Friday, October 15, 2010

चल रहे है न ?

ख्रूटी नाला पार करते करते गला सूखने लग पड़ा है. एक जगह बड़े से पॉपलर के पास ज़मीन सीली हो रही है. देखा तो वहाँ पानी चू रहा है. . लेकिन इतना कम कि अंजुरी भर कर पिया भी न जाए. वहाँ कुछ घास के हरे तिनके उग रहे हैं और चिचिलोटि का एक नन्हा पीला फूल भी खिल रहा है. . माँ कहा करतीं थीं कि यह फूल गाल पर रगड़ने से त्वचा नहीं झुलसती. मैने हाथ बढ़ा कर पीछे खींच लिए. इस उजाड़ में खिले अकेले फूल की हत्या करने चला था. एक बड़ा पाप करने से बच गया . बड़े स्नेह से मैंने उसे विदा कहा:
मेरे लौट कर आने तक यूँ ही खिलती रहना तुम
ओ नन्ही प्यारी चिचिलोटि
मैं रुकूँगा यहाँ तुम्हें देखने को !

कीर्तिंग में कोई ढाबा खुला नहीं मिला. अलबत्ता एक बन्द दुकान के अहाते में कुछ युवक और अधेड़ छोलो और ताश खेल रहे हैं. हुक्के और चिलम चल रहे हैं . एकाध ने बीयर या व्हिस्की का जाम भी पकड़ रखा है हाथ में. नल पर खूब पानी पी कर हम आगे बढ़ गए हैं. मुझे कुछ भूख भी लगने लगी है. सहगल जी सहज और ‘कूल’ दिख रहे हैं. चौहान जी के चेहरे पर अथाह थकान और बेबसी नज़र आ रही है. अभी आधा रास्ता भी तय नही हुआ और दोपहर होने को आ रही है. थकावट, भूख, ढलता हुआ दिन और लिफ्ट न मिलने की खीज. ये सब मिल कर एक अवसाद पूर्ण अनुभूति उत्पन्न करते है. वाक़ई, यह एक सुखद यात्रा नहीं है. लेकिन मेरे भीतर एक कोना अभी भी पुलकित है , कि एक नई जगह को एक्स्प्लोर करूँगा .