुल स्पिति है, उस् की अपनी पह्चान को ले कर जो एक संकट है, वह आभासी (virtiual) नहीं है, सचमुच की (real) है.

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वह पूरा तबका इस सब को ले कर गंभीरतापूर्वक कंसर्नड है, जिसे हम महज़ नोस्टेल्जिया को रेलिश करने वाला विस्थापित तबका मानते थे. चाहे वे नौकरी पेशा हों, शिक्षा की गर्ज़ से बाहर रह रहे हों, या संपत्तियाँ बना कर स्थायी रूप से बाहर रह रहे हों, या किसी भी अन्य मज़बूरी के चलते विस्थापित हुए हों.

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जब कि वास्तविक (भौगोलिक) लाहुल को जानने समझने (और बचाने) के जो बने बनाए मंच हैं वहाँ उनके न आने की मज़बूरी भाषागत है. इस लिए उन्हो ने अपने अलग मंच बना रखे हैं. काश ये लोग हिन्दी सीख लेते, टूटी फूटी ही सही, (या हम अंग्रेज़ी) तो हम जल्द और कुछ बेह्तर नतीजे निकाल पाते मिलकर.

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ज्ञल्त्सन जी के यहाँ जो तेवर है , हमारे वरिष्ठ् सस्कृतिकर्मियों के लेखन में नहीं मिलता. मिलता है, लेकिन संकेतो में, फलतः बेअसर . मैं उन में से अधिकतर के संपर्क में हूँ. हालाँकि मौखिक चर्चाओं में ये पीड़ाएं बड़ी शिद्दत से उभर कर आती हैं. लेकिन ब्लेक एंड वाईट में, प्रत्यक्ष रूप में शायद ही कहीं.

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एक दशक पहले चन्द्र्ताल के दूसरे या तीसरे अंक में मैंने अपने एक लेख में कुछ ऐसा ही असहमति (non conformity) का क्रिटीक प्रस्तुत किया था. हालाँकि कुछ छोटे छोटे प्रश्न मात्र थे वहाँ. तो भी विद्वान शुभचिंतकों ने मुझे बाक़ायदे हिदायत दे दी थी कि शब्दों को पोलिटिकल होने से बचाओ. मतलब यह कि, ए लाहुल, ओ लाहुल, हाय लाहुल, कहाँ छूट गया लाहुल, तो खूब गाओ; लेकिन क्यों छूट गया लाहुलको सफाई से गोल करते रहो. और मैं तब इन बातों का मतलब नहीं समझता था. मैं विचारधारा और राजनीति ( राजनीति से मेरा आशय स्थानीय चुनावी राजनीति क़तई नहीं है.) को दो जुदा एंटिटीज़ मानता था. आज जब कि भूमंडलीकरण के इस दौर् में स्थितियाँ ज़्यादा स्पष्ट और प्रकट हैं, विश्व् भर के सत्ता केन्द्रों की विस्तार वादी नीयतें (चाहे वह किसी भी खेमे की, और किसी भी स्तर की हो) जगज़ाहिर हैं. अमरीका, चीन , और अफ्गानिस्तान और तिब्बत की घटनाओं का सीधा इम्पेक्ट तन्दी पुल, शेल्टू और दारचा के चाय - लुगड़ी के खोखों तक मह्सूस किया जा रहा है, तो ऐसे में श्री ज्ञलत्सन जी का मिनि नरेटिव्ज़ का कॉन्सेप्ट न केवल सांस्कृतिक दृष्टि से बल्कि राजनैतिक दृष्टि से भी आश्वस्त करता है, बेहद सुकून देता है. और इस युवा साथी के साथ मैं स्वय़ं को अकेला नहीं महसूस कर रहा. उम्मीद है कि अगले किसी पोस्ट में वे ज्ञपो केसर की गाथा में से अपने मनपसन्द कुछ प्रसंग कथाएं डालेंगे.

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और अंततः , कि साईबर स्पेस में भी ज़मीनी विमर्श है , यह फक़त बाज़ीचा- ए-अत्फ़ालनहीं है.
आमीन!

पुनश्च: कुछ ग्रूप मेम्बर्ज़ के बारे सूचनाएं उन के फेस बुक प्रोफाईल से प्राप्त की गई हैं . जैसा कि वे 20.12.2009 तक अपडेटेड हैं .इधर कुछ परिवर्तन हुए हों तो क्षमा प्रार्थी हूँ. दूसरे, अंग्रेज़ी टेक्स्ट वेब पेज से यथावत कॉपी पेस्ट कर लिए गयॆ हैं, ताकि मूल शब्द डिस्टॉर्ट न हों. और इस अटपटी भाषा के लिए भी क्षमा चाहता हूँ. बहुत सारे कोष्ठकों और विराम चिन्हों का प्रयोग इसे रीडर फ्रेंडली बनाने के लिए है . क्लिष्ट हिन्दी न जानने वाले उन गंभीर पाठकों के लिए जो प्रायः इस बारे शिकायत करते हैं.
Roshan Lal Thakur
a very gud trail sir, i would like to see all this on chandertaal too so that most of d people who do not have access to net can also read these points, thanx for trying to bring out of net to reallity, ok bye ............
January 4 at 7:18pm ·
Amar Barwal
अति सुन्दर.....प्रयास के लिये सब को साधुवाद....
January 4 at 8:44pm
Dinesh Shasni
CONGRATULATIONS.AAP KA PRAYAS SRAHANIYA HEI
January 6 at 4:55pm
Ajay Lahuli
अजेय जी, रोशन जी ने जो मंच दिया है उसके लिए उन्हें साधुवाद. आपने इस बहस को जमीन से जोड़ कर बुद्धिजीवियों की सोच को नया आयाम दिया है. मै आपसे सहमत हूँ कि दस्तावेज़ीकरण अंतिम विकल्प नहीं है, विचारों का नियमित आदान-प्रदान अनिवार्य है तभी किसी भी विषय पर एक निष्कर्ष की उम्मीद कर सकते हैं. चन्द्रताल, अस्किनी के बाद इन्टरनेट की दुनिया में सार्थक बहस जता ... See Moreरहा है कि लाहुली समाज में जड़ो से जुड़ने कि नई परिपाटी आरम्भ हो रही है. बहस धरातल को छुए तो उस बहस की वास्तविकता और प्रभाव पर संदेह नहीं होता. मेरा मानना है कि वर्तमान में दो लाहुल है. एक वो जो जमीन से जुड़कर अपनी समस्याओं का हल तलाश रहा है व रोज़ उन समस्याओं से लड़ रहा है इस आशा में कि परिस्थितियों में सुधार होगा और अपनी पहचान को कायम रखते हुए नये क्षितिज पर कदम रखेगा. बदलाव की कोरी बात करने वाले भूल चुके हैं कि आज भी लाहुल की जीवनशेली सर्दियों में लगभग उसी ढर्रे पर चलती है जैसे पहले हुआ करती थी. ऐसे में दूसरा लाहुल बाहर से छटपटाहट की मुद्रा में बदलाव की बयार में परम्पराओं व सांस्कृतिक विरासत कि दुहाई देता दिख रहा है, जो सुविधाओं को भोगते हुए छदम विलाप से अधिक कुछ नहीं कर रहा है. सही मायनों में उनका कंसर्न लाहुल से है तो उन्हें पहले तो अपने जड़ों से जुड़ने की कामयाब पहल करनी होगी. कितने फीसदी लाहुल से बाहर बेठे लोग नई पीड़ी को जड़ों से जोड़ रहे है, ये सवाल अनुतरित है. कॉन्वेंट शिक्षा के प्रकाश में जड़ों में लग रहा घुन धीरे-धीरे पहचान को धूमिल कर रहा है. कुल मिला कर सार्थक मंचों की पैरवी करते हुए एक सांझा विचार मंच तमाम पूर्वाग्रहों व व्यक्तिगत अहेंकार त्यागकर गठित हो जो पूरे जिले को जोड़ने का काम करे. भाषागत दिक्कतों को दूर करते हुए हर वर्ग की भागीदारी पड़ताल कर सकेगा कि बाहर से दिखने वाला कंसर्न कितना जेन्यूइन है.
January 7 at 12:34pm
Roshan Lal Thakur
Sir, well said, & well thought, but i have an idea as you know that famous bapu ke TEEN bander DONT SEE EVIL, DONT HEAR EVIL, DONT SPEAK EVIL.. but in present context you have rightly brought forward the two more virtues that DOING & THINKING are also Important, which can keep our cultural hertage intact. I know that thinking is the most hardest ... See Moreprocess, if some one is trying to think how to keep our traditions alive still he is contributing a lot to society in directly , i mean aleast he is trying to thing about that subject or at least he is little bit concern about that subject, however he is not contributing to society by doing practically on ground, we must encourage them all.May be their concern are geniun.
January 9 at 11:09am ·
Ajay Lahuli
रोशनजी, मै इस बात पर कायम हूँ कि सोच धरातल को न छुए तो उस सोच का कोई मतलब नहीं रह जाता. उस सोच का हस्तांतरण भी तो अनिवार्य है, तभी तो पता भी लग सकेगा कि कौन कितना कंसर्न है. में आप से सहमत नहीं हूँ कि 'वे' कम से कम सोच तो रहे हैं. मन ही मन में कुढने से अच्छा है कि प्रेक्टिकल एप्रोश के साथ एक छोटी से शुरुआत तो करे.
आपके ग्रुप पर मूल बहस देखने के... See More बाद मुझे लगा कि मेरा कमेन्ट अजेय जी के नोट को पढ़ कर देना मेरी अपरिपक्वता थी. जो मुद्दे उठे उस पर फिर से एक अलग कमेन्ट दूंगा. भाषागत समस्या मेरी भी है. फिलहाल बहस को तल्लीनता से पढ़ रहा हूँ. बहस सरोकारों से भरा, राजनीति से दूर व पूरी तरह से 'प्रदुषण' मुक्त. अशोकजी और कुलजीतजी ने जिस इमानदारी के साथ बहस को छेड़ा उस बहस को मेरी तरह पढने वाले बहुत होंगे. बदलाव की बात करने वाले तमाशबीन बने लोगों में वो साहस नहीं था कि वो इस बहस में अपना योगदान देते. ये दुर्भाग्यपूर्ण है. क्या हम एक मंच पर विचारों का आदान-प्रदान तो दूर किसी अच्छी सोच को सराहने की पोजीशन में भी नहीं हैं?
January 9 at 12:54pm
Ajay Kumar
दोस्तो, क्यों न इस चर्चा को हम फिर से इस के मूल स्थान पर ले चलें... क्या कहते हो?
January 9 at 1:44pm
Ajay Lahuli
#अजेय भाई, मूल स्थान पर चर्चा जनवरी, 2008... See More की है. मूल चर्चा के लिए लिंक पकड़ते हुए मेरी खासी मशक्कत हुई है. चर्चा अब यहाँ चल रही है तो इसे यहीं रहने दो. चर्चा में वहां भी भागीदारी का आभाव था. संभवता वो सन्नाटा यहाँ टूट जाए. इंतज़ार तो कीजिये.
#
रोशन भाई कल्चरल हेरिटेज को इंटेक्ट रखने के लिए जड़ों से जुड़े लोगों कि संख्या भी तो होनी चाहिए. कुलजीत जी ने चर्चा में 'नेगेटिव पोपुलेशन ग्रोथ' को लेकर कुछ सवाल उठाए है. सवाल तर्कपूर्ण है. ये आप भी जानते हैं कि जितना लाहुल जनसँख्या में दिखता है शायद आज उतना ही लाहुल बाहर भी है. पहचान मिटने के कुछ उदाहरण अशोक जी दिए. लाहुल के सन्दर्भ में अच्छी शिक्षा के चलते नयी पीढ़ी जड़ो से जिस तरह से कट रही है उससे पहचान खोने का संकट हम पर भी है. भले ही फिर आप अपनी संस्कृति का पूरा दस्तावेजीकरण कर भी लो तो वो सिर्फ शोध के काम आ सकता है, जड़ों से जोड़ने के नहीं. मसलन पटनी न बोलने या न समझने वाले के लिए बोली का स्क्रिप्ट तो होगा, पर बोलने की शेली व उच्चारण की समस्या कैसे दूर होगी? सहेजने की प्रक्रिया में ट्रांसमिशन लोस की भरपाई कैसे होगी? यदि आप संस्कृति व परम्परा को सहेजने के पक्षधर हैं तो क्या हम शिक्षा के नाम पर नयी पोध को जड़ों से जोड़ने के बजाये जड़ों से ही तो नहीं उखाड़ रहे हैं? शिक्षा अनिवार्य है, लेकिन हम ऐसा क्या कर रहे हैं कि ये पौध जड़ों से जुड़ कर फले-फूले?
January 9 at 3:00pm
Charanjeev Singh
Far too sophisticated for my comprehension!!
January 10 at 3:17pm
Ajay Kumar
Its simple . Just try linking ur self 2 ur roots. Things vil start appearing plain. Thanks for being here, anyway.
January 10 at 5:22pm
Roshan Lal Thakur
Dear Ajay ji if you permit we will discuss this matter on our main forum again,as u suggested..
January 11 at 11:38am ·
Ajay Kumar
any time raashn bhai...
January 13 at 12:55pm
Suresh Vidyarthi
Mool sthan par behes...Ya mool sthan ka behes.... is this the question...Who wants to give up the comforts of facebook for the sake of mool sthan (no offence meant for the blog).... yahan facebook par "Kyle" or "Duke" ke profiles photo sahit hein.....aur mool sthan par to @#$$ bhi nahi he.............. To comment on "Duke's" photo in facebook is ... See Moresophistication.... and in blog, link to "Gesar" seems to be obsolete.....when it is clicked...it says "Oops ..this link seems to be broken....who has the solution for the broken links ??? Who has hacked this link... I think , this is the question...and the answer lies with the octogenarian ....He can still comment on "Gesar's" profile ....so why not continue our discussion here....



