नैसर्गिक अल्यास झील के दर्शन -राहुल देव लरजे  
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| The lake Alyas | 
         वर्ष 2014-15 में स्थानीय हिमाचली अख़बारों में यह खबर छपी थी कि लाहुल&स्पीति  में 
ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियरों के टूटने और पिघलने से कई कुदरती झीलों
 का निर्माण हुआ है और इस तथ्य की जांच-पड़ताल के लिए प्रशासन के अनुरोध 
पर स्थानीय वन विभाग के कर्मचारी कुछ जिओलॉजिस्टस के साथ वास्तविक हालात का
 जायज़ा लेने के लिए लाहुल के ऊंचाई वाले स्थलों को निकले भी थे। यह बताया 
जा रहा था की लाहुल के चोखांग घाटी के नील-कंठ इलाके में भी कई नई 
झीलों का निर्माण हुआ है। इन में एक झील केलंग के नजदीक बिलिंग नाले में 
पहाड़ी से मलबा गिरने के  उपरांत बन गई थी और इस की भनक लगते ही स्थानीय 
प्रशासन ने खतरे का जायज़ा लेने के लिए एक टीम वहां भेजी थी क्यूंकि  इकट्ठे
 होते जल के बढ़ते घनत्व के दवाब से यह झील एकदम  नीचे बने पावर हाउस के 
अतरिक्त मनाली-लेह सड़क को भी भारी नुक्सान पहुंचा सकती थी। सोभाग्यवश 
ऐसा नहीं हुआ।  कुछ
 ऐसी ही ख़बर सिस्सू नाले के मूल स्त्रोत जो की एक विशाल ग्लेशियर है,के 
बारे में कहा जा रहा था की इस के आंगन में एक विशाल झील का निर्माण हो 
चुका  है  और यह कभी भी फट कर लाहुल के चन्द्रा  नदी के किन्नारों सहित आगे
 चनाव की घाटी और पाकिस्तान तक बाढ़ का कहर बरपा सकती है।   
           
          वैसे तो तिनन घाटी से कई लोग पूर्व में इस दिव्य झील के दर्शन कर चुके होंगे किन्तु सिस्सू नाला जिस का स्थानीय बोली में नाम न्यिशल्टी लुम्पा  हैं,(शेल्टी का तात्पर्य  बर्फ का पानी एवं लुम्पा का अर्थ नाला  है )   के ऊपर   बने इस अभी तक गुमनाम रहे इस झील के बारे में शायद  बहुत कम 
लोगों लो ज्ञान है। बड़ा आकार लेती इस झील के फटने के आसार से उत्पन खतरे की
 खबर से अचानक इस झील का नाम सामने आने लगा।     
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| A thick Glacier,the source of the Lake Alyas | 
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| Thanks Google Earth | 
जियोलोजिकल
 सर्वे आफ इण्डिया के अनुसार उपग्रेहों द्वारा ली गई तस्वीरों में यह झील 
साफ़ झलकती है जो पूर्व  में आकार में बहुत छोटी थी। जो स्थानीय लोग यहाँ 
हैं,उन्होंने इस झील का  नाम घेपन घाट या घेपन झील रखा है क्यूंकि यह लाहुल
 के सब से अधिष्ठ देवता घेपन राजा के नाम से विख्यात लगते पर्वत घेपांग-घो के नजदीक प्राकृतिक तौर पर बना है।      
गद्दी समुदाय ने इस झील का नाम आल्यास झील
 रखा है। किसी भी नाले के उदगम स्थल को शायद गद्दी समुदाय के लोग आल्यास 
कहते हैं। इसी नाम से लाहुल के चोखंग घाटी में  पवित्र नील&कंठ झील के 
पास एक पड़ाव है और रापे -राशेल से हो कर मणि-महेश पद यात्रा में 
कुगती जोत के पास भी एक जगह है। मेरे व्यक्तिगत विचार से भी उपरोक्त झील को
 घेपन झील की बजाए अल्यास झील कहना बिलकुल उचित है।     
यह झील 
तखलंग गाँव
 के साथ लगते खेतों  के ऊपर बने मोड़ से लगभग 14.1 किलोमीटर दूर घेपन पर्वत 
के बिलकुल पीछे की घाटी में है। मैंने स्वत: ही  मन में ठान लिया कि क्यों 
 न इस झील के दर्शन कर लिए जाएं और क्यों न वास्तविक  हालात का मुआयना भी 
कर लिया जाए। अत: जुलाई माह 2015 में चुपचाप अल्यास दिव्य झील 
के  दर्शनाभिलाष लिए  निकल पड़ा। 
 
