Wednesday, March 7, 2012



गुरू महाराज का लाहौल आगमन और गुशाल गांव में सर्वोत्कृष्ट अविस्मरणीय सनातनी सुधार 
---राहुल देव लरजे
            हिमालय के आंगन में बसे अन्‍य पहाड़ी क्षेत्रों की भान्ति हिमाचल प्रदेश राज्‍य का जनजातीय जिला लाहौल-स्पिति भी अपने विशिष्‍ट धार्मिक रिति-रिवाजों और परम्‍पराओं के लिए मशहूर है वैसे पारम्‍पारिक इतिहास पे सरसरी डालें तो ज्ञात होता है कि स्पिति इलाके में सातवीं सदी में बुद्व धर्म के आविर्भाव से वर्तमान समय तक लगातार मुख्‍यतः बुद्व धर्म का ही प्रभाव अधिक रहा किन्‍तु वहीं लाहौल की जब बात आती है तो यहां के विभिन्‍न घाटियों में बसे विभिन्‍न समुदाय के लोग पुरातन युगों से कई धर्मों के विशिष्‍ट प्रभावों की वजह से ढ़ुल्‍मढुला की स्थिति में रहे और फलस्‍वरूप पुरातन देवी-देवताओं के साथ-साथ सातवीं सदी में यहां बुद्व धर्म के आविर्भाव होने के साथ उस में भी जुड़ गए और धार्मिक आस्‍थाओं की परिपाटी में पटटन घाटी के लोग सदियों से ले कर वर्तमान समय तक सहिषूण बने रहे और जो भी उन्‍हें अच्‍छा लगा उसे अपने धार्मिक जीवन में समेकित किया वर्तमान समय में व्‍यक्तिगत धार्मिक आस्‍था के अनुसार उन्‍हें कई वर्गों या मतों में  बांटा जा सकता हैजैसे की महादेव यानि शिव को पूजने वाले,घेपन राजा और उन के परिवार से सम्‍बन्धित देवी-देवताओं में आस्‍था रखने वाले,बुद्व धर्म के अनुयायी,डेरा ब्‍यास के सतसंग मत को मानने वाले,रामश्रणनम,ब्रह्मकुमारी और गुरू महाराज यानि सनातन धर्म को मानने वाले आदि-आदि  
            वैसे एतिहासिक तथ्‍यों के आधार पर साफ तौर से यह प्रतीत होता है कि लाहौल के पटटन घाटी में प्राचीन समय के पारम्‍पारिक हिन्‍दू देवी-देवताओं को पूजने की प्रथा रही हैलगभग हर गांव में स्‍थानीय देवी-देवताओं का डेहरा यानि मन्दिर होता था लोगों की दैनिक जीवन शैली काफी हद तक इन के पूजन और धार्मिक अनुष्‍ठानों से प्रभावित रहती थी इन अराध्‍य देवी-देवताओं में अटूट आस्‍था के चलते लोगों का धार्मिक जीवन भी हमेशा इनसे प्रभावित रहता थागांव का मुख्‍य देवता एक प्रकार का न्‍यायधीशमूसीबत में राह दिखाने वालाचिकित्‍सक और भविष्‍यवक्‍ता था,जिस पर सभी गांव वासी निर्भर थे और उस को प्रसन्‍न रखने के लिए हर वर्ष किसी विशेष माह में पूजन पर्व का आयोजन भी किया जाता था। इन स्‍थानीय देवताओं की अवमानना करने से ग्रामवासी कतराते थे और उन्‍हें यह भय भी सताता था कि देव प्रकोप से उन्‍हें नुकसान न हो लोगों में यह आस्‍था थी कि