Sunday, November 14, 2010

लाहौल-स्पीति में सयुंक्त परिवार प्रणाली की प्रासंगिकता

कुछ शब्द उपरोक्त विषय के बारे में:-
राहुल देव लरजे
      इस विषय पर मैंने आज से चौदह वर्ष पूर्व यानी कि सन 1996 में लाहौली बुद्धिजीवियों द्वारा प्रकाशित "चंद्रताल"नामक त्रैमासिक पत्रिका हेतु लेख लिखा था और यह विषय लाहौली समाज के पढ़े-लिखे तबके के लोगों के मस्तिष्क पटल पे शायद कोतुहल मचा गया या नहीं ,यह तो मुझे नहीं पता,किन्तु चाय की चुस्कियां लेते समय बात-चीत का विषय जरूर बना होगा .जैसा कि इस  विषय का आधार एक वास्तविक और सवेदनशील पहलु की और था,जिस से हमारा लाहौली समाज रूबरू हो रहा था,अत:मुझे खुल के लिखने का मौका मिला था.आज हम नए युग में हैं जहां सामाजिक मूल्य बदल गये हैं,लोग वहीं हैं किन्तु हमारे जीवन जीने का तौर-तरीका बदल गया है.आधुनिकता ने हमें बहुत कुछ दिया है-अच्छा भी और बुरा भी.लोगों ने भी समय के साथ बदलना शुरू कर दिया है और यह आवश्यक भी है.आज वख्त की नजाख्त को देखते हुए लोगों ने अपने को नए परिवेश में ढाल लिया है.किन्तु क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं या गलत में,मेरे ख्याल से इस पर मंथन होना आवश्यक है.(कृपया मेरी हिंदी कमजोर है ,यदि कहीं व्याकरण में अशुद्धियां दिखाई दें,तो मुआफ करें)
      आज पुन:इस विषय पर प्रकाश डालने की चेष्ठा कर रहा हूँ क्योंकि अब इंटरनेट के जमाने में विचार और संवाद और दूर तक पहुंचाए जा सकते हैं.पुस्तकों में लेख छपाने की भी उतनी आवश्यकता नहीं है,सब घर बैठे या कहीं दूर से भी संवाद किया जा सकता है.आशा है आप सब इस विषय को पढ़ कर अपने विचार अवश्य प्रस्तुत करेंगे.
लाहौल-स्पीति का परिचय:
      बर्फ की श्वेत चादर से ढकी पीर-पंजाल की गगन-चुम्बी चोटियाँ,पहाड़ियों के चरणों को स्पर्श करती हुई चन्द्र और भागा नदियाँ और मनमोहक चनाव नदी की घाटी,कल-कल करते नाले,हरे-भरे दूर तक फेले सीढी नुमा खेत एवं इस प्राकृतिक व्यूह-रचना के मध्य निवास करती यहाँ की जन-जातीय जनता और उनका खून-पसीने को एक कर देने वाला कठिन परिश्रम,यही कुछ हिमालय के गोद में स्थित 'लाहौल-स्पीति'का संशिप्त सा परिचय है.
लाहौल-स्पीति की नितांत परिस्थितियाँ और पारिवारिक आधार:
             जैसा कि सर्वविदित है कि लाहौल-स्पीति भारत के उत्तरोतर राज्य हिमाचल का एक सीमांत जिला है और यहाँ की भौगोलिक स्थिति ही नहीं,अपितु सामाजिक,आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ भी दूसरे जिलों से सर्वथा भिन्न हैं.यहाँ का जीवन नितांत भिन्न एवं कठिन है.कठोर परिश्रम,खून-पसीने की कमाई,इसी में इन की रोज़ी-रोटी निर्भर करती है.दूर ऊँची पहाड़ियों से जल खेतों में पहुंचा कर,रात-दिन फसलों की देख-भाल करने व् कठोर परिश्रम के पश्चात ही सोने जैसे कुँठ ,मटर,आलू,होप्स व् अन्य सब्जियों इत्यादि की फसल नसीब होती है.पूरी घाटी का जीवन इतना जटिल है कि बाहर का आदमी यहाँ के लोगों की मेहनत को देख कर दांतों तले ऊँगली दबाए बिना नहीं रह पाता.यही कारण है कि समाज के हर क्षेत्र में लोग हमेशा कंधे से कंधा मिला कर चलते आये हैं.विशेषकर 'संयुक्त परिवार प्रणाली'में रह कर यहाँ के लोग एक-दूसरे के दुःख-सुख के साथी रहे हैं.प्यार,सहयोग,आपसी ताल-मेल आदि वे विशेषताएं हैं,जिनकी बदोलत इस जिले में संयुक्त-परिवार प्रणाली सदियों से कायम रहती आई है.