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| Ariel view of Lake Alyas | 
  इस से पहले मैंने इंटरनेट तकनीकी का फायदा उठा कर गूगलअर्थ
 नामक सॉफ्टवेयर के द्वारा इस झील की टोपोग्राफी का अध्यन्न किया और अपने
 मोबाइल फोन में सेटेलाइट वियू में हर कोण से झील के इलाके की फोटो संजो कर
 रख ली जो बाद में बेहद काम आई। 
  
 एक नए दुर्गम स्थल में अकेले जाना खतरे से खाली नहीं होता है इस लिए फोन 
द्वारा खंगसर गाँव के अपने एक मित्र वीरेंद्र उर्फ़ सूरी को साथ चलने का 
आग्रेह किया।  उस ने इस यात्रा में चलने की हामी भर दी। निर्धारित दिन को 
मैं सीधे मनाली से केलंग पहुंचा और वहां अपना व्यक्तिगत कार्य निपटा के झील
 की ट्रेकिंग हेतू खाने पीने  सामान जैसे कि गलूकोज,चॉकलेट,टॉफियां और 
फ्रूट केक वगैरह खरीद लिए। रात को मैंने खंगसर में सूरी के घर रहने का निर्णय लिया क्यूंकि वहां से हमें ट्रेकिंग पर निकलने के लिए दूरी कम हो सकती थी।   
       
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| My accomplice Suri | 
मैंने
 अपने सहभागी को एक छोटा स्टोव]टार्च]कुछ खाने पीने का सामान पैक करने का 
आग्रेह किया। कुल्लू से अपनी गाडी में दो जनों वाला टेंट,स्लीपिंग बैग व 
मैट भी साथ ले आया। अगले दिन शीघ्र गंतव्य को प्रस्थान करने का निर्णय ले 
कर हम जल्दी रात्रिभोज कर के सो गए। उस से पहले हम ने अपने रकसेक में कुछ 
लोजिस्टिक वस्तुओं की पुष्टि भी की। मकान के पास लकड़ियों की ढेरी में से 
लाठियां भी निकाल कर रख दी जो बाद में बेहद काम आई। 
सुबह
 ठीक 4-30 बजे मेरे मोबाइल फोन का अलार्म बजा और फटाफट हम तैयार हो कर गाड़ी
 में सिस्सू को रवाना हुए। शाशन गाँव में राजा घेपन के मंदिर के पास पहुंच 
कर मन ही मन देवता से यात्रा सफल होने की मन्नत मांगी। पहले यह अनिश्चित था
 कि गाडी को कहां पार्क किया जाए]फिर अचानक हमे ख्याल आया कि लिंक रॉड पर 
काफी ऊपर तक गाडी को ले जाया जा सकता है। इसलिए सिस्सू से आगे नरसरी की ओर 
निकल पड़े और वहां से तेलिंग को लगते लिंक रॉड पर निकल पड़े।
   खूबसूरत लम्बी हरी घास के चरागाहों और खेतों के मध्यस्थ बने सड़क से होते हुए कुछ दूरी पर ऊपर लबरंग गोम्पा पहुंचे। सूरी के निर्देशानुसार वहां से फिर बाएं हाथ एक अन्य लिंक रॉड जो कि छोककर,शुर्तग और तखलंग
 तक जाती है,पे मैंने अपनी गाडी उतार दी। यह कच्ची सड़क  हमें धीरे धीरे 
सर्पनुमा मोड़ों से ऊपरी दिशा की ओर ले जा रही थी और वहां चंद घरों के मकान 
दिख रहे थे।     
  