नाराज होने पर देवी-देवता उन के परिवार के किसी सदस्‍य को बीमार कर सकते थे और आकाल मृत्यु के अतिरिक्‍त फसल आदि की कम पैदावार होने पर आर्थिक नुकसान का सामना भी उन्‍हें करना पड़ सकता था। अतः गांव के मुख्‍य देवता को प्रसन्‍न रखने में ही वह भलाई समझते थे प्राचीन कर्मकाण्‍डों और अन्‍धी आस्‍था के चलते इन देवताओं को प्रसन्‍न रखने के लिए धार्मिक अनुष्‍ठानों में भेढ़-बकरियों की बलि देना आम बात थी
गुशाल गांव
           ऐसी ही एक देवी जो माता तिल्‍लों या तिलोत्‍मा के नाम से विख्‍यात थी,को चन्‍द्रा एवं भागा नदी के संगम स्‍थल के नजदीक बसे गुशाल गांव में पूजा जाता था। प्राचीन शास्‍त्रों में यह कुल्‍लू क्षेत्र के हिडिम्‍बा देवी की भान्ति एक राक्षसी थी और उसे प्रसन्‍न रखने के लिए वर्ष में एक बार होम नामक पर्व मनाया जाता था जिस में हजारों भेढ़-बकरियों की बलि दी जाती थी। सबसे कठिन रिवाज गुशाल गांव से बाहर ब्‍याही गई स्‍ित्रयों के लिए था उन्‍हें पर्व के मौके पर अपने मायके यानि गांव के लिए बलि हेतू एक भेढ़ बलि हेतू लाना आवश्‍यक था इस तरह तिलोत्‍मा देवी की पूजा-अर्चना के साथ बलि हेतू चढ़ाए गए निरीह पशुओं की संख्‍या बहुत अधिक हो जाती थी स्‍थानीय लोगों के अनुसार तिल्‍लों देवी के मन्दिर के प्रांगण के पास के एक बहते हुए जल स्‍त्रोत के पास इन असंख्‍य निरीह भेढ़ों की जहां बलि दी जाती थी,वहां की सारी जमीन रक्‍त रंजित हो कर लाल हो जाती थी और लगातार बलि के फलस्‍वरूप बलि स्‍थल पर लगभग एक फुट जमे हुए रक्‍त की परत भी बन गई थी
           तिल्‍लोत्‍मा देवी के पूजन हेतू मनाए जाने वाले होम पर्व के अलावा गुशाल गांव में शर्द काल में योर नामक एक त्‍यौहार बड़े हर्षोउल्‍लास के साथ मनाया जाता था इस पर्व की मुख्‍य विशेषता यह थी कि इस दिन गांव के किसी घर के मन्दिरनुमा कमरों(गुशाल के चारपा घराने के घर में) में रखे गए लकड़ी के बने विशेष मुखौटों जिन्‍हें स्‍थानीय बोली में मोहरा कहते थे,को पारम्‍परिक रिति-रिवाज अनुसार बाहर निकाला जाता था और इन्‍हें पहन कर कुछ ग्रामीण गांव के मध्‍य एक जगह में बर्फ से एक विशाल शिव लिंगनुमा आकृति बना कर उस के इर्द्व-गिर्द्व गाजों-बाजों सहित एक विशेष प्रकार का सामुहिक नृत्य करते थे इस पर्व का आयोजन मुख्‍यतः प्रकृति पूजन हेतू किया जाता था और पूर्वजों की आत्‍माओं से धन-धान्‍य और सुख-समृद्धि की कामना भी की जाती थी इस पर्व के पश्‍चात तुरन्‍त मोहरों को पुनः मन्दिरनुमा बने कमरों में रख दिया जाता था.