बदलते सामाजिक और आर्थिक मूल्यों का असर :
      परन्तु आज परिस्थितियों में नितांत अनपेक्षित परिवर्तन आते जा रहे हैं.भोगौलिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के बावजूद आज यहाँ का पारिवारिक जीवन दिन-ब-दिन विघटित होता जा रहा है.घाटी निवासी पुरानी परम्परा को तिलांजलि देते जा रहे हैं.वे जान कर भी यह तथ्य भूल  रहे हैं कि एकता में शक्ति निहित है.किन्तु यह भी स्वाभाविक है कि बदलते सामजिक मूल्यों के कारण उन्हें संयुक्त परिवार प्रणाली में रहना अटपटा महसूस हो रहा है.
       इस के विपरीत सभी सामाजिक एकता को ताक में रख कर परिवार विघटित होते जा रहे हैं.भाई-भाई के मध्य आपसी रंजिश और मन-मुटाव दिन-ब-दिन बढता जा रहा है.समय आने पर भाईयों का एक छत के नीचे गुजर-बसर करना मानो एक घुटन एवं असहनीय पीड़ा समझा जा रहा है.लगभग हर वर्ष कानो-कान खबर मिल ही जाती है कि फलां घर के भाईयों में झगड़ा हुआ,जमीन व् बाग-बगीचे का बटवारा,फलां का पृथक घर बना कर सिर्फ अपने बीबी-बच्चों के साथ जीवन-यापन करना आदि-आदि.यह चीज़ें लाहौल-स्पीति के संस्कृति और संस्कारों पर प्रश्न बन कर उभर रहे हैं.आपसी मन-मुटाव की कारण जमीन-जायदाद का बंटवारा होगा और जितने हिस्सेदार होंगे,खेत के भी उतने ही छोटे-छोटे टुकड़े होंगे.फलस्वरूप फसल की पैदावार पहले की अपेक्षा घटती चली जायेगी.यही नहीं,आये दिन कई प्रकार के लड़ाई-झगड़े होते रहेंगे.माता-पिता के रहते भाइयों की यह लड़ाई व् मन-मुटाव स्वयं माता-पिता के लिए भी दुखद एवं असहनीय बात बन जायेगी.
संयुक्त परिवार प्रणाली की लाहौल-स्पीति में प्रासंगिकता :
      राष्ट्रीय और प्रादेशिक परिपेक्ष्य में संयुक्त परिवार प्रणाली के बारे कुछ ब्यान कर पाना मुश्किल है,क्योंकि इस प्रणाली में जहां कई गुन हैं,वहाँ यह दोषों से भी मुक्त नहीं है.परन्तु जिला लाहुल-स्पीति के संधर्भ में यही कहा जा सकता है कि इस प्रणाली का कायम रहना ही श्रेयस्कर है क्योंकि जैसा पहले भी ज़िक्र किया जा चुका है कि सम्भवत:पूरे देश में सिर्फ यही ऐसा भू-खंड होगा,जिस की भोगोलिक,सामजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ नितांत भिन्न हैं.जहां तपती गरमी और कडाके की ठंड में जीवन यापन करने का प्रश्न उठता है,तो कल्पना ही की जा सकता है कि अकेला आदमी किस तरह इन सारी प्राकृतिक विपदाओं से जूझ पाएगा.कभी बेमौसम बर्फबारी से फसलों का नष्ठ हो जाना तो कभी रास्तों की खराबी से फसलों से होने वाली आय का नुक्सान होना ,इत्यादि भी कई बार अकेले आदमी की जीवन-यापन पे असर दिखाते हैं .साल में छ:महीने ही तो काम का सीजन होता है और यदि इसी निश्चित अवधि में भी इकठ्ठे काम नहीं निपटाया गया तो समस्त फसल नष्ट हो जायेगी और समय पर साग-सब्जियां भी उगा नहीं पायेंगे.यदि बाहरी मजदूरों से यह सब कार्य करवाया जाता है तो उस की कीमत भी तो बहुत चुकानी पडती है.वैसे भी मजदूर आज-कल ऐसे इलाके में मिलते कहाँ हैं.