To be honest I am still confused as to what is our topic?? Too heavy for me .... Ajay Bhai , kindly elaborate !!
January 15 at 8:29pm
Roshan Lal Thakur
confusion hi tow naye invention ki janni hai, aap vilkul teek hai dont worry about question, just keep on commenting.... discussion will automatically come out... ok cu bye.. keep commenting
January 15 at 9:22pm ·
Ajay Kumar
There u are. U ve almost smelt it. just think. What is it that has delinked us from 'the gesar.' (i dont know whether its spelt correctly or not.) think and try to find out. as ive told u earlier,
Burning down a ballot box is not a protest sufficient for our democracy.
Comrade, think over it . The Lost link to Gyesar Khan is not just an emotional matter.be more radical.
Yor interrogation is genuine. But Brecht has said
'i wish that i had all the answers.... See More
Read it one more time.
January 16 at 8:52am via Facebook Mobile
Suresh Vidyarthi
I coudnt cook my dish well...i guess......
# Though it may seem an outburst, yet i would like to be
emotional if we are dealing with such delicate matter...
# If burning down whole Kingdom of 'Hor' proves my point
I would rather not hesitate to do it again and again....... See More
# Being radical makes one more compromising.... For my 'Ling'
the question of being radical doesnt arise....
# Sir, Brecht's saying concludes the discussion... We have hardly begun
As yet.....




Emotionally yours G. Khan
January 16 at 11:46am via Facebook Mobile
Ajay Kumar
मरहबा! खान साब, तुम ज़िन्दा हो क्या? . मैं टटोल रहा था कि भगवा ही तो नहो हो गए कहीं.... खैर, आग फिर आग है चाहे भगवा हो या लाल. चाहे "होर" में हो या "लिङ " में . तुम्हारी आग को लाल सलाम. उम्मीद है कि तुम ने फिर से येह नोट पढ़ लिया है. अपनी ताज़ा कविताएं भेज रहा हूँ कुछ खिड़कियाँ उन से खिलेगी. खुली तो अनुवाद करना तुम अपने अंग्रेज़ भाईयों के लिए. सच, कल तुम सपने में आये थे...... अपने "लिङ" के निरंतर सिकुड़्ते चले जाने की पर्वाह किए
January 17 at 7:42am
Ajay Kumar
बिना , अंग्रेज़ों के साथ पोलो खेलते हुए...... और मेरा मन "होर" के आस पास तुम्हारे लिए करुणा तलाश रहा था.

ok. enough of symbolism. let's be straight for our readers... See More.

उस दिन स्पिति के हिन्दी कवि छिमेद दोर्जे ( उर्फ मोहन सिंह) से चर्चा हो रही थी कि ताबो के पास जो हुरलिङ है, वह असल में होर लिङ है. वह एक समय में तुम्हारे साम्राज्य की सीमा रेखा थी. मैं ठीक से नहीं कह सकता .... तुम्हें कुछ याद है क्या अपने वे सुनहरे दिन?
रोशन के ब्लॉग में जो कारनामा भाई शिव्जी और भाई भीमसेन जी (रोह्तांग में दर्रा बनाने का ) का बताया गया है वह महान इंजीनीयरिंग फिएट तुम्हारे आख्यान में तुम्हारी बताई गई है. ... तुम्हें कुछ याद है क्या अपने वे सुनहरे दिन?

मुझे यह भी बताया गया है कि इस आख्यान के अलग अल्ग पाठ हैं. मध्य एशिया और चीनी मंगोलिया(होर) में अलग, अपने पिति में अलग्, लदग में अलग, गुगे जङ्थङ में अलग, खुनु में अलग,

और ज़ाहिर है , इन सब में अलग तो अपने महान गर्शा- खंड्रोलिङ में सब से अलग. एक बार तुम अपने क्यङ नोर्बु पर सवार हो कर दैत्य दुद- छुरुल को बजौरा तक भगा ले गए थे. जो उस की राज धानी थी .वहाँ उस के घर जा कर उस का मान मर्दन किया था. उस की बीवी का नहीं. उसे तो तुम चाईनीज़ ड्राफ्ट जैसी कोई गेम् सिखाना चाहते थे.फिर न्युङ ति (कुल्लु) घाटी का मौसम तुम्हे इतना रास आया कि बारह बर्ष तक उस दैत्य स्त्री के प्रेम पाश में सोते रहे. जब तक कि होर्र के राजा ने तुम से तुम्हारा लिङ नहीं छीन लिया. तुम्हें कुछ याद है क्या अपने वे सुनहरे दिन?
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मुझे खुशी है कि तुम्हे रेडिकल नहीं होना है. तो आओ, चर्चा करो.

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महान जर्मन कवि ब्रेख्त के इस वक्तव्य से ही दुनिया की तमामआधुनिक डिस्कोर्सेस शुरू हुई है. जिस को सब कुछ पता है, वह बहस क्या खाक करेगा?
चाहो तो नीदर्लेंड वाले कवि अजय ठाकुर से कंफर्म कर लेना.
January 17 at 8:38am
Ajay Lahuli
अजेय भाई, बहस अब मेरी आरंभिक "भटकाव" के बाद "मूल" स्थान पर लौट रही है. गेसर के बहाने खूबसूरत लिंक जुड़ रहा है, सन्दर्भ का संकेत जड़ों से कट रही वर्तमान लाहुली समाज को अपने ही इतिहास में झाँकने का न्योता दे रही है. गेसर की कहानियां मेरे जहन में बहुत धुंधली हैं. सुरेश जी ने सुंदर तरीके से कह भी दिया कि link to "Gesar" seems to be obsolete.....when ... See Moreit is clicked...it says "Oops ..this link seems to be broken....who has the solution for the broken links ??? Who has hacked this link... सचमुच इन कहानियों का लिंक नई पीढ़ी में टूट ही गया है. मेरा मानना है कि गेसर की तरह आज का लाहुली समाज 'न्युङ ति' के आबो-हवा में इस कद्र मंत्रमुग्ध है कि उसे 'लिङ' छूटने का जरा भी अहसास नहीं है. न्युङ ति में दंभ जरूर भरते हैं कि लिङ 'साम्राज्य' है, पर साम्राज्य की कोई 'सुध' नहीं. ऐसे में आपके इन दो कथनों से असहमति जता रहा हूँ कि ....
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यह कि लाहुल स्पिति से बाहर जो एक अनिवासी (आभासी) लाहुल स्पिति है, उस् की अपनी पह्चान को ले कर जो एक संकट है, वह आभासी (virtiual) नहीं है, सचमुच की (real) है.
#
वह पूरा तबका इस सब को ले कर गंभीरतापूर्वक कंसर्नड है, जिसे हम महज़ नोस्टेल्जिया को रेलिश करने वाला विस्थापित तबका मानते थे. चाहे वे नौकरी पेशा हों, शिक्षा की गर्ज़ से बाहर रह रहे हों, या संपत्तियाँ बना कर स्थायी रूप से बाहर रह रहे हों, या किसी भी अन्य मज़बूरी के चलते विस्थापित हुए हों.
आप ही बताओ कि अशोक जी व कुलजीत जी के चर्चा के आधार पर निष्कर्ष भले ही निकलता हो कि पह्चान को ले कर संकट सचमुच की (real) है, लेकिन क्या अनिवासी (आभासी) लाहुल स्पिति भी क्या ऐसा ही सोचता है? मुझे ऐसा नहीं लगता...आप और हम जैसे मुठीभर लोगों की सोच कितनी कारगर होगी??? जबकि में देख रहा हूँ कि अनिवासी लाहुल इस पूरे बहस को बकवास या ढकोसले से अधिक कुछ नहीं मानता. एक चर्चा से अजेयजी हम ये निष्कर्ष तो नहीं निकाल सकते न कि पूरा तबका इस सब को ले कर गंभीरतापूर्वक कंसर्नड है????
January 17 at 12:17pm
Ajay Kumar
# अजय, देर से ही सही, तुम मुद्दए को पकड़ने लगे हो.जल्दी नहीं है. अपना समय लो. इसे बार बार पढ़ो . तुम्हारे लिए कुछ है मेरे पास. लेकिन पहले सोरेश से कुछ सुनना चाहता हूँ. इंतेज़ार करो, और उसे सुनो तुम भी.
January 17 at 1:22pm
Suresh Vidyarthi
".......In this desert of frightened, blind uncertainty,
Some take refuge in the pursuit of power, of knowledge and technique;
Some become manipulators of illusion and deceit;
Some take refuge in realms of self-satisfied passion;
And some build up a golden wall of simple wealth... See More
..............................
If goodness and bravery still dwell in this world
As other than a flickering shadow on the edge of sleep,
If wisdom and harmony still dwell in this world
As other than a dream lost in an unopened book,
They are hidden in our heartbeat.
And it is from our hearts that we cry out.
We cry out and our voices are the single voice of this wounded earth........."




This haunting song sets the stage for Great Lion King's birth ....
# Do these imageries explain our own situation???
# Are we desperate to open the book of lost dreams ??
# Ain't we just showcasing our dreams,myths and collective consciousness in the name of so called "concern" ?
#If ever these dreams, myths, even the lost links, as I have mentioned earlier, have echo in our hearts... Do we still need help of paper and ink to transmit heartbeat to next generation ?
#And we are crying out in different voices with the hearts that no longer beat as they use to beat generations earlier.
#To conclude....I bet my earth is not wounded...but cries are
January 17 at 7:52pm
Ajay Kumar
bravo! boy, the old sarge has opened his book of furious cautions.

such an energetic poem . so you have found some of those lost links finally.
ढूँढने से खुदा भी मिल जाता है. पर हम क्यों मगज़ खपाई करें. हम तो गाऎंगे - छना पेषी ए.....बहर हाल, mail me the link.

# not exactly, but wecan certainly relate our present struggles to many of ... See Morethese , more intimately as Gyaltsan jee (ashok) sugests in his key note mail.
# yes why not? most of us. what is chndrataal, swaNglaa ertog, asiknee, kunzom, rinchen zaNgpo , sadprayaas, haans's troups, alll about? may be initially some of us are confused many a ways , but one day, yes why not?
# yes that is the question which needs a vigourous discussion.
# bhole naath , ink n paper do trigger such issues but they are never the final solution . ultimately we will have to relive at least a part of it literally , for the survival....
# again na bad recipee...
ओ झाँ सङ मकुच्ङ खौं दि कटुई....
#
लो फिर वही बात! शेर खान , तुम्हारा लिङ खतरे में है. लाल चन्द ढिस्सा भाई से पूछो. मेरी kavitaa dekho.

ajay laahulee. tumhaaree cheez agale post par. aaj kuchh zyaada ho gayaa.
January 17 at 8:55pm
Ajay Kumar
गूड मॉर्निंग अजय.
रात ज़्यादा पी ली थी. शुक्र है. कंप्यूटर लटक गया वर्ना सारे पुराण चेप देता.. सॉरी. देख रहा हूँ ज़्यदा ही हो गया.

कुछ समझदार लोग बहस को देखते रहते हैं ... हाथ जलने का खतरा रहता है.कुछ ईगो के चलते हर फटी में टाँग न अड़ाने की नीति अपनाते हैं. लेकिन पकती खिचड़ी को देख हर कोई रहा है. मैं ने इस पहचान की संकट प्रक्रिया को आठवें दशक में ... See Moreघरसंगी जी के यूथ फेस्टिवल्ज़ से ले कर डेवलप होते बहुत नज़दीकी से देखा है. कुछ लोग इन इदारों में "छाने" ( चिनाली वाली नहीं ) की गरज़ से भी आते हैं. फिर बरस न पा कर खिसक जाते है. लेकिन कुछ प्रतिबद्ध लोग भी हैं. अब जो बाहर से बिना इंवोल्व्मेंट के तमाशाई हैं , वे सोचते हैं यहाँ सारे ही छ्हाने के फेर में हैं. ऐसे लोग अन्दर शिद्दत से चाहते हुए भी प्रकट नहीं करेंगे. शराब पी कर आज आम लाहुली घुमा फिरा कर इसी मुद्दे को दोहराना चाहता है. कि हम कौन थे और कहाँ जा रहे हैं. ठीक भी है आखिर हम मे से कितने अपने लिए गोर्खा या तिबती संबोधन सुन कर भीतर से आहत नहीं हुए होंगे? अशोक और कुलजीत जी ने साहस किया कि बिन पिए इस बहस को सार्वजनिक कर दिया. कहीं न कहीं वोह दवाब् काम कर रहा होगा इस के पीछे. और अशोक तो सभ्यता के वर्तमान मान दंडों को ही खारिज कर खुद को ज्ञपो गेसर के आख्यान से रिलेट कर रहा है. जो कि बड़ी बात है. यह प्रतीक रूप में कथित सभ्य स6सार को यह कहना है कि हम तुम्हारे पैमानों को ठेंगे पर रखते हैं . यह जो विरोध मे6 अशोक मे प्रत्यक्ष्तः रेखांकित कर पाया, महत्वपूर्ण है.