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| A view of Sissu & Shashin villages | 
अब
 प्राता के 5-30 बजे थोड़ी हल्की रौशनी में सिस्सू और शाशन गाँव काफी नीचे 
दिखाई दे रहे थे। करीब 5 किलोमीटर ऊपर पहुंच कर जहां अब खेतों की सीमा 
समाप्त हो रही थी,वहां एक मोड़ पे मैंने अपनी गाडी पार्क करने की सोच ली 
क्योंकि वहां से पगडंडियां बनी हुई थी। वहां खेत के किनारे बने एक अस्थाई 
तम्बू से एक वृद्ध नेपाली जोड़ा हमें उत्सुकतावश निहार रहे थे। हमने दूर से 
ही चीख कर  उनसे झील जाने का रास्ता पूछा। इन्होने टूटी-फूटी हिंदी में
 हमें रास्ता बता दिया। वह वृद्ध नेपाली कुछ दूर तक हमारे साथ आया और बताने
 लगा कि ऊपर कुछ दुरी तक मटर के खेत हैं जहां वे काम करते हैं।    
   
 अब
  आगे हम अंदर सिस्सू नाले की ओर हो लिए और ढलान पगडण्डी में कुछ ऊपरी दिशा
 में चढ़ने लगे। सिस्सू नाले के अंदर का पूरा विहंगम दृश्य नज़र आ रहा था और 
शाशन गाँव के छोटे-छोटे हरे-लाल छत नज़र थे। सिस्सू हेलीपेड के पार 
प्राकृतिक दिखता विशाल जलप्रपात पलदन लामोह भी यहां 
से बेहद छोटा नज़र आ रहा था। जहां खेत समाप्त हुए वहां ऊपरी छोर पर 
मैदाननुमा जगह पर लम्बे डंगे बनाए गए थे]जिसे कूद कर हमने पार किया।      
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| Nehar route | 
यह
 डंगे स्थानीय वन विभाग ने परिसीमा निर्धारण करने के लिए लगाए हैं और जगह 
जगह बिल्लो के पौधे भी रोप रखे हैं। इस डंगे के साथ एक काफी अच्छा सीमेंट 
का कुहल बनाया गया है जिस में शीतल पानी बह रहा था जो शायद तेलिंग के साथ 
लगते अन्य गावों को सिंचाई हेतू बनाया गया है।   
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| A flock of Gaddi Sheeps | 
दूर नीचे एक मैदाननुमा जगह में भेड़ों का झुण्ड आराम करता नज़र आ रहा था और पत्थर के थाच में
 कुछ गद्दी आग जला कर सेक रहे थे। हम दोनों कुहल के साथ आगे बढ़ते गए किन्तु
 गलती से एक पगडण्डी में नीचे की ओर उतर गए। एक खाईनुमा टीले में भेड़ 
बकरियों का झुण्ड देख कर वहां पहुंच गए। वहां एक छोटी सी गुफा के ओट में दो
 गद्दी सुबह सुबह ताश खेलते हुए मिले। वे रम्मी खेल कर समय व्यतीत कर रहे 
थे।  
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| Nature's art in Sissu Nalla | 
बकरियां
 हम अजनबियों को देख कर जोर जोर से चिल्ला के मेमे कर रहीं थी। एक गद्दी 
कुत्ता भी थोड़ी देर भौंका किन्तु फिर चुप हो गया। यह हमारा आराम करने का 
प्रथम पड़ाव था। मैंने अपने बेग से दूध पाउडर निकाल कर  गद्दियों से कड़क चाय
 बनाने की गुज़ारिश की और खाने के लिए फ्रूट केक भी निकाल लिया। सुबह 7 बजे 
चाय की चुस्कियां लेने का बेहद आनंद आया। हैरानी की बात यह थी कि वहां 
बी-एस-ऐन-एल का भरपूर सिगनल था और मेरे सहभागी सूरी ने अपने घर वालों से 
फोन द्वारा वार्तालाप की। ततपश्चात इन गद्दियों से कुछ देर वार्तालाप करने 
के उपरान्त हम आगे की ओर निकल पड़े।    