संयुक्त परिवार प्रणाली में विघटन के कारण :
        जहां संयुक्त परिवार प्रणाली में विघटन के कारणों की बात आती है तो यह कहना उचित नहीं होगा कि इस के पीछे सिर्फ जमीन-जायदाद के झगड़े हैं.गूढ़ विचार के पश्चात कई तथ्य सामने आये हैं.सर्वप्रथम,स्वार्थी मानसिकता इस विघटन का मुख्य:कारण है.घर का हर सदस्य चाहता है की उस की भी व्यक्तिगत सम्पति हो ताकि भविष्य में अन्य गृह सदस्यों द्वारा उस का शोषण ना हो.सरकारी नौकरियों एवं व्यवसाय में लगे परिवार  के सदस्य की तुलना अगर घर बैठे कृषि में लगे सदस्यों से की जाती है तो द्वितीय वर्ग अपने को सुखी महसूस नहीं करता.फलस्वरूप वे पारिवारिक विघटन को ही सार्थक समझते लगते हैं.नोकरी में लगे सदस्य शायद ही वापस लाहौल आ के  घर सम्भाल पाते हैं ,वे कहीं बाहर ही बस जाते हैं .साथ ही यदि ,किसी घर में बहुत सारे युवा यदि बेरोजगार होते हैं तो वे भी हालात को देखते हुए अलग हो जाना ही सार्थक समझते हैं.वैसे भी पुरानी सामाजिक फिल्मों की तरह किसी परिवार के सभी सदस्य एक ही चूल्हे-चौके पे भोजन पका और खा रहें हो ,यह भी सभी समझते हैं कि आज सम्भव नहीं है.पड़ोसी जिला कुल्लू में भी जमीन,बगीचा,मकान खरीदने और बनाने की व्यक्तिगत लालसा और होड़ ने भी संयुक्त परिवार प्रणाली को विघटित करने पर मजबूर किया है.एक अन्य कारण है-सरकार की सत्य घोषणा "छोटा-परिवार,सुख का आधार"का संदेश लाहौली समाज के जनमानस के मन तक पहुंचना.
वर्तमान आर्थिक स्थिति और आवश्यकता :
      आज जिले की आर्थिक स्थिति पहले कि अपेक्षा कहीं अधिक बेहतर है.अपनी योग्यता से यहाँ के होनहार छात्र अच्छी नौकरियों और उच्च सरकारी पदों पे आसीन हैं.डाक्टर,इन्जीनेयर ,आई.एस ,ठेकेदारी या अन्य कोई भी व्यवसाय हो ,सब जगह लाहौली लोग अपनी धाक जमा चुके हैं.आज अपने जिले से उठ कर दूसरे जिलों में भी घाटी निवासी अपनी जायदाद बना रहे हैं और पूँजी निवेश कर रहे हैं.वे वास्तव में वे अपनी पूँजी का विनियोग वास्तविक अर्थों में विशेष चीज़ों में कर रहे हैं.यह सब सुखद भविष्य का सूचक है कि कुछ लोग लाहौल में रहें और कुछ बाहर.इस तरह सब को समान रूप से तरक्की करने का मौका मिला है और भविष्य में भी मिलता रहेगा.आज आवश्यकता है की एक-दूसरे की मुश्किलात में सहायता करने की ताकि वे अपने को अलग-थलग महसूस न कर सकें.इस लिए किसी भी हालात में पारिवारिक विघटन की नोबत नहीं आनी चाहिए.अलग-अलग जगह में रहते हुए भी सब के विचार एक रहना चाहिए,सब की सम्पति सांझी होनी चाहिए,तभी सच्चे अर्थों में उन्नति हो पायेगी.
निष्कर्ष  :
      अंतत:विषय का निष्कर्ष इन्हीं शब्दों के साथ निकालना न्यायौचित होगा कि संयुक्त परिवार प्रणाली ही यहाँ की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के सर्वथा अनुकूल है और श्रेष्ठ है.माना  कि समय के साथ संयुक्त परिवार प्रणाली की परिभाषा बदल चुकी है किन्तु इस प्रणाली को शिथिल करने की बजाए इसे नया रूप देना होगा,इसे सार्थक और ठोस बनाना होगा,तभी हर परिवार खुशहाल और सुखी होगा."जय लाहौल".(राहुल लारजे)