तो संकट तो है, साफ दिखता है. लेकिन समाज में हर तर्ह के लोग हैं. कोई इस संकट को संकट नहीं मानता . उन की अपनी सोच हो सकती है.चिन भूखे रह कर दिन भर अपने झुण्ड की निगरानी करता है. उसे हर खतरे से आगह करता है. लेकिन झुंड को ज़्याद नहीं फसी होती. वे घास चरते हैं, प्रणय करते हैं, संतति जनते हैं . हो सकता है अपनी भाषा में चिन को मूर्ख भी कहते होंगे. लेकिन इस से चिन की खाज खत्म नहीं हो जाती. वह समझता है कि क़ायनात उसी के दम पे टिकी है. दोनों तरह के लोग हैं किसी को क्या कहें.
तो ज़रूरी नहीं कि हर कंसर्ड आदमी आ कर यहाँ बहस ही करे.
लोगों को
January 18 at 7:36am
Ajay Lahuli
भाई 'पी' कर अन्दर का अजेय इतना साफ़ और स्पष्ट है. ये मैं अब जान गया हूँ. खुद को और अधिक खोलने के लिए 'पीने' का अच्छा बहाना है. ऐसे बहाने का में हमेशा स्वागत ही करूंगा. सुरेश भाई और आप बहस के थमे धड़कन को 'पेसमेकर' लगा कर गति दे चुके हो. लगे रहो भाई.... जिस नई रचना को आपने 'नशे' के झोंके में छाप दिया है, उसे मैं प्रतिष्टित साहित्यकारों कि भाषा में ... See Moreकहूं तो 'बड़े' पत्रिका में देखना चाहता था. खेर...इस रचना ने हिमालय के कंसर्न को पुष्ट ही किया है. स्पष्ट हो गया कि अमरीका, चीन, अफ्गानिस्तान, नेपाल और तिब्बत की घटनाओं का सीधा इम्पेक्ट तन्दी पुल, शेल्टू और दारचा के चाय - लुगड़ी के खोखों तक क्यों मह्सूस किया जा रहा है, आप ठीक कहते हैं कि पहाड़ की सैलानी वाली छवि मैदान में अभी नहीं टूटी है. सुंदर दिखने वाले पहाड़ों का अपना दर्द है. सरहद पर हलचल होती है तो मैदान सिर्फ उसे खबर की तरह लेता है, उसकी ग्रेविटी को उतनी शिद्दत से महसूस शायद ही करता हो, जितना पहाड़ करता है. हलचल के मायने व निष्कर्ष तक पहाड़ इसलिए भी जल्दी पहुँचता है क्योंकि हर हलचल से उपजे परिणामों का पहला शिकार या भुगतभोगी पहाड़ ही होगा. ये बड़ी बात है कि हिमालय के सुदूर कोने में बैठा मेरा एक भाई 'बुद्ध' बना 'कविता' में करुणा ढूँढ रहा है. ऐसे भी लोग हैं जो हिमालय से जुड़े बगेर हिमालय के कंसर्न की बात करते हैं. ये महेज सस्ती ख्याति अर्जित करना है..ये बात लोग कब समझेंगे????
January 18 at 11:40am
Ajay Kumar
ख्याति के लिए नही भी हो सकता है . लेकिन अगर कुछ दर्द है तो इसे महज़ नॉस्टेल्जिया न बनाएं, न! और कुछ नही तो बम्पंखी भाई हरीसिन्ह हाँस की तरह जैसे तैसे लगे रहें. उतना भी काफी है. हम जानते हैं हमारा अतीत बहुत गौरवशाली नहीं रहा है. जैसा भी रहा है, उस पर उसी रूप में गर्व करने के तरीक़े तो खोज ही सकते हैं.....
January 18 at 5:22pm
Suresh Vidyarthi
हम तो फिर वहीं आ अटक गए । यह तो वही बात हो "भिल्लो रेहचा टिहके भिल्लो आंङ " पिछला बहस भी तो यहीं कहीं आ कर इति बोल गया था ।
January 19 at 5:59pm
Ajay Lahuli
सुरेश भाई मेरी सीखने की ललक ही है कि बहस अटक रहा है, पर इतना जरूर है कि इस बहस के बहाने हमारी वे परत खुल रही हैं जिसे पुराना नासूर जान कर हम छेड़ने की हिम्मत नहीं करते हैं. नासूर को सहलाते हुए भ्रम भी पाल रखा है कि वक्त के सात खुद-ब-खुद ठीक हो जायेगा. क्या ऐसा होगा? इस इंतज़ार में क्या कुछ छूटेगा और क्या रहेगा? फिर हाय-हाय के राग की कितनी प्रासंगिकता होगी?
January 20 at 10:27am
Ajay Kumar
# अजय , ऐसी बात नहीं है. तुम्हारी भगी दारी सार्थक है. जारी रहो.
#
सोरेश , चेताने के लिए शुक्रिया . लेकिन एक नज़र डालिए ऊपर हमारी बहस पहले वाली से ज़्यादा सार्थक रही शायद . हम ने खाली बातें नहीं की , इन चन्द दिनों में अपनी परंपरा का एक हिस्सा जी भी लिया.इतनी कथाएं , इतने मुहावरे, इतनी स्मृतियाँ, इतने शब्द, इतनी अभिव्यक्तियाँ, सब अपने . शायद ऐसा ही ... See Moreकुछ चाहते थे अशोक जी. लेकिन एक प्रश्न उभरा है , हमारे अन्दर की डाईवर्सिटी....(.बोली) वह भी एक समस्या है. लेकिन मंच पर हम इसे अलग से डिस्कस कर सकते हैं.
फिलहाल, चलें होम पेज पे. गेसर की खिड़की बंद कर कुछ और खोलें ....... सोरेश तुम खोलो.
January 20 at 6:43pm
Suresh Vidyarthi
होम पेज से तो लगता है कि हम "evolve" होने के *परोसेस* ( my font does not support pra for pratap...and we call it technology.ha) से गुज़र रहे हैं । आप एक खिडकी की बात करते हो भाई जी , हम तो अपनी सारी सीमाएं खोल बैठे हैं other... See Moreसमाज और other सभ्यता से intermingle होने के लिए ।इन सीमाओं पर बैठ मै हमेशा सोचता हूं भाई जी कि इन से परे अपनी पहचान बनाने के चक्कर में हम अपनें साहित्य को लंगडा मान कर "ध्वारी" साहित्य को क्यों चुक्कण देते हैं ? अपनें Oral Tradition को हम साहित्य मानने से कतराते हैं । सामाजिक सीमाओं को खोल कर हम ने क्या पा लिया ? या खो दिया ?