 
    अब हम आगे घेपन पर्वत में बने ग्लेशियर से निकलने वाले नाले घेपंग गठा
 के मुख पे पहुंचे। यहां हम ने बहुत बड़ी गलती कर। दी। कुछ दूरी में नाले 
में खतरनाक से दिखते रास्ते की बजाए हम दोनों ऊपरी दिशा में गलत रास्ते पे 
चल दिए। दरअसल नाले में बहुत ज्यादा पानी बह रहा था और हमें ऐसा कोई छोर 
नज़र नहीं आ रहा था जहां से नाले को पार किया जा सके।बर्फ के विशाल एवलांच 
के ऊपर चल कर पार करना भी बेहद ही कठिन लग रहा था। एवलांच में जगह जगह 
क्रेवास बने थे,जिन पर चलते वक्त ज़रा सी गलती होने पर अंदर गहराई वाली 
खड्डों में समा सकते थे और वहां से बाहर निकलना बेहद कठिन हो सकता था।     
 
    इस लिए हम ने निर्णय लिया कि घेपन गठा के ऊपरी छोर की तरफ चढ़ा जाए ताकि
 पानी के बहाव के कम होने की सूरत में उसे कहीं से पार किया जा सके। यहां 
जो लाठियां हम ने साथ लीं थीं,वे बेहद काम आयीं।बेहद खतरनाक चढ़ाई में 
एवलांच के ऊपर एक&एक कदम रखने से पहले हम जमे बर्फ पर लाठियों से वार 
कर के कदम रखने लायक जगह बना रहे थे। नीचे नज़र डालें तो स्पॉट खायी नज़र आ 
रही थी और फिसलने की सूरत में जान भी जा सकती थी। दिल के धक&धक करने की
 आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। मैं इतनी ऊंचाई में सांस फूलने से बेहद हांफ 
रहा था। हमारी बदकिस्मती यह थी कि अब नाला अब ऊपर दो भागों में विभक्त था। 
दोनों नाले उफान पर थे और कहीं से भी इन्हें पार करने की उपयुक्त जगह नहीं 
दिख रही थी। खैर हम दोनों हाँफते-हांफते उस नाले में बेहद ऊपर तक चढ़ 
गए। 
    लेकिन प्रभु यह क्या। सामने 5870 मीटर ऊंचाई वाला देव पर्वत घेपंग घो का विहंगम दृश्य था।दरअसल हम इस पर्वत के दक्षिण छोर से लगते ग्लेशियर के बिलकुल मुख पर थे।    
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| Very close to Ghepan Gho | 
अद्धभुत दिखते विशाल ग्लेशियर से हम मात्र आधे किलोमीटर आगे उस के मुख पर हम खड़े थे जो ऊपरी ओर घेपन पर्वत से लटका था। 
इस के निचले मुहाने पर जहां हम खड़े थे वह मिट्टी और विशाल पत्थरों से सटा  पड़ा था। 
पवित्र
 पर्वत को इतनी नज़दीक से देखने को मिलना एक आलौकिक चमत्कार जैसा महसूस हो 
रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था मानों यह पर्वत हमें  हिप्टोनाइज  कर अपनी 
ओर   नज़दीक बुला रहा हो। मेरे सहभागी सूरी को लग रहा था कि वहां से आधे 
किलोमीटर अंदर ग्लेशियर के प्रांगण में कोई  झील है और उत्सुकतावश उधर चलने
 को कहा किन्तु मैंने साफ़ इंकार कर  दिया क्यूंकि ऐसे उच्च  स्थानों पर 
लगातार ग्लेशियरों के टुकड़े नीचे गिरते रहते हैं जो हम  दोनों के लिए 
खतरनाक सिद्ध हो सकते थे। 
घेपन
 ग्लेशियर के नज़दीक जाने का मोह त्याग कर अब हम गंतव्य वाले राह को निकल 
पड़े किन्तु वास्तव में यहां से राह का कोई नामोनिशान नहीं था क्योंकि हम 
बेहद ऊंचाई पर गलत जगह पहुंच चुके थे। आगे की राह एक मैदान के बाद बेहद 
खतरनाक और खाईनुमा नज़र आ रही थी। संकरे रास्ते में कदमों से जरा सी चूक हो 
जाती तो सीधे मौत से सामना हो सकता था। अब हमारी चाल डर से कछुआनुमा हो गई।
 ऊपर से देखने पर अब हमे ज्ञात हुआ कि वास्तविक पगडण्डी बेहद नीचे है और हम
 बेहद गलत और खतरनाक रास्ते से आगे बढ़ रहे थे। अब नीचे सिस्सू नाले का 
पिछला हिस्सा भीतर की ओर दायीं दिशा में मुड़ रहा था और सामने दिखते पहाड़ों 
की रूप-रेखा भी बदल रही थी।     
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| Mighty revered peak Ghepan-Gho | 
अचानक
 एक ऊँचे स्थल से अल्यास झील के प्रथम दर्शन सुलभ हुए। यह दृश्य हमारे 
चेहरे पर एक सुकून और मुस्कान ले आई और थकान मानों उड़न-छू हो गया हो। 
एक हल्के नीले विशाल झील से कुछ दूरी पर हम खड़े थे। मैंने उस जगह से झील के
 फोटो खींचे।आस पास की पहाड़ियों पर गद्दियों के भेड़&बकरियां चर रहीं 
थी। झील को पास से देखने के लिए आतुर मनोस्थिति में हमारे कदमताल में अचानक
 तेज़ी आ गई आ गई। हम जैसे&तैसे नीचे झील के किनारे वाले मैदान तक आ 
पहुंचे। वहां से झील के किनारों से पहले चारों और दुर्गनुमा खाड़ी बनी थी और
 एक-दो नाले भी बह रहे थे। अपने जूते उतार कर हम नालों में उत्तर गए और
 पार नुकीले पत्थरों&चट्टानों के ढेरों के ऊपर पहुंचे। वाह क्या लाज़वाब
 नज़ारा था।    