          प्रचलित लोकगाथाओं के अनुसार गुशाल गांव के निवासी इन मोहरों से बेहद खोफ रखते थे और इन से छेड़खानी करने से भी कतराते थे वहां यह मान्‍यता थी कि इन मोहरों की नाराजगी जिसे स्‍थानीय बोली में ‘’नोसख्‍याल’’ कहते हैं,द्वारा उजागर होता था और उन्‍हें प्रसन्‍न रखने के लिए पूजा-अर्चना के अलावा उपाय भी करने पड़ते थे पुराने मुखौटे की जगह नया मुखौटा बनाने की सूरत में विशेषज्ञ उन्‍हें बेहद सावधानी से बनाते थे और निमार्ण के समय उन के मुख में सोने या चांदी जैसे अमूल्‍य धातू के कुछ कणों को भी जोड़ कर रखते थे अन्‍यथा बनाने वाले को भी घोर विपदा का सामना करना पड़ सकता था कुल मिला कर तिलोत्‍मा राक्षसी देवी के अतिरिक्‍त  इन मोहरों से भी गुशाल वासी बहुत ज्‍यादा खौफ खाते थे अतःइन्‍हें प्रसन्‍न रखने के लिए मनाए जाने वाले दो पर्व योर एवं होम गांव वासियों के लिए आस्‍था से ज्‍यादा उनके कोपभाजन से बचाव हेतू पूजन के प्रतीक थे जिसे निभाया जाना उनकी मजबूरी भी थी इन की पूजा अर्चना जैसे कर्मकाण्‍ड के बहाने हर वर्ष हजारों निरीह पालतू पशुओं को भी जान से हाथ धोना पड़ रहा था
              सन 1939 में ऐसे ही होम पर्व के अवसर पर जब गुशाल में ढेरों भेढ़ों की बलि ली जा रही थी तो एक सनातनी महापुरूष जिन्‍हें स्‍वामी ब्रह्मप्रकाश के नाम से जाना जाता है,गुशाल गांव में पधारे जब उन्‍होंने बिना दया के मासूम जानवरों को बलि पर चढ़ते देखा तो उन का हृदय करूणा से भर उठा और उन्‍होंने विचलित मन से ग्रामिणों को दया भाव दिखाने की लाख चेष्‍ठा की,किन्‍तु लोगों को टस से मस न होते देख उन्‍होंने वहीं रह कर हर हालत में सुधार लाने की ठान लीकहा जाता है कि स्‍वामी जी को उन के गुरू ने दीक्षा दी थी कि उस क्षेत्र को प्रस्‍थान करो जहां सबसे अधिक पाप हो रहा हो और यदि वह उस इलाके के लोगों में सुधार लाने में सफल रहते हैं,तो ही वास्‍तविक सनातनी माने जाऐंगे अतःइस उदेश्‍य से भी स्‍वामी ब्रहम प्रकाश लाहौल के गुशाल गांव में पधारे
स्‍वामी ब्रह्मप्रकाश ऊर्फ गुरू महाराज  

         स्‍वामी ब्रह्मप्रकाश का वास्‍तविक नाम जयवन्‍त राव था और महाराष्‍ट्र से तालुक रखते थे वह कब और कैसे सनातनी बनें इस के बारे में गुशाल वासियों को भी पूर्ण ज्ञान नहीं है कुल्‍लू एवं लाहौल आने से पूर्व वह ऋषिकेश के कोयल घाटी में रहते थे पहाड़ी इलाकों में बलि प्रथा,अन्‍धी आस्‍था और धार्मिक कर्मकाण्‍डों से लोगों को विमुख करने तथा उद्धार करने के उददेश्‍य से उन्‍होनें अपनी यात्रा आरम्‍भ की और कुल्‍लू में पहुंचे कहते हैं कि वह कुल्‍लू के रामशीला और वैष्‍णों माता मन्दिर के नजदीक एक गुफानमा जगह में कुछ समय अपने संगत के साथ रहे यहां पर वे स्‍थानीय लोगों को दीक्षा देते थे कुल्‍लू बाजार के स्‍थानीय लोगों ने सनातनी शिक्षाओं का मूल ज्ञान नहीं होने के कारण स्‍वामी जी के साथ झगड़ा भी किया क्‍योंकि कहा जाता है कि एक बार स्‍वामी जी ने दीक्षा देते समय यह कहा कि