Sunday, October 31, 2010

हवा की तासीर बदल गई

जाहलमा पहुँच कर ठेले उतार दिए जाते हैं. हम ने भोजन के लिए दस मिनट रुकने का अनुरोध किया लेकिन ड्राईवर के पास ‘टेम’ नहीं है . अभी तक हम ने कुल 26 किलोमीटर का सफर तय किया है. इतना ही और चलना है. चलो अब गाड़ी में घण्टे भर की ही तो बात है. मैं ने खुद को तसल्ली दी है.

जूंडा गाँव पार करने पर जुनिपर के पेड़ दिखने लगते हैं. ये प्राकृतिक रूप से उगे हुए हैं. यहाँ से आगे हवा की तासीर ही बदल जाती है. गन्ध भी. यह शायद वेजिटेशन के कारण है. थिरोट के बाद तो दयार , कायल, राई तोस... तमाम अल्पाईन प्रजातियाँ मिल जाती हैं. यह इलाक़ा हरा भरा, गर्म, और संसाधनों से भरपूर है.शायद इसी लिए लोग भी केयर फ्री और मस्त हैं. मैं इस अद्भुत जगह को देख रोमेंटिक होना चाहता हूँ. लेकिन सडक बहुत खराब है .जम्प लगता है तो झटका पैरों से होता हुआ सीधे खोपड़ी पर लगता है. समझ में आता है कि लम्बी और खराब यात्राओं पर चलने वाले ट्रक ड्राईवर दिमाग पर ज़्यादा बोझ क्यों नहीं डालते. मैं भी सोचना छोड़ कर पड़ा रहता हूँ. ट्रक की गति और लय के साथ एकात्म होने की कोशिश करता !

Friday, October 15, 2010

चल रहे है न ?

ख्रूटी नाला पार करते करते गला सूखने लग पड़ा है. एक जगह बड़े से पॉपलर के पास ज़मीन सीली हो रही है. देखा तो वहाँ पानी चू रहा है. . लेकिन इतना कम कि अंजुरी भर कर पिया भी न जाए. वहाँ कुछ घास के हरे तिनके उग रहे हैं और चिचिलोटि का एक नन्हा पीला फूल भी खिल रहा है. . माँ कहा करतीं थीं कि यह फूल गाल पर रगड़ने से त्वचा नहीं झुलसती. मैने हाथ बढ़ा कर पीछे खींच लिए. इस उजाड़ में खिले अकेले फूल की हत्या करने चला था. एक बड़ा पाप करने से बच गया . बड़े स्नेह से मैंने उसे विदा कहा:
मेरे लौट कर आने तक यूँ ही खिलती रहना तुम
ओ नन्ही प्यारी चिचिलोटि
मैं रुकूँगा यहाँ तुम्हें देखने को !

कीर्तिंग में कोई ढाबा खुला नहीं मिला. अलबत्ता एक बन्द दुकान के अहाते में कुछ युवक और अधेड़ छोलो और ताश खेल रहे हैं. हुक्के और चिलम चल रहे हैं . एकाध ने बीयर या व्हिस्की का जाम भी पकड़ रखा है हाथ में. नल पर खूब पानी पी कर हम आगे बढ़ गए हैं. मुझे कुछ भूख भी लगने लगी है. सहगल जी सहज और ‘कूल’ दिख रहे हैं. चौहान जी के चेहरे पर अथाह थकान और बेबसी नज़र आ रही है. अभी आधा रास्ता भी तय नही हुआ और दोपहर होने को आ रही है. थकावट, भूख, ढलता हुआ दिन और लिफ्ट न मिलने की खीज. ये सब मिल कर एक अवसाद पूर्ण अनुभूति उत्पन्न करते है. वाक़ई, यह एक सुखद यात्रा नहीं है. लेकिन मेरे भीतर एक कोना अभी भी पुलकित है , कि एक नई जगह को एक्स्प्लोर करूँगा .