 
यह
 समुद्रतल से 4030 मीटर की ऊंचाई पर लगभग 2 किलोमीटर लम्बी और आधा किलोमीटर
 चौड़ी विशाल झील है। इस में ग्लेशीयर के कुछ टूटे हुए बड़े टुकड़े भी तैर रहे
 थे। झील के दक्षिणी किनारे पर हरी लहलाती घास में फूल भी खिल रहे थे। इस 
झील में तोद घटी की दिशा की ओर वाले अंदरूनी पर्वतों के नालों से पानी भी आ
 रहा था किन्तु वास्तविक स्त्रोत तिनन घटी के रंगलो बेल्ट के उतरी पश्चिमी 
दिशा की ऊंची पर्वत शिखरों के विशाल जमे ग्लेशियरों से रिसता पानी ही 
है।      
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| A minaret like peak | 
यहां
 यह तथ्य से सभी को अवगत किया जाता है कि इस झील का पानी कदापि घेपन पर्वत 
के ग्लेशियरों से नहीं निकलता है बल्कि कुल्लू के रामशिला के गेमन पुलिया 
से या बंदरोल के नवोदय विद्यालय के मोड़ से नज़र आने वाले मीनारनुमा पर्वत के
 ग्लेशियरों के स्त्रोतों से है। कुल्लू जिले के कई स्थलों से इस पर्वत को 
गलती से घेपन पर्वत समझ लिया जाता है किन्तु घेपन घो इस झील के 
उत्तर पश्चिमी दिशा में है। घेपन पर्वत और इस मीनारनुमा पर्वत के मध्य एक 
दुर्गनुमा पर्वतों की बेहद खूबसूरत श्रृंखला है।  

 
 
  जिस ग्लेशियर से झील में पानी रिसता है ,उस की मोटाई कम से कम 400 मीटर 
के करीब होगी। झील के दक्षिणी छोर से दूसरी तरफ जा सकते हैं किन्तु 
ग्लेशियर वाले मुहाने से पुरे झील का चक़्कर लगाना असम्भव और खतरनाक दिखता 
है।  यह ग्लेशियर अंदाज़े से करीबन 7 मंजिला ऊंची या मोटी दिखती है और ऊपरी 
परत बेहद मटमैली है। जिस तरह जुलाई माह में बर्फ के विशाल टुकड़े झील में 
तैरते हुए नज़र आ रहे थे ,उस से यह प्रतीत होता है कि यह ग्लेशियर गर्मी के 
दवाब से टूट और पिघल रही है किन्तु यह अनअपेक्षित परिवर्तन रातोंरात नहीं 
हो सकता। मेरे अंदाज़े से यह गत 20 से 30 सालों में हुआ है। शायद इस झील का 
आकार पहले बहुत छोटा रहा हो और ग्लेशियर का मुख्य आगे तक फैला रहा हो और 
ग्लोबल वार्मिंग के असर से अब हर वर्ष सिकुड़ता जा रहा हो। यह तथ्य बाद में 
अगले दिन सिस्सू नरसरी में चाय के एक ढाबे में एक स्थानीय निवासी ने हमें 
बताया कि पास ही के गाँव शुरताग के एक वयोवृद्ध बुजुर्ग श्री शंकरदास जिन 
की आयु 104 वर्ष की है,अपनी जवानी में जब इस झील को देखने गए थे तो उनके 
अनुसार यह बहुत ही छोटी झील थी।   
  