मैं सबका पति हूं यह बात स्‍थानीय लागों को जब नहीं जची तो उन्‍होनें स्‍वामी जी का विरोध करना शुरू किया बाद में किसी समझदार स्त्री ने स्‍वामी जी के मूल कथन का गहन तथ्‍य समझा कर उन्‍हें शान्‍त किया यहीं पे उन की शिक्षाओं से अभिभूत हो कर लाहौल के गुशाल गांव के कुछ लोग उन के अनुयायी बन गए और उन्‍होनें स्‍वामी जी से गुशाल गांव जा कर वहां सुधार लाने हेतू आग्रह किया स्‍वामी जी को लाहौल लाने में गुशालगांव के व्‍यांगफा घराने के स्‍व.श्री शिव राम,राणा घराने के स्‍व.श्री छेरिंग तंडुव और श्री दोरजे राणा (जो वर्तमान समय में कुल्‍लू के मनसारी में रहते हैं और लगभग 100 वर्ष की आयू पूर्ण करने जा रहे हैं) की मुख्‍य भूमिका रहीस्‍वामी ब्रहम प्रकाश मात्र एक लंगोट और धोती पहनते थे और इस तरह इन्‍हीं वस्‍त्रों में उन्‍होनें कम्‍पकम्‍पाती ठण्‍ड में पैदल रोहतांग दर्रा पार किया और सन 1939 में गुशाल पधारे
         उस समय गुशाल गांव में तिल्‍लों देवी की प्रतिष्‍ठा में होम का आयोजन किया जा रहा था जब स्‍वामी जी ने निरीह पशुओं को बलि पे चढ़ाते देखा तो उन का हृदय पसीज उठा और उन्‍होनें गुशाल गांव में इस प्रथा को समाप्‍त करने की ठान ली कहते हैं कि स्‍वामी जी बलि स्‍थल पर ध्‍यान मुद्रा में बैठ गए स्‍थानीय लोगों ने इसे पूजा-पाठ में विघ्‍न समझ उन पर बन्‍दूक से गोली मारनी चाही किन्‍तू ट्रिगर दब न सका वैसे ही किसी शख्‍स ने लाठी से उन पर वार करना चाहा तो उस से लाठी एक इंच भी उठाई न जा सकी इस तरह के विचित्र शक्तियों से प्रभावित हो का गांव वासी समझ गए कि स्‍वामी जी एक असाधारण व्‍यक्तितव के महात्‍मा हैं इस तरह कई लोग तुरन्‍त उन के चेले बन गए आरम्‍भ में स्‍वामी जी तांदी संगम स्‍थल के नजदीक चनाव नदी के किनारे एक तम्‍बू बना कर रहने लगे किन्‍तु बाद में गुशाल गांव के खाम्‍पा परिवार ने उन्‍हें अपने घर में पनाह दी उन के साथ प्‍याली बाबा नामक एक चेला भी हमेशा संगत में रहता था
           बाद में गुशाल गांव के राणा किशन दास ने उन्‍हें मन्दिर बनाने हेतू गांव में अपनी जमीन दी जो कि वर्तमान में वहां विद्यालय के नजदीक है स्‍वामी जी का जीवन बेहद सरल था और वह मात्र लवाड़ (लाहौल में बनने वाली काठू की चिल्‍लड़) और दही खा कर अपना पेट भरते थे.वह गुशाल गांव के उपर किसी विशेष चश्‍में का ही पानी ग्रहण करते थे उन में अचूक यौगिक शक्ति थी और कहा जाता है कि एक बार स्‍थानीय लोगों ने उन्‍हें गुशाल गांव में मंत्रोउच्‍चारण तथा हवन द्वारा साफ आसमान में भी बारिश बरसाते देखा गया वैसे ही एक हवन में जब घी से सना हुआ नारियल जब अग्नि आहूति में फट गया तो उस के छींटें सीधे स्‍वामी जी के मूंह एवं शरीर में गिरे किन्‍तु स्‍वामी का बिलकुल भी नुकसान नहीं हुआ और जख्‍म तुरन्‍त गायब हो गए स्‍वामी जी ने गुशाल वासियों को सनातन मत की तरफ आकर्षित करने के लिए नए विचार धर्मान्तरित परिवारों के हर घर में लगातार 21 दिन तक भी हवन जारी रखा उन्‍होंनें दीक्षा द्वारा उचित ज्ञान मार्ग दर्शन दिया और पूजापाठ करने के सरल उपायों से स्‍थानीय निवासियों को अवगत कराया उन की प्रेरणा से गुशाल वासियों ने पूजा हेतू यज्ञ व हवन आदि शुरू किया और भजन-कीर्तन द्वारा ही प्रभू उपासना प्रारम्‍भ करने की चेष्‍ठा की स्‍वामी जी अब गुरू महाराज के उपाधी से माने जाने लगे