"
चत्तरे सल्ले सिङज़ा ला तोंखा हचि" । Other civilizations का 'सल्ले सिङज़ा' तो अन्दर ला पाए लेकिन उसे जगह देनें के लिए बुज़ुरग (thats technology) की लाठी बाहर कर दी ।
January 21 at 5:03pm
Ajay Kumar
aap kee baat maan lee. लेकिन क्या दुनिया भर की कई संस्कृतियों से हम ज़्यादा खुश किस्मत नहीं हैं कि इस प्रोसेस
( use Hindi indic IME 1 V 5.1 )
के बीचों बीच हम ने इस संकट को सूँघ लिया है. कम अज़ कम कोशिश तो कर ही रहे हैं. beshak... See More
क्रोफा जी साहित्य की मुख्य धारा के बहाने समाज की मुख्य धारा के सामने भी लगभग समर्पण करने जैसी बात कर रहें हैं . लेकिन अभी हाल ही में एक शादी मे ट्रिल्ड्रि " का रस्म न निभाए जाने पर उन्हे काफी आहत देखा है मैंने. अभी रामायण के एक एपिसोड में अग्नि परीक्षा प्रसंग पर राम जी के व्यवहार पर काफी उद्विग्न दिखे. राशन भाई के ग्रूप मे इस संबंध में एक लंबा पोस्ट दिया है उन्हों ने. ज़ाहिर है इस मेटा - नरेटिव के मूल्य उन के लाहुली संस्कारों के लिए वाहियात थे. जब कि आप किसी आम भारतीय को पूछिए, वे राम के इस क़ृत्य को हर तरह से उचित बताएगा. बड़ी हद आधुनिकता की खाल ओढ़ कर बेशक चुप रहेगा , लेकिन अपने नायक पर उंगली नहीं उठाएगा. क्यों कि वह हमारा नायक नहीं था , हम प्रश्न कर पा रहे हैं. और जब प्रश्न कर पा रहें हैं तो निश्चय हीअपनी समृतियों, मिथकों का सहारा ले कर, हम अपने मिनि नरेटिव ज़ को रिवाईव भी कर पाएं गे.बल्कि नए आख्यान भी गढ़े जा सकते हैं.... जो कि मेरी समझ में साहित्य का वास्तविक प्रारब्ध है ( हासिल)
January 21 at 6:59pm
Ajay Lahuli
अजेय भाई, राम अब लाहुली समाज का भी 'नायक' दिखता है. राम की पैठ लाहुली समाज में भी है. राम की शरण में पहुच चुके लोग कबायली संस्कार को कब तक सहेजेंगे? "ध्वारी" हमारे समाज का हिस्सा बन चुका है. क्या खोया-पाया में बहुत सी दलील आयेंगे, लेकिन ये परिवर्तन का दौर कब तक चलता रहेगा?
January 21 at 8:11pm
Ajay Kumar
परिवर्तन तो चलता ही रहेगा. लेकिन रामायण को ठीक से पढ़ लो तो फिल हाल इस स्टेज पर हमारा नायक राम नहीं हो सकता. यह तो हवा के ज़ोर से आभास हो जाता है.जो राम को नायक मानते हैं उन में से कितनो ने बाल्मीकि रामायण.... चलो वह बडी बात है, रामचरित मानस ही ठीक से पढ़ लिया होगा?
"
ढोल, गवार शूद्र , पशु, नारी , ये सब ताड़न के अधिकारी" .....
लेकिन हम पढ़ेगे नहीं ... See Moreतो राम बड़े आराम से हमारा नायक हो जाएगा. और हम सीता को आग पर बिठाते रहॆंगे. जब कि हमारे संस्कारों में स्त्री को आग पर नहीं बैठाया जाता है.न उस की देवी मान कर पूजा होती है.यहाँ उसे आम भारतीय समाज के मुक़ाबले ज़्यादा मानवीय, और बराबरी का स्थान प्राप्त है. जो कि हमारे समाज का प्लस प्वाईंट है. क्यों नहीं सहेजेंगे? समझाओ, लेखक का और क्या रोल होता है ? बात राम या किसी भी ऐसे एलिमेंट के पैठ होने की नहीं है. बात ग्राह्य और त्याज्य का फैसला करने की है.और यह विवेक ही आप को आधुनिक बनाता है. तुम च्न्द्र ताल वाला वह मेरा चौदह साल पुराना लेख ज़रूर पढ़ो.
January 21 at 10:19pm
Ajay Kumar
और हमारी नारी, अशोक वाटिका में बैठी छूई मुई सीता भी नहीं . सतीश लोप्पा का गीत अतीत पढ़ो. उस में सूरज चाँद के आख्यान में हासुलि का अपहरण होता है. हासुली काम काजी स्त्री है, और सीता से ज़्यादा आत्मीय चरित्र है , लाहुली नारी के लिए.
January 21 at 10:35pm
Ajay Lahuli
दलील आश्वस्त करता है. फिर भी आज साफ़ दिखता है कि 'ओरल ट्रेडिशन' के पात्र हम दशकों पहले ही अपने समाज से खदेड़ चुके है. राम ही नहीं कई नए 'अवतारों' ने गेसर के 'लिङ' साम्राज्य को सिकोड़ दिया है. नेपथ्य में जा चुके कबायली पौराणिक पात्र अपने ही समाज में बेदखल दिख रहे हैं. राधे-राधे का सत्संग, ब्रह्म बनने का पाठ रटते, निर आकार बनने चाह में क्या कुछ छूट रहा... See More है, फिलहाल ये परवाह नहीं के बराबर है. और तो और 19 वीं सदी का नाकाम 'जीजस' अब फिर लौट आया है. 'डालर' पर सवार अपनी चमक बिखेरने को आतुर. इधर, मैत्रय के आगमन के धूम-धड़ाके में 'बुद्ध' सहम सा गया है. देव भूमि में नए अवतारों का 'वर्चस्व' तेज़ी से कायम हो रहा. तिरस्कृत ग्राम-देवता 'पलायन' के स्टेज तक जा पहुंचे हैं. संस्कारों की बात अब दिल बहलाने के लिए ही है? ऐसे परिवर्तन से हम क्या हासिल करने वाले हैं?
January 22 at 8:37am
Ajay Kumar
Vahi To bhai,media ka kya role banta hai ?
Aam Aadmi to hamesha yahi karta hai, khud door ja kar chhoot gaya chhoot gaya chillata hai. Tum chin ka role nibhao to ....
January 22 at 9:29am via Facebook Mobile
Ajay Kumar
तो फिल हाल ह्म साहित्य की परिभाषा पर थे. सुरेश, चन्द्र ताल के एक अंक में तुमने हासुलि के मिथक पर एक कविता लिखी थी. वह लोगों को ठीक से समझ नहीं आई. मुझे भी उस के थीम को ले कर कुछ प्रश्न करने थे. फिलहाल आज तुम हासुलि को कैसे देखते हो? क्या उस चरित्र पर कोई नया आख्यान रचा जा सकता है? रचा जाना चाहिए? या कि यह विरासत के साथ छेड़खानी कही जाएगी....
January 22 at 7:07pm
Suresh Vidyarthi
I dont really remember the poem but, yes! I do remember the theme..Hansuli represents the aspirations and yearnings of a girl who wants to have her say in the society and the family which she is a part of...Male dominance in our society is so inherent that it is practiced and accepted unquestioned. If women in our society enjoy the equal status... See More .....Its a shame to have RIWAZ-E- AAM in the shelves of our "VIRASAT".
# My Hansuli will again defy the reign of 'Surja' and 'Chandura' if she is forced to.
# She is still duped to carry "GHOP" and gets a Ghundu for it.
# I wish to develop her into 'Nirmala Puttu'.
# "Chhedkhani" ? @#$^%$$
January 23 at 10:40am
Ajay Kumar
तुम ने भी अजय की तरह कई मुद्दे एक साथ उठा दिए. हालाँकि सारा कुछ मौजू( रेलेवेंट) है.और अंतर्सम्बन्धित(इंटर्रेलेटेड) भी. फिर भी सभी मुद्दों पर एक साथ चर्चा छेड़ेंगे तो हम भटक जाएंगे. शुक्र है दूसरी कविता की याद तुम ने खुद ही दिला दी. मूल पट्टनी भाषा में "स्वंङ्लो मेचिमी उई अयों अपिल तचे" चन्द्रताल में एक विचलित करने वाली(डिस्टर्बिंग) कविता थी. ... See Moreउन दिनों मैंने कुछ महिला मण्डल भवनों की दीवारों पर उस कविता के पोस्टर भी लटके देखे थे. बाद में असिक्नी के प्रवेशाँक के लिए उस का हिन्दी रूपांतरण हम ने मिल कर तय्यार किया था..क्यों कि ये कविताएं लाहुली स्त्री की पूर्व निर्मित छवि को सिरे से ध्वस्त करती थी..यह क़बाईली समाज में स्त्री विमर्श का नया पाठ तय्यार हो रहा था. जो कि बहुत से लोगों को आज भी हज़म नहीं होती. उन की नज़र में यहाँ सब सब कुछ ठीक चल रहा है. लाहुली समाज में स्त्री खुश है.लेकिन आप की तरह ही मैं भी सह्मत नहीं था. उसी दौरान मेरी " ब्यूँस की टह्नियाँ" भी आप लोगों को काफी पसन्द आई थीं.
बहर हाल, औरत मर्द की बराबरी से बड़ा युटोपिआ (खास तौर से पितृ सत्तात्मक समाज में) कुछ भी नहीं है. रिवाज़े आम एक मुद्दा है, और रहेगा. मैं यहाँ रेलेटिव टर्म्ज़ मे बात कर रहा था. कि उस कथित सभ्य समाज(मेटा) की तुलना में हमरे(मिनि)समाज की औरत ज़्यादा अच्छा दर्जा रखती है. तो परिवर्तन के नाम पर हम अपना यह प्लस प्वाईंट न खो दें. इस संदर्भ में हासुली का चरित्र मुझे हॉंट करता है. जो कि बकौल त्म्हारे अपहरित होने के लिए( फोर बीएंग एब्डक्टेड) उत्सुक थी.यद्यपि उस का यह विद्रोह (रेबेल्लियन) मूल मिथक में ज़ाहिर न था, लेकिन तुम्हारी की यह छेड़छाड़ मुझे प्रासंगिक(रेलेवेंट)
लगी. कूज़ी विवाह के संदर्भ में . मै यह पूछ रहा था कि क्या हम इस चरित्र के आधार पर ' सुर्जा चंदूरा' की दंत कथा को एक मिनि नरेटिव के रूप में ' मेग्निफाई' कर सकते हैं ?
क्यों कि साहित्य भी एक परिवर्तन शील फिनॉमिना है. हिन्दुस्तान का नायक वेदिक साहित्य में जब इन्द्र था, तब विष्णु तो एक गौण चरित्र था. बाद में जनता ने इन्द्र को इंटेर्रोगेट करना शुरू किया तो पौरणिक काल मे विष्नु जी स्थापित हुए. फिर एपिक एज में क्रम्शः राम और कृष्ण हमारे नायक हुए. मेरा यह कहना है कि राम या इन जैसे छीज चुके मूल्य को डॉक्युमेंतेशन करने की बजाए हम क्यों न नए, ज़िन्दा आख्यान गढ़ें? राम से अन्यथा न समझॆं, एक उदाहरण था वह. वह अपना गेसर खान भी हो सकता है.
Ajay Lahuli
#मुझे लगता है के 'ध्वारी' साहित्य एक प्रेरणा की तरह है, जब आप अपने साहित्य को 'गड़ते' हैं तो उसकी 'सडन' को दरकिनार कर नए आख्यान से अपने समाज को नई खिड़की से झांकते हैं. दिखता है कि पिछले कुछ दशकों से हम परिवर्तन की बयार में बहते ही चले गए, ये तय है कि बहने की गति कभी कम तो होगी. जब एक 'डेस्टीनेशन' पर अटक जायेंगे तो जमा-गुना का पहाडा फिर याद आने लगे... See Moreगा.मुझे लगता है कि साहित्यिक स्तर पर असली शुरुआत तो तब आरम्भ होगी. अजेय भाई आप कहते हैं कि परिवर्तन तो चलता रहेगा. तो क्या हम उस शुरुआत के लिए तरसते ही रहेंगे?
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ओरल ट्रेडिशन हमारे समाज का साहित्य ही है' लेकिन उस साहित्य में घुसने की कोशिश नहीं है. कहीं व्याख्या को लेकर असाहय हैं, तो कहीं इस साहित्य का हस्तांतरण बाधित दिखता है. जिंदा आख्यान गढ़ने के लिए हमारा समाज उस पड़ाव पर फिलहाल नहीं है. ऐसे में व्याख्या और हस्तांतरण के विकल्प को कैसे देखते हैं?
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बड़े भाई, नारी विमर्श और समानता को लेकर हम दलील दे रहे हैं, और कबायली समाज में नारी की स्थिति को लेकर हम आश्वस्त भी दिखते हैं. कहीं ये हमारे समाज की 'नेचुरल राईट' के जेन्यूइन सवाल को टालने की 'साज़िश' तो नहीं है? ये दलील भी सुनता हूँ कि ' प्रकृति के तमाम जीव-जंतुओं में नर का वर्चस्व दिखता है और मादा भी नर के वर्चस्व को स्थापित करती है' क्या ये सिर्फ हमारी मानसिकता भर ही है?
January 24 at 11:03am
Ajay Kumar
अजय, विषयांतरण हो रहा है, लेकिन कुछ कंफ्यूजंज़ दूर हो जाने चाहिए. जिस समय का इंतज़ार कर रहे हो , इसी चर्चा में कह चुका हूँ कि बहुत पहले से आ चुका है.मैं ने पिता जी, आचार्य प्रेम सिन्ह जी, को मुख्य धारा के विद्वानों के साथ लाहुल की संस्कृति के जटिल पहलुओं पर उलझते देखा है. आठवें दशक में तो बाक़ायदा संगठित प्रयास इस दिशा में शुरु हो गया- घरसंगी जी, एल... See More एस एस ए और यूथ फेस्टिवल्ज़ .बल्कि आप लोगों ने इसी जागरण काल में होश सँभाला होगा. नवें दशक में चन्द्रताल का प्रकाशन इस दवाब का फल था कि इस संकट की अभिव्यक्ति के लिए हमें एक लिखित जर्नल की सख्त ज़रूरत महसूस होने लगी थी.
फिर रिंचेन ज़ङ्पो ने गीत अतीत को छापा. वह ओरल ट्रेडिशन को इंक -पेपर मे लाने का पहला बृहद प्रयास् था. और सतीश लोपा ने वह किताब रातॉं रात कंसीव नही कर ली होगी. एक लंबे अर्से का दवाब काम रहा होगा. इस बीच उन्हो ने दो महत्व पूर्ण कहानियाँ दीं हैं. सुरेश की कविताऑं की चर्चा हम कर ही चुके हैं. मैं ने 1984 से कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं.मनाली मे कला संगम के किशन, राम देव , शम्शेर,(शामू) , गौतम गुरुजी लोक णृत्य और संगीत को ले कर ग़ंभीर व्यवहारिक प्रयोग कर रहे थे. तोब्दन जी तब तक शायद इतिहास की तीन किताबें लिख चुके थे. दोर्जे जी देश के नामी विद्वानों ( जिन में हबीब तंवीर और राम दयाल मुण्दा जैसे लोग थे) से संवाद कायम कर चुके थे.लाल चंद ढिस्सा व्यवस्था से त्रस्त हो कर नौकरी छोड़ कर फुल टाईम एक्टि विस्ट् बनने का फैसला ले चुके थे . नवॆ दशक मे सद्प्रयास का प्रकाशन शुरू होचुका था.इसी बीच लाहुल में हिन्दी पत्रकारिता का अगाज़ हुआ,तुम खुद जिस के साक्षी हो. 2005 के आस पास कुंज़ोम और असिक्नी की नींव पड़नी शुरू हो गई थी. और ये 2010 है जब कि हम इस संकट को आभासी दुनिया मे डिस्कस कर रहे हैं और यहाँ हमें अशोक ज्ञल्त्सन मिले हैं. ( ठेंक्स टू राशन भाई)
अब किस शुरुआत का इंतज़ार है हमें? क्या तुम्हे लगता है कि हमारा समाज अभी साहित्य के लायक नहीं हुआ है? कथित पढा लिखा तबका बेशक न हुआ हो, लेकिन गाँव मे आज च्न्द्र ताल का बेताबी से इंतज़ार रहता है. एक महिला मंदल मे सोरेश की कविता लटकी देख कर मेने पोछा था कि यह किस ने लिखी है, तो जवाब मिला चन्द्रताल ने. मेरी ब्यूँस की टहनियाँ अंपढ़ औरतों को समझ मे आ जाती है. साहित्य मे सरोकारों से जुड़ाव ज़रूरी होता है, न कि बहुत ज़्यादा दिमाग और, एक्स्पोजर.
#
रही बात लाहुली समाज मे नारी की पोज़िशन की, तो हम क़तई आश्वस्त नहीं हैं . आश्वस्त होते तो हासुली को ले कर नए आख्यान की चिंता क्यों होती? लेकिन कुछ प्लस प्वईंत हमारे ज़रूर हैं जो सहेजे जाने चाहिए.
#
नारी विमर्श एक व्यापक और वैश्विक मुद्दा है, इसे यहाँ स्थानीय मंच पर घसीटे गे तो हम भटक जाएंगे.लेकिन रिवाज़े आम पर हम ज़रूर चर्चा करेंगे इसी मंच पे. ज़रा सब्र करो. हम साहित्य की सम्भावनाओं पर कुछ बात कर रहे थे . सोरेश, योर विटनेस प्लीज़.
January 24 at 7:50pm
Ajay Lahuli
अजेय भाई लगता है कि शायद मैं ही स्पष्ट नहीं कर पाया कि साहित्य के संदर्भ में शुरुआत की अपेक्षा 'आभासी लाहुल' के पड़े-लिखे लोगों से कर रहा हूँ. यही मेरा तर्क था कि आभासी लाहुल जिन्दा आख्यान गड़ने के लिए उस पड़ाव पर नहीं पहुंचा है. आभासी लाहुल अब भी अपने समाज में वो साहित्यिक योगदान नहीं दे पाया है जिसकी अपेक्षा हम कर रहे हैं. आप ही कह रहे थे कि रामलोक... See More जी की उस दौर में दो कहानियां (उर्दू में) प्रकाशित हुई है जब लाहुल की साक्षरता दर बहुत कम थी. आज तो हम गर्व के साथ अपने साक्षरता दर का ही बखान ही नहीं करते बल्कि कथित मुख्यधारा के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं, फिर भी अपने समाज को लेकर उदासहीन रवैये के साथ उपेक्षित सा व्यवहार करते दिख रहे हैं. सही कहा आपने कि साहित्य को लेकर कथित पढ़ा-लिखा तबका तैयार नहीं है, और यही मेरे कहने का आशय था. साहित्यिक स्तर पर एक वृहद् आन्दोलन नहीं तो एक ठोस भागीदारी होगी, ये मेरा (आपका) विश्वास भरा इंतज़ार है. जिस शुरुआत का ज़िक्र आपने विस्तार से किया है वे आभासी लाहुल को प्रेरित करेगा जो अब भी यही सोच रहे हैं कि कहाँ से शुरू हो और कैसे? लाहुल में कई स्तर पर शुरुआत हुई है, अब उस शुरुआत को पड़ाव तक ले जाने के लिए एकजुट प्रयास की दरकार है. देखना है कि 'यज्ञ' में आहुति देने कब, कौन और कैसे अपने आप को तैयार करता है?
#
सुरेश भाई को जबाव देते हुए नारी लेकर मुझे आपके स्वर 'लाउड' लगे तो मैंने इस मुद्दे को छेड़ दिया. उम्मीद है कि रिवाजे-आम के बहाने इस खिड़की पर भी चर्चा होगी.
January 25 at 3:48pm
Ajay Kumar
दो कहानियाँ नहीं, अजय पूरा एक संग्रह. और शायद एक निबंध संग्रह भी. खैर, संघर्ष और जज़्बे के उस दौर को हम ने देखा ही नहीं.ऊपर गफलत मे रामनाथ साहनी जी की किताब का ज़िक्र भूल गया . उस किताब का महत्व इस अर्थ में था कि एक कथित सभ्य संसार से लौटा हुआ आदमी अपने आदिम नेटिव समाज को कैसे देखता है. मैं अपने समाज को इस लिए भी खुश किस्मत समझता हूँ, कि आज के इस... See More ठस्स- भौतिकवादी (अब इस पद की अंग्रीज़ी मुझ से न होगी) दौर में भी इतनी ललक ( अर्ज) हमारे समाज में है. यह अलग बात है कि यह अर्ज व्यवहारिक ज़्यादा न हो पाई.हाय हाय ज़्यादा हुई. जब कि इस पड़ाव पर आकर हम सुस्ताने लायक हो चुके हैं. ज़रा सा समय और ऊर्जा और धन हम में से हर कोई छोड़ सकता है इस शुभ काम के लिए ( यद्यपि इसे यज्ञ कहना ठीक नहीं लगता मुझे. ).और खुद भी इसी उमीद में इस "शाश्वत खाज" को जिलाए हुए हूँ. बहर्र्हाल चिन बनने की लालसा फिर भी नहीं है.
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लगता है सुरेश हासुली का उपाख्यान रच डालने के बाद ही कुछ बोलेंगे. उसे शुभ कामनाएं.
जेठा जेठा कुड़िए नमो नारणा ब्याही जि ए.......
January 25 at 5:11pm
Ajay Kumar
तेठी कना कुड़िए लचा चारुणे गेई जी ए.....
WHY DO WE LOVE HAASULI , BOYZ ?
January 25 at 5:36pm
Ajay Lahuli
बड़े भाई लगता है कि सुरेश भाई 'हासुली' के हर पहलु को खंगालने में लग गए हैं, पूरी तैयारी के साथ हासुली को नए सिरे से 'इंट्रोड्यूस' करने की जुगत में हैं!!!!!!! सुरेश भाई ऐसा है क्या??? हासुली का संदर्भ अपनी नानी से बहुत छोटे में सुना था, आप दोनों चर्चा कर रहे हैं तो कुछ बातें मेरी भी 'रिकाल' हो रही है. यहाँ में स्पष्ट कर दूँ कि मैं तोद घाटी के गेमूर ... See Moreगाँव से हूँ, मेरी माँ पट्टन से है तथा जन्म, शिक्षा के साथ बचपन पुनन (गाहरी) के साथियों के बीच केलंग में गुज़रा है. यही कारण है कि तीनो बोलियों को समझने, बोलने के साथ तीनों समुदायों के सांस्कृतिक संस्कार (थोड़े-बहुत??) आ गए हैं. यही कारण है कि में बहस में बुरे (या अच्छे?) तरीके से टांग अड़ रही है. खेर..चर्चा साहित्य की हो रही थी. अजेय भाई' आप कह रहे थे कि अब हम इस पड़ाव पर सुस्ताने लायक हो गए हैं, पर मेरा मानना है कि सुस्ताने के बजाय हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, इतिहास को लेकर कथित मुख्यधारा की भ्रांतियों को भी दूर करना होगा. साहित्य की रचना करते हुए संस्कृति को लेकर विद्वता कर छदम उतार कर संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में राजनीतिक विचारधारा के अनुसार 'अपनी व्याख्या' से भी परहेज़ करना होगा. ऐसा साहित्य मुख्यधारा के लिए संदर्भ बनता है, उधर, एक तो शब्दों का सही उच्चारण नहीं होता और जब लिखा जाता है तो कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है. प्रतिष्टित प्रकाशनों के इतिहास, सामान्य ज्ञान की किताब देखे तो खीज होती है. स्थान के नाम सही नहीं होते, 'याक' दूध 'देती' है, जीरा लाहुल का 'नकदी' फसल है...इत्यादि-इत्यादि... ऐसा क्यों हो रहा है?? क्योंकि हम इस बात की परवाह ही नहीं करते कि कौन क्या लिख रहा है? एक बात और मुख्यधारा मूर्दन्य '' (श के नीचे ट्र जैसी मात्रा) का उच्चारण जानता ही नहीं, लेकिन हमारी बोली व भाषा में इस से जुड़े बहुत सारे शब्द हैं. जैसे तोद में केश, गहार में शर्म, पट्टन में घास के लिए प्रयुक्त स्थानीय शब्दों में मूर्दन्य '' का प्रयोग होता है. अपने समाज के सकारात्मक बिंदु हम अनदेखा ही करते आये हैं. जो भी प्रयास अब तक हुए हैं सुंदर हैं तथा आश्वस्त भी करते हैं लेकिन वर्तमान समय में हमारा प्रयास पर्याप्त नहीं हैं. अब समय आ गया है कि हमारे साहित्य में लाहुल को 'वंडर या मिस्टिक' लेंड बना कर प्रस्तुत करने के बजाय धरातल की सच्चाईयों को और सशक्त तरीके रखे. क्या ऐसा हम कर पाएंगे???
January 26 at 10:56am
Ajay Kumar
दर असल कुछ चीज़ें सुधरते सुधरते ही सुधरती हैं. आप लेखकों को सावधान कर रहे हैं , अच्छी बात है. व्याकरण और भाषा की त्रुटियाँ रहती ही हैं.इधर सोच यह है कि बात कनवे हो जाये , काफी है. भाषा संबंधी ज़्यादा तर अराजकता अधकचरी, और गैर ज़िम्मे दार पत्रकारिता से आयी है . बल्कि सूचनाओं और जानकारियों को ले कर भी गड़बड़ियाँ( पुराने दस्तावेज़ों को ठीक से समझ न सकने ... See Moreके कारण ) अखबार की दुनिया में ज़्यादा हो रही हैं. मैं ने कई बार देखा है, बेचारा रिपोर्टर जी जान लगा कर चीज़ों को दुरुस्त करवाता है, लेकिन छप कर वही सामने आता है जो डेस्क पर बैठा विद्वान चाहता है. ऐसा अकसर साँस्कृतिक खबरों में होता है. याक वाली बात रोचक है. हमारे में याक की मादा शायद "ब्रीः " है, मुझे ठीक से नहीं मालूम,मेरे पुराने घर में ब्रीः का दूध जमाने/ बिलोने के लिए एक स्पेशल 'ढन्नु ' होता था .चंद्र ताल के किसी अंक में याक के वर्ण संकर नस्लों का टेबल दिया गया था.कुछ बुज़ुर्ग उस पर भी प्रश्न कर रहे थे. लेकिन आज तो याक केवल संतति ( ब्रीडिंग) के लिए रखते हैं .और प्रायः मयाड़ अथवा ज़क्स्खर से खरीद लाते हैं. मादा याक को अंग्रेज़ लेखकों ने याक ही कहा है शायद. तो अखबार में आ कर याक दूध देगी ही न?
जहाँ तक हमारे अपने लेखक हैं, इस मामले में काफी सावधान हैं.बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा ही. हिन्दी वाले तो इतने व्याकरण क़ाँशस हैं, कि हिन्दी जिन की मातृ भाषा है, उन्हे भी चन्द्रताल की भाषा अटपटी और नकली लगती है. मतलब कि गलत तो नहीं है, लेकिन ज़मीनी नहीं है. हमारे अपने प्रबुद्ध पाठकों की भी यह शिकायत रह्ती है कि, हमारी हिन्दी रीडर फ्रेंडली नहीं है. और ये शिकायत वाजिव भी है.
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सुस्ताने का मतलब है, भौतिक चिंताओं से उबर कर कुछ देर के लिए मानसिक , आत्मिक प्रश्नों से उलझना, आत्मावलोकन करना.......खोए, छूटे हुए जीवन मूल्यों पर एक नज़र डालना.
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पूर्वाग्रहों से बचना होगा. मैं भी यही कह रहा हूँ . यार अजय तुम वह पन्द्रह साल पुराना लेख एक बार पढ़ ही लो. वह तुम्हें ट्रेक से बाहर नही जाने देगा.जहाँ तक विचार धारा की बात है, तुम लाख तर्क दो, बज़ार वाद , भूमण्डली करण और नव् साम्राज्यवाद से निपटने का रास्ता तो हमें खोजना ही होगा. हल किसी विचार धारा में नही मिलेगा, हमे खुद अपने भीतर की ओर देखना पड़ेगा, यह मेरा मानना है. अशोक जी के श्ब्दों में अपने मिनि नर्रेटिव में. पता नहीं सोरेश हासुली की कैसी छवि पेश करने वाले हैं..........
हासुलि,, कहा हो तुम?
आ जाओ, वर्ना तुम्हारी याद मे एक प्र्म कविता लिख दूँगा, जो आज तक नही लिख पाया.
January 26 at 4:37pm
Ajay Kumar
"संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में राजनीतिक विचारधारा के अनुसार 'अपनी व्याख्या' से भी परहेज़ करना होगा. ऐसा साहित्य मुख्यधारा के लिए संदर्भ बनता है,"