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| Floating pieces of glacier | 
वैसे
 तो यह झील दुर्गनुमा टीले के भीतर सुरक्षित है और झील के दक्षिणी छोर  में
 एक कोने से पानी बह कर सिस्सू नाला  बन जाता है किन्तु ज्यादा पानी रिसने 
की सूरत में मिटटी के टीलों को दवाब बना सकता है। यदि झील का आकार इतना ही 
रहता है तो फिलहाल कोई खतरे वाली बात नहीं है। झील के साथ वाली पहाड़ियों से
 रोज़ एवलांच का गिरना आम बात है। जब हम झील का चक़्कर काट रहे थे तो एकदम 
जोरदार धमाके से हम चौंक गए। हम ने ऊपरी दिशा में एवलांच के टुकड़ों को 
गिरते देखा। यह बेहद ज्यादा ऊंचाई और दूरी पर हो रहा था इस लिए खतरे वाली 
कोई बात नहीं थी। 
झील
 के नीचे एक विशाल खूबसूरत मैदान है जिस में कैम्पिंग की जा सकती है। इस के
 आस पास गद्दियों ने  थाच यानि अस्थायी रेन बसेरा बना रखे हैं। साथ ही 
मैदान के किनारे किसी चट्टान के नीचे से कल कल करती मीठे पानी का चश्मा भी 
बहता है जो मैदान के मध्य से बढ़ता है।       
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| A snake like shape in the lake | 
कुछ
 देर झील का निरीक्षण एवं फोटोग्राफी करने के उपरान्त हम ने उस मैदान में 
तम्बू लगा कर ठहरने की ठान ली। इस बीच शाम के 5 बज चुके थे और घाटी में 
अचानक घने बादल उमड़ पड़े थे। देखते ही देखते ठंडी तूफानी हवा के साथ 
मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। हम फटाफट बारिश से बचने के लिए नीचे गद्दियों 
के गुफानुमा एक संकरे थाच में बिना अनुमति लिए घुस गए जबकि  वहां बाहर एक 
विशाल गद्दी कुत्ता रखवाली के लिए बैठा था। हैरानी की बात यह थी कि न ही 
वह भोंका और न ही उस ने हमें काटने की कोई कोशिश की।   
 

 
बारिश
 कम होने पर हम बाहर निकले और मैदान की ओर चल पड़े। थाच के आस पास भेड़ 
बकरियों के गोबर का ढेर पड़ा था जिस पर अब बारिश की वजह से चलने में कठिनाई 
हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानों बर्फ या दलदल में चल रहे हों। इतनी ऊंचाई 
में मौसम बेहद परिवर्तशील रहता है ,एकदम धूप निकलना और बारिश आदि पड़ना 
स्वाभाविक था।  
 
 हम ने एक उपयुक्त जगह चुन कर वहां तम्बू लगाना शुरू कर दिया। तभी कुछ 
गद्दी लोग अपने कुत्तों के साथ हमारे पास आये और उत्सुकतावश हम से पूछने 
लगे कि कहां से पधारे हैं।    
 जब
 हम ने उन को गलत रास्ते से वहां पहुंचने की घटना सुनाई तो वे भी बेहद 
आश्चर्यचकित हुए कि कैसे इतने खतरनाक रास्ते से हम वहां पहुंचे हैं। हम ने 
उन से अपना पता ठिकाना पूछा। यह लोग कुल्लू के मोहल पंचायत व् मंडी के थाची
 के उच्च इलाकों से संबंध रखते थे। वे हर वर्ष अपने इन निश्चित 
पुराने चरागाहों में भेड़ बकरियां चराने आते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि 
झील वाला इलाका कुल्लू और मंडी के गद्दियों की चारागाह है जबकि सिस्सू नाले
 के दूसरी ओर वाली पहाड़ियों पर चम्बा के गद्दी अपने भेड़ बकरियां चराते 
हैं। 
   