                    गुरू महाराज के ज्ञान और दीक्षा प्रप्ति से अभिभूत हो कर गुशाल गांव के मात्र 6 परिवारों को छोड़ कर सभी उनके चेले बन गए वास्‍तव में स्‍वामी जी का अनुयायी बनने का अर्थ था कि मास और मदिरा से दूर रहना और लाहौल जैसे इलाके में जहां का वातावरण और भौगोलिक परिस्थियां बेहद भिन्‍न रही हैं वहां प्राचीन परम्‍पराओं के अनुपालन से विमुख होना और सनातन धर्म के नियमावली का सख्‍ती से पालन करने आदि में कुछ ग्रामीणों ने कठिनाई महसूस हुई स्‍वामी जी ने बरगुल और मूलिंग गांव के लोगों को भी सनातन धर्म की आकर्षित करने की चेष्‍टा की किन्‍तु वहां के लोगों के कठोर स्‍वभाव से विदित हो कर जान गए कि उन्‍हें काबू में नहीं लाया जा सकता उधर गुशाल के राणा घराने के किशन दास नामक व्‍यक्ति ने सनातनी बनने के बाद एक दिन योर त्‍यौहार हेतू निकाले जाने वाले सभी मोहरों को नदी में फैंकवा दिया क्‍योंकि यह सब बलि के प्रतीक थे और इस तरह वहां योर नामक पर्व मनाना भी हमेशा के लिए समाप्‍त हो गया तिल्‍लों देवी के मन्दिर के स्‍थान पर तुरन्‍त सनातनी मन्दिर की स्‍थापना की गई,इस तरह इस देवी के पूजन हेतू किए जाने वाले पशू बलि प्रथा पे भी लगाम लग गया
          गुशाल गांव के मुख्‍य घराने जो तुरन्‍त गुरू महाराज जी के चेले बने वह थे-भाट,राणा,खाम्‍पा,सुमनाम्‍पा,पुजारा,धेपा,व्‍यांग्‍फा,रोक्‍पा और बोकट्रपा आदि इन में राणा घराने के छेरिंग तण्‍डुप पक्‍के सनातनी बन गए थे और वह घर त्‍याग कर मनाली के नजदीक किसी गुफा में रहते थे
सनातनी औंकार स्‍तुति
सनातन धर्म वास्‍तव में हिन्‍दू धर्म का ही पुराना नाम है और इस में उन प्राचीनतम उच्‍च अध्‍यात्मिक सिद्वान्‍तों की नियमावली है जिस के दैनिक जीवन में अनुसरण द्वारा मोक्ष की वास्‍तविक प्रप्ति हो सकती है सनातन धर्म का प्रथम विवरण ऋगवेद में मिलता है जिसे कई ऋषि-मुनियों ने लिखा और उन्‍होंने गहन अध्‍यन के पश्‍चात ब्रहमाण्‍ड की सच्‍चाईयों को सृष्टि में जीवित और भौतिक वस्‍तुओं के सम्‍बन्‍धों का विस्‍तारपूर्ण तथ्‍यों सहित बखान किया है वास्‍तव में यह धर्म शब्‍द से भी उपर है और इस में जीवन यापन के नैतिक तौर तरिकों से लेकर समस्‍त सृष्टि के बारे में स्‍टीक ज्ञान दिया गया है इस में संस्कृत के दो शब्‍द ‘’अनादि’’ और ‘’आदि’’ के बारे में विस्‍तार से बताया गया है सनातन मतानुसार इस सृष्टि का निर्माण एक ‘’पुरूषया’’ द्वारा अनादि काल से हुई है जिस की कोई शुरूआत नहीं रही है