यहाँ फिर कंफ्यूजन है. हम अपने साहित्य को मुख्यधारा के लिए संदर्भ क्यों बनाऎं? क्या ज़रूरत है? हमें तो उस विरासत में अपने आधुनिक युग के संदर्भ खोजने हैं. क्यों कि मुख्य धारा का साहित्य हमारे लिए नाकाफी है, जैसा कि अशोक जी का मानना है.
January 26 at 5:58pm
Ajay Lahuli
जरूरत क्यों नहीं है??? फिलहाल कंफ्यूजन कोई नहीं है. मैंने मुख्यधारा की भ्रांतियों की बात की है बड़े भाई. लाहुल के सन्दर्भ में कोई पढना या जानना चाहे तो ये तो नहीं होगा न कि लाहुल के लोगों से संपर्क किया जायेगा. प्रतिष्टित प्रकाशन हाउस जायेगे और खरीद लेंगे किताब, चाहे उसमें 'अधकचरी' जानकारी ही क्यों न हो!!! दलील सिर्फ इतना है कि लाहुल को लेकर हम कित... See Moreनी विश्वसनीय बात साहित्य में करते हैं तथा उस विश्वसनीयता को कैसे विस्तार देते हैं? विरासत में आधुनिक युग के सन्दर्भ हमें खोजना है, मुख्यधारा को नहीं..क्यों?? मुख्यधारा को सिर्फ हम सही तस्वीर तभी दिखा सकते हैं जब हम खुद उस तस्वीर के अलग-अलग पहलु साहित्य में उभार पाएंगे. ये तो आप मानेगे कि प्रतिष्टित लेखक गलत भी लिखता है तो वे भविष्य का संदर्भ तो बनता ही है और उस गलत तथ्य की व्याख्या भी आरम्भ हो जाती है.सिर्फ पत्रकारिता को कोस कर मसला हल नहीं होगा, हम भी इस गलत व्याख्या को दूर करने के लिए कितने सक्रिय हैं. ये सवाल भी तो उठता है.
January 27 at 4:35pm
Suresh Vidyarthi
Dear Ajey (both) ......finally I am back after long celebrations of Republic Day.I am happy that I took part in the celebration thuogh I had to walk 5 km on snow.I danced, I sang, I unfurled the tricolour in few places.I served the tea and snacks to our @#%ing dignitories because I am a member of Mahila Mandal and the Mahila Mandals are supposed ... See Moreto serve tea on such occasions and sweep the every "ghrussu" of village. I sat on dusty "duree" for whole day resting my chin on my palm and watched myself dance and sing and went home satisfied.....but this was my share of national duty.When I was serving "chai pakora' , @#$$ dignitory reminded me of Raghu Dom.



The men of our village celebrated it their way. They were playing "chholo" while we sang "Hendu Bharto Punza Raangi".Bhai jee,this year I went to 'Chhebbi' wearing the ghundu which i bought this summer, but not the ones I use to earn every autumn. Baki Agli chithee mein.