 
तम्बू
 लगाने तक सूर्यास्त हो चूका था और चारों ओर गहरा अँधेरा छाने लगा था। मेरे
 साथी सूरी ने स्टोव में मैगी और सूप बनाने की सोची किन्तु मैदान में तेज 
हवा व ऊंचाई के दवाब के कारण स्टोव बिलकुल भी नहीं जल रहा था। बाद में एक 
चट्टान की ओट में टार्च के प्रकाश में वह आखिर रात्रि भोज पकाने में सफल 
हुआ। इस  तापमान डिग्री 10 सेंटीग्रेड के करीब था। मुझे अत्याधिक थकान की 
वजह से तुरंत नींद भी आ रही थी। भोजन करते ही हम दोनों अपने अपने स्लीपिंग 
बेग के अंदर घुस गए और नीदं की आगोश में खो गए। यह अच्छी बात थी कि इस समय 
हवा और बारिश थम गई थी। 
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| A shepeherds transit dwelling | 
 
      अगले दिन सुबह 6 बजे जब मेरी आँखे खुली तो मैंने तम्बू का जंज़ीर 
हल्के से खोल कर बाहर को निहारा। खूबसूरत मैदान के आस पास कुछ घोड़े चर रहे 
थे और कुछ गद्दी कुत्ते अट्ठखेलियां खेल रहे थे। आस पास के पर्वतों की 
चोटियों पर सुनहरी धूप की छटा बेहद मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहीं थीं। चाय 
की चुस्कियों के साथ हम ने खूबसूरत वादियों को निहारा और ततपश्चात टेंट को 
पेक कर दिया। हम अलविदा कहने के लिए साथ लगे गद्दियों के थाच की ओर गए। 
वहां से एक गद्दी लड़का हमारे साथ राह दिखाने हेतू तैयार हुआ। वह बिना हांफे
 अपनी गर्दन के पीछे दोनों कंधों पर एक लाठी फंसा कर गपशप मारता हुआ बड़ी 
सुगमता से राह में आगे बढ़ रहा था।  हम नाले के साथ लगते नीचे वाले 
रास्ते से वापिस उस के साथ चल पड़े। कई जगह रास्ता बेहद कठिन था क्यूंकि 
नालों में बाढ़ की वजह से दलदल में पार करना बेहद मुश्किल था किन्तु हमने 
हिम्म्त कर के इन्हें लांघ ही लिया। 
  

 
  
 
   इस तरह के दो तीन नालों से  गुज़रते हुए  अब हम घेपन पर्वत से रिसते वाले
 बड़े नाले में पहुंचे। इस एवलांच वाले नाले में जहां पिछले दिन चढ़ते वक्त 
घबरा रहे थे तो अब उसी के ऊपर फिसलते चलते पार हुए। यहां उस गद्दी युवक ने 
हम से विदा लिया। अब हम कुछ देर में नहर के मुख पर पहुंच गए जहां से निचली 
दिशा को बिलकुल साफ़ पगडंडियां थी। फिर नाले से बाहर  दुर्गनुमा विशाल 
चट्टान के पास पहुंचे जहां से तिनन घाटी का सम्पूर्ण नज़ारा दिख रहा था।  
इस
 समय दोपहर के 12 बज चुके थे चुके थे और नीचे सिस्सू और शाशन गाँव बेहद 
खूबसूरत दिखाई दे रहे थे। सिस्सू हेलीपेड के साथ लगते झील का दृश्य बेहद 
जहीन था। इस तरह पार्किंग प्वॉइंट पर अपनी कार के पास पहुंच कर यात्रा के 
पूरा होने की ढेरों सुकून लिए तृप्ति का एहसास हो रहा था। ऐसा  महसूस हो 
रहा था मानो  हम ने कोई असम्भव कार्य पूर्ण किया हो। ईष्ट देव राजा घेपन के
 आशीर्वाद से हमारी यह यात्रा बेहद सुलभ और रोमांचक रही।     
          जय घेपन राजा। 
(You may also read same article in my travelogue link 
http://rdlarjesyatra.blogspot.in/  )