3 comments:

Anonymous said...

राहुल भाई !! आप का ब्लॉग पढ़ा, बहुत अच्छा लगा. . आपने लाहौल के सामाजिक परिदृश्य पर अच्छा प्रकाश डाला और संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता और उपयोगिता पर बल दिया है. लाहौली समाज आज उन्नति के शिखर पर है तो इस का श्रेय संयुक्त परिवार व्यवस्था को ही जाता है. जब भी इस विषय पर बातचीत होती है तो विचारकों ने हमेशा संयुक्त परिवार प्रणाली का समर्थन किया है. .. लाहौल जैसे दुर्गम भोगोलिक परिस्थिति में रहने वाले लोगों के लिए एकांकी परिवार कतई फिट नहीं बैठता .. उधाहरण के तौर पर अगर परिवार के दस सदस्य एक साथ एक ही वाहन पर सवार हो कर यात्रा करते है तो व्यय न्यूनतम होगा, वहीँ अगर वही सदस्य चार वाहनों पर यात्रा करते है तो व्यय भी बढ़ जायेगा, नतीज़न आर्थिक दवाब बढ़ जायेगा.. फलस्वरूप विकास कि दर धीमी पड़ जाएगी. ... आमीन !!
R.K. Telangba

Anonymous said...

राहुल भाई !! आप का ब्लॉग पढ़ा, बहुत अच्छा लगा. . आपने लाहौल के सामाजिक परिदृश्य पर अच्छा प्रकाश डाला और संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता और उपयोगिता पर बल दिया है. लाहौली समाज आज उन्नति के शिखर पर है तो इस का श्रेय संयुक्त परिवार व्यवस्था को ही जाता है. जब भी इस विषय पर बातचीत होती है तो विचारकों ने हमेशा संयुक्त परिवार प्रणाली का समर्थन किया है. .. लाहौल जैसे दुर्गम भोगोलिक परिस्थिति में रहने वाले लोगों के लिए एकांकी परिवार कतई फिट नहीं बैठता .. उधाहरण के तौर पर अगर परिवार के दस सदस्य एक साथ एक ही वाहन पर सवार हो कर यात्रा करते है तो व्यय न्यूनतम होगा, वहीँ अगर वही सदस्य चार वाहनों पर यात्रा करते है तो व्यय भी बढ़ जायेगा, नतीज़न आर्थिक दवाब बढ़ जायेगा.. फलस्वरूप विकास कि दर धीमी पड़ जाएगी. ... आमीन !!
R.K. Telangba

Anonymous said...

I am sorry I am going to answer in English. U r right about this big change .It is going to happen once people get educated they do not like interference of others . If everyone
should understand this and live separates, but do not for get ur duties and respect for elders . Divided ur duties and make it clear among themselves. So everyone can live in peace and harmony. at list instead of having bitterness there will be love and care . I am not saying u should not live together . By all means if u can but if not then this is better solution in my thinking .