Apki



Hansoli
January 27 at 8:15pm
Ajay Kumar
देखा, वह आ गई!
इस बहस को यह 50... See More वाँ कमेंट मुबारक. हासुलि आयी तो, लेकिन हिन्दी साहित्य को एक हृदय विदारक प्रेम गीत से वंचित कर गई.दुविधा में हूँ कि इस वाली हासुलि को प्रेम करूँ या कि सम्मान? पुरानी वाली पे तो तरस ही आता था .हासुलि क्या तुम अपने उन गाफिल भाईयो, पिताओं और भतीजों को छत पे छोलो खेलता छोड़् सचमुच किसी रघु डोम के साथ भाग जाना चाहती हो, बिना मेरी, अजय लहुली, और कथित मुख्य धारा की परवाह किए, जो तुम्हारे आख्यान को अपने पाठ का * संदर्भ* बना देना चाहते हैं ?
कहते हैं , यथार्थ ( reality) अकसर उदात्त ( सबलाईम ) नहीं होता.लेकिन तुम्हारे यथार्थ में मौलिक (ऑरीजनल) उदात्तता है. अजय अब क्या फर्क पड-ता है कि मुख्य धारा का याक दूध देता है, कि वह तालव्य *श* और मूर्धन्य *ष* में फर्क़ नहीं कर सकती, या कि जीरा को लाहुल की नकदी फसल मानती है, या कि ऐसी ही ढेर सारी भ्रंतियों में जीती है........... हम अपनी भ्रंतियों को दर किनार कर इस यथार्थ को पहचानें, यह ज़्यादा ज़रूरी है.....वैसे हमे हासुलि के साथ साथ इस बहस के *संस्थापक सदस्यों* की भी प्रतीक्षा है बहरहाल, हम .हासुली की अगली चिट्ठी का इंतज़ार करें , और अगली खिड़की पर क्लिक करने के लिए अजय भी तय्यार रहे.
January 27 at 9:22pm
Ajay Lahuli
बड़े भाई तकनीकी तौर पर पचासवें कमेन्ट के साथ में नारी विमर्श का सवाल उठा रहा हूँ. मुझे लगाता है कि हसुली उस शिद्दत से नहीं आई जिस का हमें इंतज़ार था. ये बात और है कि अशोक जी फेस बुक से दूर रह कर चर्चा में हिस्सा ले रहे हैं. उनकी दूरी आप को नहीं खल रही है मगर मूल बहस की शुरुआत कर किनारे से 'मज़ा' लेने की मुद्रा कब तक अख्तियार करेंगे, कभी तो कूदना पड़ेग... See Moreा. सुरेश भाई ने जिस का जिक्र किया क्या वही 'लाहुली' हसुली है? क्या हम हसुली को इस आख्यान से परिभाषित करना चाहते हैं?? मूल स्थिति पर छाई धुंध को सांकेतिक तौर पर सुरेश भाई ने साफ़ कर दिया, असल मुद्दे पर सपाट टिप्पणी कब करेंगे? ऐसे दलील से लाहुली समाज में नारी विमर्श के चर्चा पर क्या हम बचना चाहते हैं??? ( ऐसा आपके जबाव से भी लगा) भाई मेरी माँ हमेशा कहती है 'मेच्मी रे घोप चेल्जे ला श्रिंगमी ( मूर्दन्य ष), गंग्मी तिंग दुला खरे' इस तथ्य की पुष्टि मेरी सास भी करती है. साफ़ है कि लाहुल का मर्द औरतों की तुलना में अब भी धरातल को छु नहीं पाया है. मेरा मानना है कि लाहुल का समाज पितृ व मातृ सत्तात्मक समाज का मिश्रण है. इसमें संदेह नहीं की मुख्यधारा की तर्ज़ पर हमारे समाज में भी पुरुष अधिक हावी है. ऐसे में नारी से जुड़े सवाल कब तक हम टालते रहेंगे? बेशक हमारे समाज में औरतों की स्थिति बेहतर है. स्पीति में छोटे भाइयों को सम्पति का अधिकार नहीं है, लेकिन लाहुली समाज में नारी के अधिकार का सवाल अधिक मुखरता से उठता दिख रहा रहा है. क्या ये विकसित सोच व शिक्षा का परिणाम है या महज ढकोसला?
January 31 at 11:13pm
Ajay Kumar
वाक़ई अजय , नारी विमर्श एक तक़नीक़ी मसला है.इसे टालने का मेरा मक़सद यही था कि हासुली शिद्दत से आए. लेकिन इस चिट्ठी को पढ़ कर लगता है कि एक सपाट टिप्पणी खुद हासुली के पास भी नहीं है.15... See More साल पहले तक वह *अपहरित होने के लिए उत्सुक* थी..जबकि तमाम भीतरी असंतुष्टियों(बरफ पैदल चलना,घ्रुसु-घाड़ी झाड़ना , चाय पकौड़ा सर्व करना,अतिथि महोदय की गंदी नज़र को झेलना, मर्दों का छोलो खेलना )के बावजूद आज कह रही है कि इस गणतंत्र दिवस पर मैंने झंदा फहराया, नाची, गाई, हथेली पर ठोडी टिका के तमाशा -सलीमा देखा .और् जो घुंडु पहना है, वह *घोप* ढोने के बदले मे प्राप्त खैरात का नहीं है, बल्कि खुद का खरीदा हुआ (छेति ?) है. और इतने भर मे खुश है.खुश ही होगी, वर्ना क्या विरोध् दर्ज नही करती? और तुम कह रहे हो कि नारी अधिकार का स्वर मुखरता से उठ रहा है. मुझे तो लगता है यह स्वर दब गया है. खैर, मैंने उसे पूछा है कि आज भाग जाने के बारे उस का क्या खयाल् है.........? संभव है अगली चिट्ठी में उस का जवाब मिले..... आप लोगों को याद होगा ,कुछ साल पहले लाहुल के महिला मंदलों मे हिमिका नाम की एक ONE (WO)MAN NGO घूमती थी. मुझे मालूम नही था कि वह उन्हे क्या समझाती थी. मैं वज़ीफा बाँटने जाता था तो अक्सर इस कन्या से टाकरा हो जाता था. एक दिन मैं योचे गाँव से लौट रहा था तो हाथ मे मोटी मोटी कानून की किताबें थामे यह लड़की दार्चा सुमदो में मेरी गाड़ी की बोनट पर बैठी मिली. उ से लिफ्ट चाहिए थी, मैंने बहाना बनाया कि अभी मुझे छिका तक जाना है गलीचा सेंटर खोलने . लेकिन उस ने कहा कि छिका मे तो मुझे भी काम है. उस ने मुझे कुछ पर्चियाँ दिखाई, जिस मे श्री अशोक ठाकुर जी, श्री सुभाष नेगी जी, और ऐसे दर्जनों बड़े लोगों के हस्ताक्षर थे.मुझे ज़्यादा देखने कि ज़रूरत नहीं पड़ी. क्यों कि उस मे हमारे निदेशक महोदय की भी एक पर्ची थी. गाँव पहुँच कर हम दोनो ने अपना काम शुरू किया. मेरे पास तो सौ रुपय माहवार की स्कीम थी. उस के पास मोटी स्कीम थी. पिता की संपत्ति पर बेटी का बराबरी का हिस्सा. मेरे मन मे इस लड़्की के प्रति इज़्ज़त के भाव आये. इस महान अभियान मे अपना योगदान देना चाहा था. लेकिन एक माह बाद खबर मिली कि तोद घाटी के एक गाँव की महिलाऑं ने उसे अपना सामान पेक करने का फतवा जारी कर दिया.उस बंगालन का तो पता नहीं क्या हुआ, लेकिन वह दिन और आज का दिन मुझे इस मुद्दे पर बात करते हुए झुर्झुरी होने लगती है. शय्यद subcounscious मे यह डर भी बना हुआ था कि इस मुद्दे को टाल रहा था.

क्यों न अपनी हासुलियों की राय ली जाए, इस मुद्दे पर. फेस बुक मे कितनी हासुलियाँ हैं आप लोगों के सर्कल में ? इधर तो
कंगाली है. इस बात को ले कर ज़रा शर्मिन्दा भी हूँ.
February 1 at 6:27pm
Roshan Lal Thakur
DEAR SIR GUSTAKI MAAF MEIN Sh.Kropha jii ke apne lahoul spiti mein likhe bhicharon ko is lekh me daal raha hoon lagta hai Sha Kropha jii face book se comfortable nahi hain
roshan
Priye mitro,
Juley!
Ramesh jee ke ek post ke baad, Gyeltsenjee ne jo ek behas chhedi thee, us-e Ajay ne dobaara utha kar, aur Ajay Lahuli, Suresh tatha anye mitron ... See Morene us mein shaamil ho kar is ko na keval ek ‘discourse’ mein parivartit kiya hei, balki us ke s-tar ko bhee kahin ooncha utha diya hei. Unkee bhasha kee giraft, aur shaili kee khoobsurati dekhte hee banti hei – baar baar padhne ke liye uksaati hein, aur har bar zaayka pehle se kahin dobaala hee hota hei. Aur abhivyakati itnee sashakt kee padhne wale ko chintan-manthan ke liye majboor kar deti hei. Jab itnee pratibha apne yahan maujood hei to yeh to teh hei ki der-saver ek aise sahitya kee san-rachna avashya hogi jise ham khaalis ‘apna’ keh paayengen (mini-narrative in the words of Gyltsenjee). Aur in sab se preranaa lete hue, nayi pratibhaayen bhee nikhar kar saamne aayengin. Yahi dua tah-e-dil se karte hein ki ‘Woh’ inkee soch ko aur saahas dei, va inkee qalam ko aur shakti dei, taaki is abhiyaan ko poori nishtha se sar-anjaam de saken.
Ajay ke anugraheet hein ki Gyltsenjee ke saath chidde dialogue ko is qaabil samjha ki us-e apnee sahityik patrika mein jageh de saken. ‘Transmission loss’ ka khayaal rakhte hue, us-e apne mool roop mein hee udharit bhee kiya. Us se bhee badh kar khushi kee baat yeh hui ki unke is-e chhoote hee jaise yeh dhanya ho gaya, aur anek log (Lahuli, Suresh …) is se jud gaye, aur kitne hee naye aayaam ubhaar kar saamne le aaye. Ab to chaska sa ek aisa lag gaya hei ki roz jab tak ek nazar is charcha par nahin padhti, tas-Sali nahi hoti. Ab Gyltsenjee bhee charche mein laut aayen hein to jigyaasa thodi aur badh chali hei.
Ek suljhe hue sahityakaar, ek pratishthit patrakaar, ek shikshavid, ek research scholar – in ke beech, inh-in kee zubaan mein ghuspeth karne kee cheshta … is-e dus-saahas hee kaha jaayega. Hamare himmat kee to daad deejiye, huzoor!! Koi baat nahin – badi had naak hee kategi. Par jab charcha apne ilaaqe aur apne samaaj ke ‘Kal-Aaj aur Kal’ par ho rahi ho, to us-se kinaara kar ke baitha nahin jaa raha hei. Fir, matlab to apni baat saamne rakhne se hei, bhale jis bhee zubaan mein rakhen, jab tak doosron tak woh baat pahunch jaati hei, aur baat unhen samajh aa jaati hei, samvaad to poora ho jaata hei. Han, bhasha kachchi-pakki ho sakti hei, shaili aruchikar ho sakti hei, par soch ‘apni’ hei (Sureshjee ke shabdon mein), ‘imaandaar’ bhee hei (Lahulijee ke shabdon mein), aur ‘nish-kapat’ bhee hei. Na hee is mein koi safaai dene kee koshish hei (anivaasi Lahoulion kee jaanib se) kyonki mujhe koi apraadh-bodh nahin dikhta.
Filhaal, is baar chand tip-pniyan hee yahan jod raha hoon.
Mujhe is raay se poora itefaq hei ki hamen apne dharohar ko pehle poorn roop se jeena seekhna hoga. Tabhi is kee sarthakta bani rahegi, yeh jeevant rahegi, aur aage bhee panpegi phoolegi. Is se katraayengen to bhale hee pustakaalyon-sangrahlayon mein yeh uplabdh rahe, par is ka jeevant roop mit jaayega. Par yeh bhee to hei ki who sab jo ab bhee apni mitti se jude hue hein, wahin rehte hein, raat-din mashaqaat kar ke jeevanyaapan karte hein, woh to is-e bharpoor jee hee rahen hein. Teen teen peedhiyan wahan reh rahin hein. Unkee jeevan- shaili apne dharohar se alag kaise maani jaa sakti hei? Wahi to us dharohar ke prateek mane jaayengen.
Parivartan us jeevan shaili mein avashya aaye hongen. Woh bhee to ek jeete-jaagte samaj kee nishaani hee mani jaayegi. Hamaara Lahouli samaaj bahut hee ‘dynamic’ samaaj hei. Is mein ‘adapt’ aur ‘adopt’ karne kee adbhut kshamta hei. Aur yeh ek garv ka vishay hei. Apne jeevan kaal mein jitney badlaav maine apne Lahoul mein dekhen hein, shaayad hee us kee misaal duniya mein kahin milti ho. Jahan bhee avsar milta hei, is baat ko ham log danke kee chot par doosaron ke saamne rakhte hein. Jin mushkil paristhitiyon mein hamaare poorvaj rahe hein, aur ham bhee rahen hein – un-se joojhane ke liye aur is ke baavjood bhee aage badh paane ke liye, yahi kshamta bahut sahaayak hui hogi. Kya is par afsos jataane kee gunjaayish hei?
Samay kee gati ko rokna to kisi bhee samaj ke liye mumkin nahin hei. Samay ke saath parivartan bhee swaabhawik hei, is-e rokna shayad mumkin na ho.
Parivartan ka rukh kya ho – kya wahan par chayan karne kee gunjaayish rehti hei? Yeh ek mudda ho sakta hei. Aur jab ‘choice’ kee gunjaayish thee to wahan par kya ham logon ne sahi raasta chuna – yeh bhee shayad charcha ka vishay ho sakta hei.
Ab tak kee jo charcha hui hei, us-se, jahan tak mein samajh paaya hun, lagta hei ki do vikalp ho sakte thei. Ek yeh ki doosaron par aashrit na reh kar, ham apna hee ek swablambi samaj banaate. Apne moolyon, apni rivayaton, apni sanskriti, apni viraasat, apni pehchaan se koi samjhouta nahin karte – inkee ‘pristine glory’ (Ajay is ka tarjuma de sakte hein) ko har haal mein banaye rakhte.