                                  गुशाल गांव में गुरू महाराज के सबसे प्रथम पक्‍के सनातनी चेले स्‍व.शिवराम व्‍यांग्‍फा,स्‍व.छेरिंग तण्‍डुव ऊर्फ राणा मेमे और श्री दोरजे राणा थे। इन के बाद स्व.टशी राम सुमनाम्‍पा,स्‍व.लाला बिशन दास भाट,स्‍व.देवी चन्‍द शासनी,स्‍व.राणा किशन दास,स्‍व.डुण्‍डू राम बोक्‍ट्रपा,स्‍व.शिवदयाल खाम्‍पा और श्री सुदामा राणा आदि थे। इन के अलावा कुछ स्‍थानीय स्‍ित्रयां भी गुरू महाराज की पक्‍की चेलियां बनी जिन के नाम थे-स्‍व.छिमे राणा दादी,स्‍व.ऊरग्‍यान बुट्री सुमनाम्‍पा और स्‍व.नोरो राणा। सनातन धर्म की शिक्षाओं और पूजा हेतू यज्ञ-हवन के तौर तरिकों से प्रभावित हो कर गुशाल गांव के अलावा तांदी,ठोलंग,लोट और जहालमा गांवों के कुछ परिवार भी गुरू महाराज के अनुयायी बन गए और उन्‍होंनें मास-मदिरा आदि का सेवन त्‍याग दिया बाद में तिनन घाटी के दालंग और थोरंग गांव के कुछ परिवार भी सनातनी बन गए
हवन कुण्‍ड हेतू सनातनी ऊ छाप
       इस मत के अनुयायी घरों में इकटठे हो कर कीर्तन,भजन और हवन द्वारा ही सनातनी तौर तरीकों से पूजा करते हैं हर वर्ष गुशाल गांव तथा कुल्‍लू के 17 मील नामक जगह में जहां भी स्‍वामी जी का मन्दिर प्रतिष्‍ठापित है वहां आठवें बेसाख यानि 20 अप्रैल को गुरू महाराज की बरसी धूम-धाम से मनायी जाती है और कई दिनों तक भजन-कीर्तन का दौर चलता रहता हैजुलाई माह में यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है
        कहते हैं कि गुरू महाराज मात्र दो बार ही लाहौल पधारे थे और बाद में पंजाब के खन्‍ना में ही उन्‍होंनें अपना अन्तिम समय गुजारा
यहां उन्‍होंनें एक बन्‍द गुफानुमा कमरे में कठोर समाधि ली और 108 वर्ष की उम्र में भौतिक शरीर को त्‍यागा कहते हैं कि इस कठोर समाधि में लीन के समय उन के पैरों और जांघों के मांस आपस में चिपक गए थे और टयूबरक्‍लोसिस नामक बीमारी से भी ग्रसित हुए थे
          गुरू महाराज एक महान सन्‍त थे और उन का मुख्‍य लक्ष्‍य लाहौल जैसे पिछड़े इलाके के लोगों के जीवन में व्‍यापक सुधार लाना,उन्‍हें निरीह जानवरों के बलि देने जैसे हिंसक प्रवृतियों से विमुख कराना और पूजा-पाठ के सरल नियमों से अवगत कराना था। लाहौल के गुशाल गांव के लिए उन का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि वहां पूर्व में आयोजित किए जाने वाले सामुहिक पशु बलि प्रथा का हमेशा के लिए खात्‍मा हो गया। इस सेवा कार्य के लिए उन्‍होनें अपना सारा जीवन अर्पण कर दिया इस भागीरथी कार्य को पूर्ण करने में वह काफी हद तक सफल भी रहे किन्‍तु जैसा कि विदित है कि सम्‍पूर्ण लाहौल इलाके में लोगों के धार्मिक जीवन में विभिन्‍न प्राचीन देवी-देवताओं का प्रभुत्‍व था,इसलिए व्‍यापक तौर पर लाहौली इस मत के अनुयायी नहीं बन सके
                                                            (
राहुल देव लारजे)         


  

3 comments:

Anonymous said...

VERY WELL DONE KINDLY KEEP IT UP.

Unknown said...

Very Informative and well described💐💐💐

Roshan Lal Thakur said...

लाला मेमे को शत शत प्रणाम