Monday, October 11, 2010

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलिए

हमारा हेलिकॉप्टर तान्दी संगम के ठीक ऊपर पहुँचा है. सामने अपना गाँव सुमनम दिखाई दिया है . अपने शर्न के आँगन में मवेशियों को धूप तापते देख कर बहुत रोमांचित हुआ हूँ. भागा घाटी की ओर मुड़ने से पहले पीर पंजाल के दूसरी ओर ज़ंस्कर रेंज के सिर उठाए भव्य पहाड़ों की झलक मिली है . मैं अनुमान लगाता हूँ कि इन्हीं धवल शिखरों के आँचल में कहीं मयाड़ घाटी होगी. केल्ंग पहुँचते पहुँचते पक्का मन बना लिया है कि चाहे जो हो मयाड़ घाटी ज़रूर जाना है.
केलंग में मेरा स्वागत भारी हिमपात से हुआ . लाहुल यूँ तो मांनसून के हिसाब से रेन –शेडो क्षेत्र मे स्थित है. मानसून पीर पंजाल को प्राय: पार नहीं कर पाता. लेकिन पश्चिमी विक्षोभ (western disturbances) के लिए कोई रुकावट नहीं. सर्दियों में ये बर्फीली हवाएं सीधी घाटी में घुस आती हैं और निकासी नही होने के कारण हफ्तों बरसती रहतीं हैं. उस रात को लगभग दो फीट बरफ पड़ी और अगले सात आठ दिन बादल छाए रहे. फिर एक दिन बढ़िया धूप निकल आई. उस दिन एक घर की छत पर निकल कर कस्बे को निहारने लगा. पूरब की ओर विहंगम लेडी ऑफ केलंग चोटी ताज़ा बरफ में छिप गई थी. रङ्चा के नीचे से कई एवलांच बरबोग, पस्परग और नम्ची गाँवों को धमकाते हुए निकल गए थे. ड्रिल्बुरी खामोश खड़ा था. पश्चिम मे गुषगोह के जुड़वाँ हिमनद मानों दो खाए अघाए बैल जुगाली करते अधलेटे पसरे हों. केलंग टाऊन मुझे कमोवेश वैसा ही दिख रहा है जैसा पन्द्रह साल पहले छोड़ गया था. सुबह उठने पर नथुनों में धुँए की वह चिर परिचित गन्ध घुसी रहती है . यह धुआँ जो कस्बे के ऊपर बादल सा छाया रहता, घरेलू चूल्हों और सरकारी भक्कुओं से निकलता था, तक़रीबन 11 बजे छँटना शुरू हो जाता और यही सरकारी बाबुओं के दफ्तर पहुँचने का समय भी होता. दफ्तरों में स्टीम कोल के भक्कू जलते . उन्ही के ऊपर अल्युमीनियम की केतलियों में चाय उबलती रहती. हिमपात के दिनों में घरों और दफ्तरों में सब से प्राथमिकता वाला काम होता है खुद को गरम बनाए रखना. बहरहाल मेरी प्राथमिकता है मयाड़ घाटी की यात्रा.

(यात्रा जारी रहेगी)

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलिए

हमारा हेलिकॉप्टर तान्दी संगम के ठीक ऊपर पहुँचा है. सामने अपना गाँव सुमनम दिखाई दिया है . अपने शर्न के आँगन में मवेशियों को धूप तापते देख कर बहुत रोमांचित हुआ हूँ. भागा घाटी की ओर मुड़ने से पहले पीर पंजाल के दूसरी ओर ज़ंस्कर रेंज के सिर उठाए भव्य पहाड़ों की झलक मिली है . मैं अनुमान लगाता हूँ कि इन्हीं धवल शिखरों के आँचल में कहीं मयाड़ घाटी होगी. केल्ंग पहुँचते पहुँचते पक्का मन बना लिया है कि चाहे जो हो मयाड़ घाटी ज़रूर जाना है.
केलंग में मेरा स्वागत भारी हिमपात से हुआ . लाहुल यूँ तो मांनसून के हिसाब से रेन –शेडो क्षेत्र मे स्थित है. मानसून पीर पंजाल को प्राय: पार नहीं कर पाता. लेकिन पश्चिमी विक्षोभ (western disturbances) के लिए कोई रुकावट नहीं. सर्दियों में ये बर्फीली हवाएं सीधी घाटी में घुस आती हैं और निकासी नही होने के कारण हफ्तों बरसती रहतीं हैं. उस रात को लगभग दो फीट बरफ पड़ी और अगले सात आठ दिन बादल छाए रहे. फिर एक दिन बढ़िया धूप निकल आई. उस दिन एक घर की छत पर निकल कर कस्बे को निहारने लगा. पूरब की ओर विहंगम लेडी ऑफ केलंग चोटी ताज़ा बरफ में छिप गई थी. रङ्चा के नीचे से कई एवलांच बरबोग, पस्परग और नम्ची गाँवों को धमकाते हुए निकल गए थे. ड्रिल्बुरी खामोश खड़ा था. पश्चिम मे गुषगोह के जुड़वाँ हिमनद मानों दो खाए अघाए बैल जुगाली करते अधलेटे पसरे हों. केलंग टाऊन मुझे कमोवेश वैसा ही दिख रहा है जैसा पन्द्रह साल पहले छोड़ गया था. सुबह उठने पर नथुनों में धुँए की वह चिर परिचित गन्ध घुसी रहती है . यह धुआँ जो कस्बे के ऊपर बादल सा छाया रहता, घरेलू चूल्हों और सरकारी भक्कुओं से निकलता था, तक़रीबन 11 बजे छँटना शुरू हो जाता और यही सरकारी बाबुओं के दफ्तर पहुँचने का समय भी होता. दफ्तरों में स्टीम कोल के भक्कू जलते . उन्ही के ऊपर अल्युमीनियम की केतलियों में चाय उबलती रहती. हिमपात के दिनों में घरों और दफ्तरों में सब से प्राथमिकता वाला काम होता है खुद को गरम बनाए रखना. बहरहाल मेरी प्राथमिकता है मयाड़ घाटी की यात्रा.

(यात्रा जारी रहेगी)