Doosara vikalp woh hei, jahan ham doosare samaajon se judte hein, un se samajik-sanskrit-aarthik s-tar par aadan-pradaan karte hein. Bahut kuchh lete hein, aur kuchh unhen dete bhee hein. Apne daayare kuchh badhaate hein, kuchh doosaron ke daayare mein ghuspeth kee koshish bhee karte hein.
kropha
February 2 at 10:35am ·
Roshan Lal Thakur
countinued
DEAR SIR GUSTAKI MAAF MEIN Sh.Kropha jii ke apne lahoul spiti mein likhe bhicharon ko is lekh me daal raha hoon lagta hai Sha Kropha jii face book se comfortable nahi hain
roshan

Donon vikalpon ke apne pros and cons hein. Ek dynamic samaj ke liye doosara vikalp hee vaajib tha, aur shayad yahi vikalp ham ne chuna bhee. Beesvin aur ... See Moreekeesavin sadi mein, jab takneeki kraanti ke chalte poora vishv hee sikud kar ek gaanv ban gaya hei, ek chhote se samaj ya samuday ko alag thalag rakhna shayad mumkin hee na ho. Fir, jaise Ajay ne kaha ki ham ajaayab gharon mein ek numaayishi sheh (exhibits) ban kar no rehna nahin chahengen?
Samaj shastriyon ka bhee yeh kehna hei ki jo samaaj ek khulepan ke saath rehte hein, who aksar zyaada taraqeeyafta rehte hein. Is kee ek misaal to khud apna Himachal hee hei. Hamaare yahan tourism ko badhaava diya gaya, is mein nivesh karne walon (apne Pradesh aur baahar se) ko utsaahit kiya gaya, ek aatithiye ka mahoul banaaya gaya – aur ab dekhte hein ki mausam-bemausam tourists chale rehte hein. Pradesh kee pragati mein is ke yogdaan ko nazar-andaaz nahin kiya jaa sakta. Waise hee, is kee sab se badi misaal to America hei. Is-e ek ‘melting pot’ kaha jaata hei, kyonki duniya bhar se talent ko yahan panapane kee khuli chhoot dee jaati hei, balki dhoondh dhoondh kar vazeephe dekar laate hein aur unhen apna bana lete hein. Aur chaahe jahan se bhee aate hein, na keval har darja American ban jaate hein, balki America kee pehchaan ban jaate hein. Isi liye shayad woh culture itni sashakt ban jaati hei ki ek ‘universal culture’ ka roop haasil karti jaati hei.
Is ke ulat bhee udaaharan dhoondhen jaa sakte hein – aise samaj, samudaayon ke jo ek ‘ghetto’ maansikta ke shikaar ho jaate hein. Apne hee kheenche daayaron mein seemit reh jaate hein, apne hee samudaye ke logon se meljol, uthna-baithna, apni hee boli mein vaartalap kee cheshta – doosari pranaliyon, doosare sansthaanon, doosare samudaayon se ek avishvaas! ‘Apne’ aur ‘doosare’ ka farq, aur faasla. Apna kuchh bhee chhodne se pashemaani, aur doosaron ka kuchh bhee lene mein jhijhak. Faasle badhte jaayengen, farq aur numaaya hote jaayengen, samvaad toot-ta jaayega, avishvaas gehraata jaayega, aur …. aakhir kahan jaakar yeh rukega??
Ajay Lahulijee kee abhivyaktiyon se do maulik prashn mere saamne uthte hein. Ek, ki apni asli pehchaan kya hei – ek samudaye kee haisiyat se, ek samaj kee haisiyat se aur ek vyaktigat s-tar par (What is one’s true identity, as a community, as a society, or as an individual)? Doosara, kya ‘anivaasi lahuli’ bhee Lahoul ke liye kuchh yogdaan dete hein (Do the non-resident Lahoulis also serve the cause of Lahoul in anyway)?? Chaliye, in par thoda socha jaaye, aur fir charcha mein lauten.
Tab tak, yaaro, jute raho, aur lage raho!! Doosare group members se bhee fariyaad hei ki aage bhaden aur is paricharcha mein bhaag lein

kropha
February 2 at 10:37am ·
Ajay Lahuli
क्रोफा जी, अशोक जी, आभार आप दोनों का. चर्चा में फिर से शामिल हो कर फिर से कई नई खिडकियों को खोला है. मुझे लगा कि क्रोफा जी ने जिस सहजता व सरल भाषा में अपनी बात को रखा उसे पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि रोमन हिंदी विषय के फ्लो को रोक रहा है, ऐसे में इस कमेन्ट को देवनागरी हिंदी में कन्वर्ट करके लगा रहा हूँ(बिना छेड़छाड़ के) क्रोफा जी आप के इस कमेन्ट के ब... See Moreाद कुछ सवाल मेरे भी हैं, जिसकी चर्चा बाद में करेंगे, फिलहाल तो नारी विमर्श पर चर्चा चल रही है, अजेय जी के कमेन्ट के बाद कुछ कहना चाह रहा हूँ, अगले कमेन्ट में कह दूंगा.
अजय लाहुली

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क्रोफा जी का कमेन्ट
प्रिय मित्रो, जुले!
रमेश जी के एक पोस्ट के बाद, ग्येल्त्सेंजी ने जो एक बहस छेडी थी, उसे अजय ने दुबारा उठा कर, और अजय लाहुली, सुरेश तथा अन्य मित्रों ने उस में शामिल हो कर इस को न केवल एक ‘discourse’ में परिवर्तित किया है, बल्कि उस के स्तर को भी कहीं ऊंचा उठा दिया है. उनकी भाषा की गिरफ्त, और शैली की खूबसूरती देखते ही बनती है बार- बार पढने के लिए उकसाती हैं, और हर बार जायका पहले से कहीं dobaala ही होता है. और अभिव्यक्ति इतनी सशक्त कि पढने वाले को चिंतन-मंथन के लिए मजबूर कर देती है. जब इतनी प्रतिभा अपने यहाँ मौजूद है तो यह तो तय है कि देर-सवेर एक ऐसे साहित्य की संरचना अवश्य होगी जिसे हम खालिसअपनाकह पायेंगें (mini-narrative in the words of Gyltsenjee). और इन सब से प्रेरणा लेते हुए, नयी प्रतिभाएं भी निखर कर सामने आयेंगीं. यही दुआ तहदिल से करते हैं कि वोइनकी सोच को और साहस दे, व इनकी कलम को और शक्ति दे, ताकि इस अभियान को पूरी निष्ठां से सर-अंजाम दे सकें.
अजय के अनुगृहीत हैं कि ज्ञल्त्सेंजी के साथ छिड़े dialogue को इस काबिल समझा कि उसे अपनी साहित्यिक पत्रिका में जगह दे सकें. ‘Transmission loss’ का ख़याल रखते हुए, उसे अपने मूल रूप में ही उदृत भी किया. उस से भी बढ़ कर ख़ुशी की बात यह हुई कि उनके इसे छूते ही जैसे यह धन्य हो गया, और अनेक लोग (लाहुली, सुरेश…) इस से जुड़ गए, और कितने ही नए आयाम उभार कर सामने ले आये. अब तो चस्का सा एक ऐसा लग गया है कि रोज़ जब तक एक नज़र इस चर्चा पर नहीं पड़ती, तस्सली नहीं होती. अब ज्ञल्त्सेंजी भी चर्चा में लौट आयें हैं तो जिज्ञासा थोड़ी और बढ़ चली है.
एक सुलझे हुए साहित्यकार, एक प्रतिष्ठित पत्रकार, एक शिक्षाविद, एक research scholar–इन के बीच, इन्हीं की ज़ुबान में घुसपेठ करने की चेष्टाइसे दुस्साहस ही कहा जाएगा. हमारे हिम्मत की तो दाद दीजिये, हुज़ूर!! कोई बात नहीं बड़ी हद नाक ही कटेगी. पर जब चर्चा अपने इलाके और अपने समाज के कल-आज और कलपर हो रही हो, तो उससे किनारा कर के बैठा नहीं जा रहा है. फिर, मतलब तो अपनी बात सामने रखने से है, भले जिस भी ज़ुबान में रखें, जब तक दूसरों तक वो बात पहुँच जाती है, और बात उन्हें समझ आ जाती है, संवाद तो पूरा हो जाता है. हाँ, भाषा कच्ची-पक्की हो सकती है, शैली अरुचिकर हो सकती है, पर सोच अपनीहै (सुरेशजी के शब्दों में), ‘इमानदारभी है (लाहुलीजी के शब्दों में), और निष्कपटभी है. न ही इस में कोई सफाई देने की कोशिश है. (अनिवासी लाहौलिओं की जानिब से) क्योंकि मुझे कोई अपराधबोध नहीं दिखता.
February 2 at 11:25am
Ajay Lahuli
जारी..
फिलहाल, इस बार चंद टिप्पणियाँ ही यहाँ जोड़ रहा हूँ.
मुझे इस राय से पूरा इतेफाक है कि हमें अपने धरोहर को पहले पूर्ण रूप से जीना सीखना होगा. तभी इस की सार्थकता बनी रहेगी, यह जीवंत रहेगी, और आगे भी पनपेगी फूलेगी. इससे कतरायेंगें तो भले ही पुस्तकालयों-संग्राहलयों में यह उपलब्ध रहे, पर इस का जीवंत रूप मिट जाएगा. पर यह भी तो है कि वो सब जो अब भी... See More अपनी मिटटी से जुड़े हुए हैं, वहीँ रहते हैं, रात-दिन मशक्क़त कर के जीवन-यापन करते हैं, वो तो इसे भरपूर जी ही रहें हैं. तीन-तीन पीढियां वहां रह रहीं हैं. उनकी जीवन-शैली अपने धरोहर से अलग कैसे मानी जा सकती है? वही तो उस धरोहर के प्रतीक माने जायेंगें.
परिवर्तन उस जीवन शैली में अवश्य आये होंगें. वो भी तो एक जीते-जागते समाज की निशानी ही मानी जायेगी. हमारा लाहौली समाज बहुत ही ‘dynamic’ समाजहै. इस में ‘adapt’ और ‘adopt’ करने की अद्भुत क्षमता है. और यह एक गर्व का विषय है. अपने जीवनकाल में जितनी बदलाव मैंने अपने लाहौल में देखें हैं, शायद ही उस की मिसाल दुनिया में कहीं मिलती हो. जहाँ भी अवसर मिलता है, इस बात को हम लोग डंके की चोट पर दूसरों के सामने रखते हैं. जिन मुश्किल परिस्थितियों में हमारे पूर्वज रहे हैं, और हम भी रहें हैंउनसे जूझने के लिए और इस के बावजूद भी आगे बढ़ पाने के लिए, यही क्षमता बहुत सहायक हुई होगी. क्या इस पर अफ़सोस जताने की गुंजाईश है?
समय की गति को रोकना तो किसी भी समाज के लिए मुमकिन नहीं है. समय के साथ परिवर्तन भी स्वाभाविक है, इसे रोकना शायद मुमकिन न हो. परिवर्तन का रुख क्या हो क्या वहां पर चयन करने की गुंजाईश रहती है? यह एक मुद्दा हो सकता है. और जब ‘choice’ की गुंजाईश थी तो वहां पर क्या हम लोगों ने सही रास्ता चुनायह भी शायद चर्चा का विषय हो सकता है. अब तक की जो चर्चा हुई है, उससे, जहाँ तक में समझ पाया हूँ, लगता है कि दो विकल्प हो सकते थे. एक यह कि दूसरों पर आश्रित न रह कर, हम अपना ही एक स्वाबलंबी समाज बनाते. अपने मूल्यों, अपनी रिवायतों, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत, अपनी पहचान से कोई समझौता नहीं करते-इनकी ‘pristine glory’ (अजय इस का तर्जुमा दे सकते हैं) को हर हाल में बनाये रखते.
दूसरा विकल्प वो है, जहाँ हम दूसरे समाजों से जुड़ते हैं, उनसे सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्तर पर आदान-प्रदान करते हैं. बहुत कुछ लेते हैं, और कुछ उन्हें देते भी हैं. अपने दायरे कुछ बढाते हैं, कुछ दूसरों के दायरे में घुसपेठ की कोशिश भी करते हैं.
February 2 at 11:27am
Ajay Lahuli
जारी...दोनों विकल्पों के अपने 'pros and cons' हैं. एक dynamic... See More समाज के लिए दूसरा विकल्प ही वाजिब था, और शायद यही विकल्प हम ने चुना भी. बीसवीं और इकीसवीं सदी में, जब तकनीकी क्रान्ति के चलते पूरा विश्व ही सिकुड़ कर एक गाँव बन गया है, एक छोटे से समाज या समुदाय को अलग-थलग रखना शायद मुमकिन ही न हो. फिर, जैसे अजय ने कहा कि हम अजायब घरों में एक नुमाईशी शह (exhibits) बन कर तो रहना नहीं चाहेंगें?
समाजशास्त्रियों का भी यह कहना है कि जो समाज एक खुलेपन के साथ रहते हैं, वो अकसर ज्यादा तरक्कीयाफ्ता रहते हैं. इस की एक मिसाल तो खुद अपना हिमाचल ही है. हमारे यहाँ tourism को बढ़ावा दिया गया, इस में निवेश करने वालों (अपने प्रदेश और बाहर से) को उत्साहित किया गया, एक आतिथीय का माहौल बनाया गयाऔर अब देखते हैं कि मौसम-बेमौसम tourists चले रहते हैं. प्रदेश की प्रगति में इस के योगदान को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता. वैसे ही, इस की सब से बड़ी मिसाल तो अमेरिका है. इसे एक ‘melting pot’ कहा जाता है, क्योंकि दुनिया भर से talent को यहाँ पनपने की खुली छूट दी जाती है, बल्कि ढूंढ-ढूंढ कर वजीफे देकर लाते हैं और उन्हें अपना बना लेते हैं. और चाहे जहाँ से भी आते हैं, न केवल हर दर्जा अमेरिकन बन जाते हैं, बल्कि अमेरिका की पहचान बन जाते हैं. इसी लिए शायद वो culture इतनी सशक्त बन जाती है कि एक ‘universal culture’ का रूप हासिल करती जाती है.
इस के उलट भी उदाहरण ढूंढें जा सकते हैंऐसे समाज, समुदायों के जो एक ‘ghetto’ मानसिकता के शिकार हो जाते हैं. अपने ही खींचे दायरों में सीमित रह जाते हैं, अपने ही समुदाय के लोगों से मेलजोल, उठना-बैठना, अपनी ही बोली में वार्तालाप की चेष्टादूसरी प्रणालियों, दूसरे संस्थानों, दूसरे समुदायों से एक अविश्वास! अपनेऔर दूसरेका फर्क, और फासला. अपना कुछ भी छोड़ने से पशेमानी, और दूसरों का कुछ भी लेने में झिझक. फासले बढ़ते जायेंगें, फर्क और नुमाया होते जायेंगें, संवाद टूटता जाएगा, अविश्वास गहराता जाएगा, और…. आखिर कहाँ जाकर यह रुकेगा??
अजय लाहुलीजी की अभिव्यक्तियों से दो मौलिक प्रश्न मेरे सामने उठते हैं. एक, कि अपनी असली पहचान क्या हैएक समुदाय की हैसियत से, एक समाज की हैसियत से और एक व्यक्तिगत स्तर पर (What is one’s true identity, as a community, as a society, or as an individual)? दूसरा, क्याअनिवासी लाहुलीभी लाहुल के लिए कुछ योगदान देते हैं (Do the non-resident Lahoulis also serve the cause of Lahoul in anyway)?? चलिए, इन पर थोडा सोचा जाए, और फिर चर्चा में लौटें.
तब तक, यारो, जुटे रहो, और लगे रहो!! दूसरे ग्रुप मेम्बर्स से भी फ़रियाद है कि आगे बढ़ें और इस परिचर्चा में भाग लें.
बाय and जुले,
क्रोफा
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रोशन भाई, क्रोफा जी की हिंदी इतनी अच्छी है कि उसे देवनागरी में कन्वर्ट करने का मोह नहीं छोड़ पाया. इस प्रोसेस में डेढ़ घंटे से अधिक लग गया और में देख ही नहीं पाया कि आप ने क्रोफा जी का रोमन हिंदी वाला कमेन्ट लगा दिया है. उम्मीद है कि छोटे भाई की इस गुस्ताखी को माफ़ करेंगे. अजय लाहुली
February 2 at 11:54am
Roshan Lal Thakur
Sh Kropha Ji, Ajay Ji,Ajay Lahouli ji,Suresh Ji,AK (Gyltsen ji) aap sabhi ke vichar vahut hi sarahanyane hai liken jo vikat vahas Ajay lahouli ji ne parastut kiya hai (WOMEN ENPOWERMENT IN LAHOUL) I think it it is a sleeping beautiful GIANT & if you poke it nose she will sneeze so strongly that everybody will be severely effected (MEN only). How ... See Moreever lots of women at lahoul & spiti they are well aware of the rule & their true bona fide rights, we should not under estimate them, if they are in hibernation may be it is willful, as every women love their brothers or they just don't want to be wake up just for your welfare.
thanx next more on this subject
bye ROSHAN
February 2 at 12:14pm ·
Roshan Lal Thakur
VAHUT VAHUT SHUKRIYA AAP NE KROPHA JI KE VICHARO KI HINDI/ DEVNAGRI ME PARIVARTIT KAR DIYA AAP KI MEHNAT KO SALAAM
February 2 at 12:30pm ·
Ajay Lahuli
अजेय भाई झुरझुरी!!! डर रहे हो या डरा रहे हो???? मुझे याद है एक मुद्दे पर 1994... See More के आसपास गुस्कियार छेरिंग दोर्जे जी की अगुवाई में एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी, मुद्दे का इतना राजनीतिकरण हुआ कि मेरे परिवार सहित तीन परिवारों को अलग-थलग कर दिया गया.कई वर्ष सामाजिक बहिष्कार को झेला. संकट की घडी में महिलाओं ने जितना साथ दिया,वो बेमिसाल ही था. उस मुद्दे पर वर्षों बाद अदालत का निर्णय आया तो सारी राजनीति की हवा निकल गयी, और स्वार्थ धरे रह गए. इस कथन से मेरा आशय सिर्फ इतना ही है कि अब 'डर' नहीं लगता, यदि आप सही मुद्दे पर हो. मैंने इस मुद्दे को इसलिए भी छेड़ा. मैं इस मुद्दे का 'अंडर करेंट' महसूस कर रहा हूँ. स्वार्थ व पारिवारिक रंजिश ही सही हमारे समाज में कुछ बेटियों के पिता अपनी सम्पति को 'दूसरों' के बजाय अपनों (बेटियों) को देने के लिए छटपटा रहे है.जब हम न्याय के प्राकृतिक सिद्दांत की पैरवी करते है तो इसमें कोई बुराई भी नहीं. कब तक सोशल सेटअप व रिवाजे-आम की दुहाई देकर इस मुद्दे पर टलते रहेंगे? जब पूरे फाॅर्स से मुद्दा उठ जायेगा तो क्या उसे झेलने के लिए हमारे समाज तैयार है? क्या हम मानसिक तौर पर इसे सहने के लिए तैयार हुए हैं? भाई कब तक हम अपने दलीलों से लुभाते या ठगते रहेंगे?
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रोशन भाई, मैं.. या आप सभी सहमत होंगे कि आज के लाहुल की सम्पन्नता के बुनियाद में बहुपति प्रथा, संयुक्त परिवार, भूमि बटवारा कम होना व महिलाओं को सम्पति का अधिकार नहीं होना ही है. मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि हमारी महिलाएं जागरूक नहीं है, कब तक साथ में हम इस भ्रम को पालेंगे कि हमारी माता, बहन, बेटी,पत्नी हमारे (पुरुषों) हित में नहीं जागना चाहती हैं? इस मुद्दे की छींक तो आप महसूस कर रहे है लेकिन 'बदबूदार' मुद्दे (पुरुषों के लिए) को छेड़कर देख तो लें इस बदबू को सहने की हमारी क्षमता कितनी है? हो सकता है इस 'छेड़छाड़' में कुछ निकल ही आये.
February 2 at 1:45pm
Ajay Kumar
सब का आभार. सूचित कर दूँ कि इस बीच श्री ग्यल्त्सन ( अशोक) ,श्री रघुबीर साहनी, तथा श्री अर्नेस्ट एल्बर्ट ( इस विमर्श मे पहले गैर लाहुली का स्वागत) के कमेंट मिले हैं लेकिन इस नोट से बाहर. बहुत महत्व पूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं.इन मुद्दों पर क्रमशः चर्चा की जाएगी. क्रोफा जी के साथ इन तीनों बन्धुओं से से गुज़ारिश है कि यहीं आ कर कमॆंट दें. आप के कमॆंट ... See Moreतुरत अप डेट कर के लहौल स्पिति ग्रूप पर डाल दिए जाएं गे. क्यों कि यहाँ पूरी बहस मौजूद है, और जो नया ज्वाईन करेगा उसे मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी.और बाद मे यदि इस बहस को पुस्तिकाकार छापनी पड़े तो हमॆं सुविधा हो.अशा है कि आप सहयोग करेंगे.
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अजय लाहुली , आपनी बात कहॆं .
February 2 at 2:02pm
Ajay Kumar
ओहो, तो हम साथ साथ लगे हुए हैं. अभी टाईप कर रहा था कि आप की पोस्ट आ गई.तो छोटे भाई , तुम्हारे nervs किस धातु के बने हैं मैं खूब जानता हूँ. आखिर लाहुल के पहले recognized... See More पत्रकार हो. तुम्हे डराना तो हिमालय को आईसक्रीम दिखाना है.लेकिन मैं सच मुच ही उस घटना से डर गया था. मुझे लगा कि यह हासुली ने मेरे गाल पे थप्प्ड़ मार दिया था. कि मुझ से सहानुभूति जताने वाले तुम कौन होते हो?क्या अपना भला बुरा मैं खुद नहीं सोच सकती? हालाँकि मैंने कुछ भी नही किया था( फक़त हिमिका को दर्चे सुम्दो से छ्हिका और बेक लिफ्ट दिया था, और मन मे उस की प्रशंसा की थी) न ही महिला मंदल ने मुझे कुछ कहा.
लेकिन कवि हूँ न, डर गया.
तो मेरा कहना अब भी यही है कि हासुली स्वयम क्या विचार रखती है इस मसले पे? क्यों कि गत एकाध दशकों मे हासुली का विरोध चिंताजनक तरीक़े से क्षीण ( इनेफ्फेक्टिव) हुआ है.
मैं तो उस के कारण भी जानना चाह रहा हूँ. और मेरा प्रश्न बर्करार है- फेस बुक पर कितनी हासुलियाँ हैं? क्या उन मे इस मुद्दे पे कुछ कहने की हिम्मत है?
February 2 at 2:39pm
Suresh Vidyarthi
तो लो भाई जी आखिर आना ही पडा .... पर जो उम्मीदेँ पाल रखी है शायद उस पर खरा न उतर पाएँ और आप को निराशा हाथ लगे...कुछ दिन और न आती तो शायद बेदखल ही कर देते ..... इस चर्चा से



