Monday, April 5, 2010

[अपनी यह कविता अमर उजाला , संडे आनन्द मार्च 7 , 2010 से साभार लगा रहा हूँ]


नीचे देखते हुए चलना


सब से ज़्यादा मज़ा है
नीचे देखते हुए चलने में
और नीचे गिरी हुई हर सुन्दर चीज़ को सुन्दर कहने मे

आज मैं माफ कर देना चाहता हूँ
अब तक की तमाम बेहूदा चीज़ों को
जो दनदनाती हुईं आईं थीं मेरी ज़िन्दगी में
और नीचे देखते हुए चलना चाहता हूँ सच्चे मन से.

नीचे देखते देखते
आखिरकार उबर ही जाऊँगा उस खुशफहमी से
कि दुनिया वही है जो मेरे सामने है-

खूबसूरत औरतें

बढ़िया शराब

चकाचक गाड़ियाँ और तमाम खुशनुमा चीज़ें
जिन के लिए एक हसरत बनी रहती है भीतर .

एक दिन मानने लग जाऊँगा नीचे देखते देखते
कि एक संसार है
बेतरह रौन्द दी गई मिट्टी की लीकों का
कीड़ों और घास पत्तियों के साथ
देखने लग जाऊँगा नीचे देखते देखते
अब तक अनदेखे रह गए
मेरे अपने ही घिसे हुए चप्पल

और पाँयचों के दाग

एक भूखी ठाँठ गाय की थूथन
एक काली लड़की की खरोंच वाली उंगलियाँ
मिट्टी में गरक हो गई कुछ काम की चीज़ें खोजती हुई.....
बीड़ी के टोटे
चिड़ियों और तितलियों के टूटे हुए पंख
मरे हुए चूहे धागों से बँधे हुए
रैपर ,ढक्कन, टीन......
बरत कर फैंक दी गई और भी कितनी ही चीज़ें !

उस संसार को देखना
एक गुमशुदा अतीत की ख्वाहिशों में झाँकने जैसा होगा
और इस से पहले कि धूल में आधी दबी उस अठन्नी को
लपक कर मुट्ठी मे बंद कर लूँ
वैसी बीसियों चमकने लग जाएंगी यहाँ वहाँ
उस संसार को देखना
दूर धुँधलके में तैरता अद्भुत स्वप्न जैसा होगा
बरबस सच हो जाना चाहता हुआ.

ठीक ऐसा ही कोई दिन होगा
नीचे देखते देखते जब
गुपचुप प्रवेश कर जाऊँगा उन यादों में
जब मैं भी वहाँ नीचे था कहीं
बहुत नीचे
और बेहद छोटा , बच्चा सा
यहाँ ऊपर पहुँचने के लिए बड़ा छटपटाता....
और समझने लग जाऊँगा कि अच्छा किया
जो तय कर लिया वक़्त रहते
नीचे देखते हुए चलना.


लंका बेकर बस्ती, सितंबर 2008

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