शिद्दत से आने का धाम दे रहे हो .... ... See More



मुझ पर साहित्य रचना चाह्ते हो ?



विषय बना कर दस साल पुराना वाक्या भुनाना चाह्ते हो?



मुद्दे तो और भी बहुत होगे समाज मे ....



मुझमे ऐसा क्या दिखा जो तुम भी डोम बनने चले ?



या फिर चाँद ?



रोचक मोड दे कर जो आख्यान कहलवाया....



मुझे मेरे ही मिथक से अलग कर दिया...



सीता तो एक पल अग्नि पर बैठी थी .....



हम रेशा रेशा रोज़ जलते है....



और अब गाँव की बुआ कहलाते है......



घ्रुसु घाडी बुहारते है और राम सेतु के लिए



मुर्दाबाद भी चिल्लाते है.....
क्या चाह्ते हो कि मै सलीमा डरामा बन कर पेश हौउ और आप मुझे अनवेषक की द्रष्टि से घूरे उस बडे अफसर की तरह और डर कर मै छिप जाउँ फिर से हरामी चाँद की जान्घो मेँ जो भाई हो कर भी अश्लीलता पर उतर आया था ....
मेषाँग की तरह सुलगी तो हूँ....फूँको तो लपटेँ भी है..लेकिन दफन है हमारी ज्वाला राख की परतो के नीचे ...अपनो ने ही दबा रखा है....ठंडी है तो क्या... है तो अपनी बिरादरी ... इस से पहले कि बात दूर तक जाये..इस चिंगरी को बुझा दो...एक निर्मला को राख मेँ दफन कर दो...........



बणा बुटे रीए आगा लोको दुनिया हेरी ओ



मेरी मने रीए आगा ओ हाँ हो......



कुणु वो सुपुता हेरी ओ.........



बुआ हसुलि
February 2 at 7:37pm
Ajay Lahuli
इस से पहले कि बात दूर तक जाये..इस चिंगरी को बुझा दो...एक निर्मला को राख मेँ दफन कर दो.....हासुली आई और अपने हाल से रुलाने के साथ तेवरों से सचेत भी कर गई. क्या हम इस हासुली को झेलने की स्थिति में हैं? एक ही हासुली ने कई सवाल रख दिये, सभी आयेंगे तो..अजेय भाई मुझे लगता रहा कि आप टल रहे हैं, लेकिन अब लग रहा है कि आप हासुलियों को 'उकसा' कर उन्हें कुरेद... See More रहे थे.आप हासुली की मनोदशा को करीब से महसूसते रहे और बात में वजन सुनिश्चित करने के लिए पैरवी करते रहे अपनी बात हासुली ही रखे..मैं आप से सवाल कर रहा हूँ पारिवारिक 'सत्ता' सुख भोगते, फेसबुक पर दिखती हासुली क्यों 'फतवे' जारी न करे? आप कह रहे थे कि हासुली का विरोध चिंताजनक तरीक़े से इनेफ्फेक्टिव हुआ है. अपनी हासुली (सुरेश भाई) ने 'सुगली' की पंक्तियाँ डाल कर उस दौर के विरोध के स्वर को दर्शा दिया है. पीढीयों से हासुली अपना 'हश्र' देखती रही है, आज के हासुली में कहीं न कहीं ये संस्कार बना कर उसकी मानसिकता में इस कद्र बिठा दिया है कि ऐसा स्वप्न भी न ले. इस मुद्दे पर सोचना उनके लिए 'पाप' बना दिया गया है. अब अपने हश्र से सहमी हासुली बिना 'बैसाखियों' के अपने पैरों पर खड़ा होने की जद्दोजहेद अधिक दिखती है. अपने ही भाई के घर कभी बेगानों सा व्यवहार हो, उससे पहले ही उस घर को छोड़ उम्मीदों का नया आशियाना ढूंढ़ लेती है.लेकिन में जिन हासुलियों से मैं मिला वो फेसबुक, इन्टरनेट की दुनिया नहीं जानती. सहज मंच मिले तो संवेदनाओं गुब्बार में बहुत कुछ बहता दिखेगा. चाँद-सूरज के घर में रह कर एक कमरे की जमीन के लिए पूरी जिन्दगी तरसती अविवाहित हासुली क्यों रघु डोम के साथ नहीं भागेगी? अपने भाइयों की तरह उसने भी तो उसी माँ की कोख से जन्म लिया लेकिन जब अविवाहित इस दुनिया से विदा होती है तो उस घर में उसके लिए दो आंसू बहाने की अनुमति नहीं दी जाती.पति की प्रताड़ना को झेलती उस हासुली के पास क्या विकल्प रह जाता है जब उसके पास अपने ही घर के दरवाज़े बंद दिखते है. भाई के ही घर से ही एक हासुली की आवाज़ सुनाई देती है 'देर केनो छले मदो, दोर छानये तोह केनो ज़क्तु' अब ऐसे में हालत में कुढ़ते हुए अपने आप को ही कोसती है. ऐसी हासुली माँ को भी जानता हूँ जो वर्षों तक हक की लड़ाई लडती रही, हक मिला भी तो उसकी बेटी को..और उसी बेटी ने माँ को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसी हासुलियाँ भी हैं जो अपने हक से वहां भी वंचित हैं जहाँ ये हक मिल सकता है. राजस्व रिकार्ड में बेटे ही दिखते हैं, बेटियां नहीं? ऐसी कितनी और हासुलियाँ होंगी?? इस मुद्दे को बदबू मान कर कब तक इसे कुरेदने से बचते रहेंगे? च्वंगत्सू की तरह हम स्वप्न में तितली? (नहीं) हासुली बनकर क्या इस दर्द को महसूस कर सकेंगे

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